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भाग 4

5 अगस्त 2022

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सुरेश ने नीली को बुलाकर यामिनी बाबू से कहा, "हम लोग जाते हैं, जल्द काम है,   तुम पैदल निरू को लेकर आओ," सुरेश मोटर ले गए।  निरुपमा समझकर एक बार लज्जित हो चंपे के झाड़ की तरफ देखने लगी-यामिनी बाबू से  भाव की आँख बचाने के लिए। यामिनी बाबू दिल से खुश हुए। आज उन्हें पहले-पहल  निरू के साथ अकेले टहलने का लंबा समय मिला है।

बराबर आकर निरू की उँगलियाँ देखते हुए बोले, "खूबसूरत उँगलियों की चंपे से  उपमा दी जाती है।"  "हूँ," उसी वक्त मुँह फेरकर निरू ने कहा, "देह के रंग से भी, पर मुझे बड़े  चमगादड़ के पंजे-सा लगता है ।"  यामिनी बाबू का आधुनिक श्रृंगार खिल गया। उपमा सोचकर हँसे, मजाक में आया  श्रृंगार का पूरा मजा लेकर पूछा, "अच्छा, बंगला में किसकी कविता तुम्हें अच्छी लगती है-रवि बाबू की?"

"नहीं," निरुपमा चलती हुई चंपे की एक पत्ती खोंटकर बोली, "गोपाल भाँड़ की।" इस बार यामिनी बाबू को एक धक्का लगा। वे सच्चे कवि-प्रेमी हो रहे थे, निरुपमा हास्यप्रिया; गोपाल भाँड के भाव से उन्हें पराभव मिला, पर फिर भी निर्मल हृदय

के निकले व्यंग्य से भीतर-ही-भीतर एक आनंद का उद्रेक हुआ जो स्त्री-पुरुषवाले भेदात्मक प्रेम को अभेद मैत्री में बदल देता है; परंतु यामिनी बाबू प्यासे मनुष्य थे-पानी चाहते थे-स्थूल कर से लेकर पीना, शांति नहीं जो अपने सूक्ष्म स्पर्श से तृष्णा को बुझा देती है। बोले, "हम जिस संबंध में बँधने जा रहे हैं, तुम्हें मालूम हो ही चुका होगा, उस पवित्र संबंध से मुझे पूर्ण आशा है कि हम सुखी होंगे। दिवस व रात्रि के प्रकाश और अंधकार के प्रवाह में हमारे जीवन के खिले हुए फूल मुक्त भाव से बहते हुए संसार की परिधि को पार कर जाएँगे।" निरुपमा को जैसे किसी ने गुदगुदा दिया। देर तक अपने को रोके रही। सँभलकर भी उत्तर न दे सकी। चली गई। 

मौन को सम्मति-लक्षण समझकर यामिनी बाबू ने कहा, "अब समय अधिक नहीं और खर्च कुछ अधिक करने का विचार है। एक दफा कानपुर जाना होगा। रेहन की एक संपत्ति है। हालाँकि करार की मियाद पूरी हो चुकी है; पर रजिस्ट्री की अभी है, उसका फैसला हो जाए तो रुपये काफी हाथ आ जाएँ।" 

बिलकुल मौन रहना निरू को अनुचित जान पड़ा; पूछा, "कैसी संपत्ति?" निरू बगीचे से बाहर निकली घर चलने के लिए। साथ चलते हुए यामिनी बाबू बोले, "एक हिंदुस्तानी की है। दो मकान हैं। बाबा (पिता) ने रेहन रखे थे। अब उनके न रहने

से सारा भार मुझ पर है। कॉलेज की छुट्टियों में एक बार हो आऊँगा। मुख्तार को समझा दूँगा।" "मकरूज रुपयों का इंतजाम कर भी सकता है दूसरी जगह से।"-निरू सड़क के सीधे देखती हुई बोली। रास्ते से कुछ दूर एक चमन में खिले अमलतास के रहे-सहे सुंदर पीले फूलों को प्यार की दृष्टि से देखती हुई चली गई।

"अब उतनी गुंजाइश नहीं, बाबा ने पहले ही हिसाब लगा लिया था," मजाक के गले से यामिनी बाबू ने कहा, "मकरूज का भी देहांत हो गया है। सुना है, उसका लड़का विलायत से डी. लिट. होकर आया है। मैंने देखा नहीं-उसके बाप को भी नहीं,

मुमकिन-देखा हो, याद नहीं। मैं जिस जगह पर हूँ, इसके लिए एक डी. लिट्. ने कोशिश की थी। मुमकिन-वही हो।" यामिनी बाबू कुछ याद कर हँसे। "आप उससे बड़े विद्वान साबित हए।" स्वर को चढ़ाव-उतार से राहत कर निरुपमा ने कहा। 

यामिनी बाबू लजा गए फिर सँभलकर बोले, "बात यह है कि सिफ डी. लिट. होने से ही नहीं होता, और भी बहुत कुछ होना जरूरी है। मैं अंग्रेजी-साहित्य का पी-एच. डी. हूँ, पर इतना ही देखकर कोई क्या समझेगा?'' "अगर पी-एच. डी. नहीं।"

"नहीं, मेरा मतलब यह है, मैं कहता हूँ, 'सिर्फ पी-एच. डी. होने से क्या होता है?" "कुछ नहीं।" "नहीं, यानी बड़ी-से-बड़ी डिग्री भी आदमी को आदमी नहीं बना सकती, अगर वह दायरे से बाहर अलग-अलग विषयों का और भी ज्ञान प्राप्त नहीं करता। फिर एक कल्चर भी तो है? मुझे डॉक्टरी हासिल करने के अलावा और भी बहुत कुछ देखना-भालना पड़ा है-सभ्य जातियों की रहन-सहन की बातें-कितना मिला-मिलाया। यह तो मानी हुई बात है कि भारतवर्ष में बंगालियों से बढ़कर कल्चर अपर प्रोविन्स के लोगों में नहीं। हिंदुस्तानी बेचारे लाख पी-एच. डी., डी. लिट. हो जाएँ, कंधे पर लिट् हो जाएँ, कंधे पर लाठी रखकर चलनेवाली वृत्ति कुछ-न-कुछ रहेगी।" "यानी देखनेवालों को, हिंदुस्तानी की पदवी की अपेक्षा कंधे पर लाठी ज्यादा साफ नजर आई!"

यामिनी बाबू फँसे। तुला उत्तर न सूझा। बोले, 'प्रोफेसर बनर्जी, चटर्जी, मुकर्जी-सब अपने आदमी तो हैं? बैरिस्टर घोष भी अपने ही हैं। इनकी आवाज में ताकत है। कुछ तअल्लुकेदार हैं, बुद्ध; इनकी हाँ-में-हाँ मिलाया करते हैं। ये जानते हैं और ठीक भी है, तुम्हें भी स्वीकार करना होगा, अभी बंगालियों का मुकाबला हिंदुस्तानी नहीं कर सकते। एक हिंदुस्तानी जितना पढ़कर समझता है, एक  बंगाली उससे ज्यादा सिर्फ देखकर।"

"मेरा खयाल है, सिर्फ सुनकर।' निरुपमा कहकर गहरी मनोभूमि में उतर गई। यह भाव भी ठीक-ठीक यामिनी बाबू की समझ में न आया. वे उसी सहृदयता से बोले, "हाँ, यह भी ठीक है; देहात में बहुत-से बंगाली हैं जिन्हें कलकत्ता देखने का अवसर नहीं मिला; पर सुनकर वे बहत-सी बातें जानते हैं; उन्हें मौका भी है; जो जितना जानता है, वह उतना सुना भी सकता है; हिंदुस्तानियों के पास तुलसीदास की रामायण के सिवा सुनाने की चीज है क्या? -इधर एक नौटंकी चली है।"

धीरे-धीरे बगीचे से कैसर-बाग तक खुली जगह पार हो गई। निरुपमा ने बातचीत करना बंद कर दिया। समझकर यामिनी बाबू भी चुप हो रहे।  रास्ता तय होता जा रहा था; पर हृदय चाहता था, अभी और साथ हो-और बातचीत हो। प्रेयसी की विमुखता उनके लिए सुमुखता थी, क्योंकि वे उसका अनुकूल अर्थ लगाते थे। 

इसी समय रास्ते के एक बगल बैठा, कैप-कोटवाला एक चमार देख पड़ा। यामिनी बाबू बोले, "यह कुछ पढ़ा-लिखा होगा; अगर चमार है तो समझना चाहिए, इसे जगह नहीं दी ऊँचे वर्णवालों ने, इसलिए कलम छोड़कर अपना पेशा इख्तियार कर लिया है। इसे पैसा देना चाहिए। अगर चमार नहीं, तो भी; क्योंकि इसने एक आदर्श सामने रखा।" फिर बढ़ते हुए चमार के सामने जाकर खड़े हुए। निरुपमा को भी साथ चलना पड़ा। पर पास पहुँचकर देखकर जरा ठिठुक गई-'चमार!' मन में  अव्यक्त ध्वनि हुई। कृपा की दृष्टि से देखते हुए उपकार करनेवाले स्वर से यामिनी बाबू ने कहा, '36, हिवेट रोड पर आधा घंटे-भर बाद, हम काम देंगे; अभी यही पेशगी देते हैं," एक इकन्नी फेंकते हुए, "तुम कौन हो?"

"इस वक्त तो चमार हूँ," इकन्नी वापस करते हुए कुमार ने कहा, "मैं घंटे-भर बाद वहाँ आऊँगा, तब काम करके पैसे लूँगा, मैं आपकी कृपा के लिए हृदय से कृतज्ञ हूँ।" "तो तुम चमार नहीं हो; अच्छा, वहीं तुमसे पूछेगे।" यामिनी बाबू मंडी की तरफ मुड़े। कुमार के पास बहुत-से आदमी आए और आते रहे। भीड़ लगती-बढ़ती रही। लोगों में उत्सुकता, आनंद, सहानुभूति फैली। वह बादामी और काली पॉलिश की दो डिबिया और एक ब्रश लिए बैठा था। कई जोड़े पालिश करने को मिले। सबसे एक-ही-एक पैसा उसने लिया। उसकी भलमनसाहत का यह दूसरा प्रमाण था। शहर में सनसनी फैल चली। चमार इधर-उधर जो थे, चौकन्ने हुए; वे दो पैसे से कम नहीं और एक आने तक पालिश कराई लेते थे। कुछ पहचान के लोग भी रास्ते से होकर गुजरे। 'सस्ता साहित्य समुद्र' के प्रकाशक लाला श्यामनारायण लाल देखकर कह गए, "हम चार रुपये फार्म दे रहे थे मोपासाँ के अनुवाद के, वह आपको नहीं मंजूर हुआ; आखिर पालिश और ब्रश लेकर बैठे।"

पं. रामखेलावनसिंह मुँह बिगाड़कर बोले, "सात रुपये घंटे की पढ़ाई लगवा रहे थे, नहीं भायी; अब चमार बनकर पुरखों को तारो।' फिर फिरकर नहीं देखा; कितने स्वगत कह गए!  घंटे-भर बाद कुमार उठा। पास छः आने पैसे आ गए थे। मन प्रसन्न था। संसार में कोई मार नहीं सकता; रोटियाँ चल जाएँगी अगर इसी कार्य को महत्त्व देने के लिए अदृष्ट-चक्र से घूमता हुआ बहुभाषाविद् और लंदन-विश्वविद्यालय का डी.लिट. होकर वह आया है, तो इसे श्रद्धापूर्वक स्वीकार करता है। उसका विद्या-प्राप्ति वाला उद्देश्य सफल है। अर्थ-प्राप्ति वाला यदि इस रूप से, विद्यावाले को दिखावे के तौर पर लेकर हो रहा है तो हो, वह कटाक्ष नहीं करता; बल्कि इस कार्य को घृणा करनेवाली ऊँचे वर्ण की दृष्टि से वह घृणा करता है। संभव है, शिक्षा वैसा

कार्य-सहयोग देकर भारत को सच्चे वर्ण-निर्माण की शिक्षा दे रही हो; यह सोचकर वह चला। उसी गाड़ीवाले बरामदे के नीचे कई और बंगाली एकत्र थे। जब वह फाटक के भीतर गया और उसकी ओर कौतुकपूर्ण प्रश्नभरी दृष्टियाँ उठीं, वह समझ गया कि इससे पहले उसके संबंध में काफी बातचीत हो चुकी है। मोटर की बगल से निकलकर एक पैर बरामदे की सीढ़ी पर चढ़ाकर यामिनी बाबू से काम देने के लिए उसने कहा। तब तक एक बंगाली सज्जन ने पूछा, "आप कहाँ रहता है?"

"एक गाँव रामपुर है।" "रामपुर में?" सुरेश बाबू ने पूछा। सामने के दीवानखाने में निरुपमा थी। दरवाजे के पास आ गई।

"जी,' निगाह नीची किए हुए कुमार ने कहा। "कौन रामपुर?" सुरेश बाबू ने देखते हुए पूछा। "जिला उन्नाव में एक मौजा है।"

"अच्छा!'' सुरेश और निरुपमा की हँसती हुई दृष्टि एक साथ मिल गई, एक ही भाव से जैसे। "रामपुर में आप किस घर के हैं?" सुरेश बाबू ने पूछा। "मिश्रों के यहाँ का।" "आप ब्राह्मण हैं?' एक बंगाली सज्जन ने पूछा। "जी।"

प्रसन्न होकर सब बंगाली हँसे। "आपके पूज्य पिताजी का शुभ नाम?" सुरेश बाबू ने पूछा मन में निश्चय किए हुए।

"पं. गिरिजाशंकर मिश्र।" "आपने-माफ कीजिएगा-कहाँ तक शिक्षा प्राप्त की है?" एक बंगाली सज्जन की ध्वनि

में भाव का आवेश स्पष्ट हो रहा था। कुमार हँसा-प्रश्न की सदाशयता समझकर। संयत स्वर से कहा, "मैं लंदन का डी. लिट.

हूँ।" निरुपमा बिलकुल सामने आ गई। ऐसी दृष्टि से देखने लगी, जैसे वहाँ कोई न हो। "आपका शुभ नाम?" उस बंगाली ने पूछा।  "मुझे कृष्णकुमार कहते हैं। आप अधिक समय न लें; बड़ी कृपा होगी अगर मेरा काम

मुझे दें।" यामिनी बाबू गहरे भाव में डूबे हुए। कितने विषय, कितनी बातें आई-गईं। यह वही व्यक्ति है। अभी-अभी इसकी चर्चा हो चुकी है। भाव बदला। निरुपमा को देखा, फिर कुमार को नहीं समझ सके कि होटलवाला यही आदमी है। तब अच्छी तरह देखा न था। जेब से एक रुपया निकालकर बढ़ाते हुए अंग्रेजी में बोले, "लो; हम तुमसे जूते पॉलिश करवाना अपना अपमान समझते हैं। तुमने बड़े साहस  का काम किया है। यह हमारी सहायता; हमें आशा है, स्वीकार करोगे।"

कुमार ने उसी तरह उत्तर दिया, "आपको धन्यवाद देता हूँ। मैं इस तरह की सहायता नहीं चाहता, क्षमा करेंगे। आप शिक्षित हैं। आपको शिक्षा देना व्यर्थ है; इतने से आप अच्छी तरह समझ लेंगे। अच्छा, आप सब सज्जनों को धन्यवाद।" फिर कृतज्ञ

दृष्टि से एक बार निरुपमा को देखकर धीरे-धीरे फाटक के बाहर आया। यामिनी बाबू निरू को देखते हुए सुरेश से बोले, "इसी के दो मकान कानपुर में हमारे रेहन हैं। इसके बाप ने बाबा के पास रखे थे, इसके खर्च के लिए शायद, और

जो काम रहा हो।" निरुपमा को दिखाकर सुरेश बोले, "इसकी जमींदारी थी रामपुर, सोलहो आने।" 

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रचनाएँ
निरुपमा
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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (२१ फरवरी, १८९९ - १५ अक्टूबर, १९६१) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। उनके मार्ग में बाधाएँ आती हैं, पर वे उनसे विचलित नहीं होते और संघर्ष करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं।'' कमल और निरुपमा के माध्यम से निराना ने नारी-जाति की मुक्ति का भी पथ प्रशस्त किया है। सन् 1935 के आसपास लिखा गया निराला का यह उपन्यास हमारे लिए आज भी कितना नया और प्रासंगिक है, यह इसे पढ़ कर ही जाना जा सकता है। सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' को उनके मरणोपरांत भारत के प्रतिष्ठित सम्मान “पद्मभूषण“ से सम्मानित किया गया।
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निरुपमा भाग 1

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लखनऊ में शिद्दत की गरमी पड़ रही है। किरणों की लपलपाती दुबली-पतली असंख्यों नागिनें तरु लता-गुल्मों की पृथ्वी से लिपटी हुई कण-कण को डस रही हैं। उन्हीं के विष की तीव्र ज्वाला भाप में उड़ती हुई, हवा में ल

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भाग 2

5 अगस्त 2022
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एक साधारण रूप से अंग्रेजी रुचि के अनुसार सजा हुआ कमरा। एक नेवाड़ का बड़ा   पलँग पड़ा हुआ। पायों से चार डंडे लगे हुए; ऊपर जाली की मसहरी बँधी हुई। पलँग पर गद्दे-चदरे आदि बिछे हुए। चारों ओर तकिए। बगलवाले

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भाग 3

5 अगस्त 2022
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कुमार कमरे में अन्यमनस्क भाव से एक कुर्सी पर बैठ गया। चिंताराशि, फल के छिलके पर खुले रंग जैसे, मुख पर रंगीन हो आई। स्वच्छ हृदय के शीशे पर अपने ही  रूप का प्रतिबिंब पड़ा। इसे ही वह प्यार करता था। अन्यत

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भाग 4

5 अगस्त 2022
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सुरेश ने नीली को बुलाकर यामिनी बाबू से कहा, "हम लोग जाते हैं, जल्द काम है,   तुम पैदल निरू को लेकर आओ," सुरेश मोटर ले गए।  निरुपमा समझकर एक बार लज्जित हो चंपे के झाड़ की तरफ देखने लगी-यामिनी बाबू से  

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भाग 5

5 अगस्त 2022
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नीली मार खाकर जिस तरह निरुपमा से नाराज हुई थी; अनादृत होकर उसी तरह यामिनी  बाबू से हुई। वह शारीरिक शक्ति में दीदी या यामिनी बाबू से कम है! पर बदला चुकाने की शक्ति में नहीं। जिस समय चमार के रूप में कुम

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भाग 6

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सुरेश के पिता योगेश बाबू पचपन पार कर चुके हैं। गृहस्थी के झंझटों से फुर्सत पा घर रहकर योग-साधन किया करते हैं। ध्यान सदा सुरेश पर रहता है कि नवयुवक गृहयुद्ध के दाँव-पेंच भूलकर सहानुभूति में कहीं बहक न

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भाग 7

5 अगस्त 2022
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कमल निरुपमा की मित्र है। फर्स्ट आर्ट तक दोनों साथ थीं, निरू ने छोड़ दिया, वह बी.ए. में है। पिता ब्राह्म हैं, उसके भी विचार वैसे ही। बहुत अच्छा गाती है। मिलने आई है। "नमस्कार।"-कमरे में बैठते ही हाथ जो

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भाग 8

5 अगस्त 2022
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निरू ने कमल को स्नेहपूर्वक बिदा किया। कमल से वह कुछ खुल गई, इसके लिए मन में कुछ लज्जित हुई। पर, कमल उसकी हिताकांक्षिणी है, सोचकर आश्वस्त हुई। ऐसीछोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना ठीक नहीं, आखिर यह गीत हर

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भाग 9

5 अगस्त 2022
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नीम के नीचे बैठक है। गुरुदीन तीन बिस्वेवाले तिवारी हैं, सीतल पाँच बिस्वेवाले पाठक, मन्नी दो बिस्वे के, सुकुल, ललई गोद लिए हुए मिसिर - पहले पाँच बिस्वे के पाँडे, अब दो कट गए हैं, गाँववालों के हिसाब से,

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भाग 10

5 अगस्त 2022
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रामपुर आते-आते निरुपमा के दिल का क्या हाल था, वह काव्य का विषय है। नीली भी  नील आकाश की चिड़िया थी, चपल सुख के पंख फड़काकर उड़ती हुई। मुश्किल से एक रात  डेरे में रही। सुबह होते ही गाँव घूमने निकली। नि

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भाग 11

5 अगस्त 2022
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जूते पहनकर नीली को लेकर निरुपमा चली। बाहर निकलकर गली के घरों को पार करने लगी तो काम करती हुई किसानों की स्त्रियाँ आकर जमा हो गईं और चारों ओर से घेर लिया। स्नेह से उच्छ्वसित होकर उन्हीं में से एक वृद्ध

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भाग 12

5 अगस्त 2022
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भोजन के पश्चात आराम करते हुए सुरेश ने नीली को बुलाया। गाँव की हवा में नीली लहर की तरह मुक्त हो रही थी। लिखने-पढ़ने का कोई दुःख न था। भाई के सामने प्रसन्न मुख आकर खड़ी हुई। सुरेश बँगला उपन्यास की किताब

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भाग 13

5 अगस्त 2022
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शाम चार बजे से निरू को देखने के लिए गाँव की स्त्रियों का आना शुरू हुआ। एक  बड़े कमरे में दरी और चादर बिछा दी गई थी, स्त्रियाँ आ-आकर बैठने लगीं। सब सिर से पैरों तक भारी भूषणों से लदी, जैसे सांस्कृतिक स

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भाग 14

5 अगस्त 2022
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दूसरे दिन निरू ने कई मर्तबे कुमार के घर जाने की इच्छा की, पर उधर चलते पैर ही न उठे। सुरेश के मन में जो भाव पैदा हो गया है, उससे अधिक लज्जास्पद उसके लिए दूसरा नहीं। जाते हुए जैसे उसकी संपूर्ण शोभा चली

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भाग 15

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कई रोज हो गए। निरू बाहर नहीं निकली। ज्यों-ज्यों निरू अँधेरे में रहने लगी, सुरेश प्रकाश देखने लगे। अनेक प्रकार के काल्पनिक चित्र आकाश में रंगीन पंख खोलकर उड़ते हुए पक्षियों की तरह सजीव जान पड़ने लगे। स

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भाग 16

5 अगस्त 2022
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दूध उतारने के बहाने युवती घर गई। पति वहीं घर ताक रहे थे। युवती के मन में सुरासुर-करों की कर्षित रज्जु से जो समुद्र-मंथन हो रहा था, उसका निकला हुआ गरल पति को एकांत में बुलाकर, महादेव की तरह का समर्थ सम

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भाग 17

5 अगस्त 2022
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रामचंद्र के चले जाने पर निरू को एक जबरदस्त धक्का लगा। वह उस जगह जाकर अवस्थित हुई, जहाँ उसकी अक्लेद नारी-सत्ता है-समस्त विश्व की नारियों की एक ही चेतन संस्कृति, जो स्वयं रीति-नीतियों का सृजन करती है और

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भाग 18

5 अगस्त 2022
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रामचंद्र, मलिकवा की माँ और अपनी माँ को लेकर कुमार लखनऊ चला गया। गाँव में किसी से मिला भी नहीं। पहले से वह इसी धातु का बना हुआ है। किसी की समझ पर दबाव डाले, उसका ऐसा स्वभाव नहीं।  जब परीक्षाएँ पास की औ

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भाग 19

5 अगस्त 2022
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ब्रह्मभोज के दूसरे दिन निरुपमा नीली को लेकर लौट आई। चित्त में समाज के विरोध में जगा हुआ क्षोभ बराबर उसे बहका रहा था। सोच रही थी, प्राणों की मैत्री के लिए समाज की आवश्यकता है, वैषम्य की सृष्टि करे-इसके

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भाग 20

5 अगस्त 2022
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कमल भीतर कपड़े बदल रही थी, बाहर कुमार प्रतीक्षा करता हुआ। नए-नए संबंध की घनिष्ठता की डोर कमल के स्नेह-कर में जो थी, कुमार उससे बँधता जा रहा था-उसने बुलाया था, वह गया हुआ है। यद्यपि कुमार पहले से प्रकृ

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भाग 21

5 अगस्त 2022
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"नीली!" उधर से जाती हुई नीली को योगेश बाबू ने बुलाया। मार्ग में बाधा पाकर पिता को देखकर नीली टेढ़ी होकर आँखों से स्नेह बरसाने लगी। "सुन।" भाव भरे गुप्त मंत्रणा के स्वर से पिता ने बुलाया। नीली गई। य

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भाग 22

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दिन का तीसरा पहर है। रामचंद्र बाहर खेलने गया है। मलिकवा की माँ दुपहर के बरतन मल रही है। उसने अपने कर्तव्य का स्वयं निश्चय कर लिया है। देहात में  अपनी जाति की. रीति के अनुसार वह किसी के यहाँ का चौका-टह

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भाग 23

5 अगस्त 2022
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कमल ढलते दिन के कमल की तरह उदास बैठी है। हाथ में एक पत्र है, जिसे बार-बार देखती है। रह-रहकर बँगले के सामने सड़क की ओर एक ज्ञात आकर्षण से जैसे निगाह फेर लेती है। अभी दिन काफी है, पर प्रतीक्षा करते उसे

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भाग 24

5 अगस्त 2022
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नीली प्रतीक्षा में थी। मोटर के आने की आहट मिली। नीली ने ऊपर से झाँककर देखा, यामिनी बाबू के साथ दीदी को देखकर जल गई। निरू उतरकर यामिनी बाबू से स्नेह-संभाषण कुछ किए बगैर जीने पर चढ़ने लगी। कुछ द्रुत-पद

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भाग 25

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 यामिनी बाबू दूसरे दिन चलते समय निरू से विदा होने गए, तो निरू ने कहा, "मेरी इच्छा है कि मेरा विवाह मामा के घर से नहीं, मेरे घर से हो। इस समय सेन रोडवाला मेरा बँगला खाली है। बारात वहीं आए। आप मामा से क

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