शाम चार बजे से निरू को देखने के लिए गाँव की स्त्रियों का आना शुरू हुआ। एक बड़े कमरे में दरी और चादर बिछा दी गई थी, स्त्रियाँ आ-आकर बैठने लगीं। सब सिर से पैरों तक भारी भूषणों से लदी, जैसे सांस्कृतिक स्वच्छता ने हलकेपन कीजगह-जिससे हाथ-पैर जल्द उठते हैं, हृदय में स्फूर्ति आती है, मन प्रसन्न रहता है-दैन्य के चिह्नस्वरूप भूषणों का भार चढ़ रहा हो और यह भार का आधिक्य ही प्रसन्नता का कारण बन रहा हो। उचित आसन पर नीली को लिए हए निरू बैठी थी। समागत देवियों को सम्मान के साथ दासी बैठा रही थी। निरू शांत भाव से बैठी हुई बैठनेके लिए इंगित कर देती थी। घंटे-भर में जगह भर गई। पान-इलायची आदि सम्मान के विधि-विधान चलते रहे।
उनमें से पुरानी अधिकांश देवियाँ निरू को देख चुकी थीं, पहचानती थीं। निरू भी यह पहचानती थी, पर कुछ के मुख याद आए, कुछेक भूल गए थे। वे अपने बड़े नथ का छोटा लटकन घुमाकर, मुस्कुराकर कहती हुई निरू के संबंध की विशेष बात याद दिला देती थीं, याद आने पर निरू परिचय की प्रसन्नता से स्फीत हो उठती थी, न आने पर सहज कंठ से कह देती थी-मैं भूल गई। उसके समय की लड़कियों में कोई न थी, सब अपनी-अपनी ससुराल में थीं, जिन्हें निरू कुछ अच्छी तरह पहचानती थी, सिर्फ रामरानी थी, वह सबसे पहले आई हुई थी और निरू ने बिलकुल पास बैठाला था; रह-रहकर उसके लड़के का गाल खोद देती थी स्नेह की दृष्टि से देखती हुईं। उसी से उसने पहचान की लड़कियों के समाचार मालूम किए। सबकी विशेषता उनके लड़कों से सूचित हुई। भागभरी सबसे आगे ठहरी। उसके तीन लड़के हैं और सब राम की इच्छा से जीते हुए।
जिस तरह यह प्रसंग निरू के लिए मनोरंजक था, उसी तरह निरू के उतनी बड़ी स्त्री रूप में बदल जाने पर भी विवाह न होना स्त्रियों के लिए। निरू उनके चाँदी के गहने देख-देखकर मन-ही-मन हँस रही थी, वे निरू का को ब्याह करने की क्या
आवश्यकता हो सकती है। मन-ही-मन उसकी उम्र का हिसाब भी तरह-तरह का लगा, स्त्रियों को यह महीनों तक के निर्णय करने का विषय मिल गया। साथ-साथ बातचीत भी चल रही थी। पहले निरू के लिए करुण रस का स्रोत बहा। वह जब
गई थी, उसके माँ-बाप साथ थे। इस बार वह अकेली है। उसके भाई जमींदारी सँभाले हैं। भगवान की करनी अकथ है। बस, क्षण में चाहे जो करें। फिर गाँव की बातचीत उठी। गाँव की बातचीत का मुख्य विषय कृष्णकुमार का घर था। औरों पर चल नहीं सकती। क्योंकि प्रायः वे सब मौजूद थीं। निरू का हृदय धड़का जब रामलाल की अम्मा ने लंबी साँस छोड़ी और रामदीन की काकी ने ललाट पीटकर समझा दिया कि सब यहीं का लिखा होता है। बेनी बाजपेई की स्त्री गंभीर होकर बोली, "सपूत ने पचास रुपये का मनीऑर्डर भेजा है।" फिर दोष की भावना से भ्रू कुंजित कर रह गई। गुरुदीन की स्त्री ने कहा, "तुम्हारे बाजपेई तो कहते थे कि..."
"भाई हमारे, उनको बदनाम न करो।" बेनी की स्त्री आँखें फाड़ तरेरकर बोली, "फलाने क्यों कहते हैं, संसार कहता है।" "संसार कहता होगा, गाँव में तो उन्होंने कहा है।" गुरुदीन की स्त्री विश्वास पर प्रमाण कर जोर देकर बेनी की स्त्री की त्योरियों की परवा न करती हुई बोलीं।
"तो तुझी से कहा होगा?" स्वर चढ़ाकर भाव में बँधकर बेनी की वीणा झंकृत हुई, "मुझसे कहे, किसी की मजाल है? -मूंछे न उखाड़ ली जाएँगी?" गुरुदीन की सरस्वती ने अपने काव्य की एक पंक्ति सुनाई।
निरू घबराई। बात क्या है, अभी तक इसी का फैसला नहीं हुआ, और स्त्रियाँ समझदार की तरह बैठी रहीं। उनके लिए ये सब बातें अभी ध्यान देने योग्य थीं ही नहीं।
निरू ने विनयपूर्वक बेनी की स्त्री से पूछा, "क्या बात है?"
"कुछ नहीं, किसुनकुमार लखनऊ में जूता गाँठते हैं, खबर फैली है। यह कहती है मेरे उनके लिए, कि उनकी फैलाई बात है! जिनके यहाँ हम (क्रिया विशेष का उल्लेख कर कहा) पानी नहीं लेते..."
निरू की दृष्टि में प्रलय की संभावना खुल रही थी। घबराकर कहा, "तो इसमें क्या हुआ? यह तो सच है। जूता पालिश तो वे करते हैं। मेरे यहाँ भी आए थे।"
"अब बोल," बेनी की स्त्री ने गुरुदीन की स्त्री को ललकारा। "बोलूँगी तो रोते न बनेगा।"
"भई, ऐसी बातें न करो।" निरू क्षुब्ध हो उठी।
मातादीन की माँ उम्र में सबसे बड़ी थीं। कहा, "दोष किसी का नहीं, अब चुप हो जा। एक गाँव का रहना-आज बैर, कल मेल! जो कुआँ फाँदेगा, वह आप गिरेगा।" "उनकी बात ही अब क्या है, गाँव से जब जाएँ। वे कहते हैं, नीघस हैं, नहीं तो आज
निकल जाते।" ललई की पत्नी बोलीं। "पहले कलकत्ता रहे, फिर कानपुर । जब रुपया चुका तब गाँव आए। अभी डेढ़ बरस भी तो नहीं हुआ।" हजारी की अम्मा बोलीं।।
"गाँव में किसी से पहले भी मेल न रखती थी।" मन्नी की स्त्री ने कहा। "परदेस की ठसक थी," सीतल की श्रीमती बोलीं।
"अब सब धो गई। कानपुर के घर, कहते हैं कि बिक गए, उन्हीं के रुपये से रहती थी किराए के मकान में," गुरुदीन की स्त्री ने धार्मिक स्वर में कहा। "अब यह घर भी बेचें।" बेनी की स्त्री ने सहयोग किया।
"घर घर है! घर में तो पशु भी नहीं रह सकता।" मातादीन की माँ ने नीति कही।
"रामचंद्र कहीं कहते थे कि गाँव छोड़ देंगे।" मन्नी की स्त्री ने कहा। निरू सुनती रही। इन्हें प्रशमित करना और इनकी जान लेना एक ही मानी रखते हैं, उसने निश्चय किया। चुपचाप बैठी रही। उसके आने के समय रामचंद्र की माँ न थी, वह
समझी। सुरेश ने यद्यपि जाने के लिए कहला भेजा था, फिर भी अब मिलने के लिए जाना उसे आत्म-सम्मान के खिलाफ मालूम देने लगा। बैठी हुई निश्चय करने लगी, क्या करे। नीली ने लौटकर भाई से हुई सब बातें बता दी थीं। निरू भी समझ चुकी थी। बड़ी लाज लगने लगी। रामचंद्र की माँ स्वयं मिलने न आएँगी, उसने सोचा कि अगर आना होता तो उसे न बुला भेजतीं, और वह न जाएगी तो कितना बुरा होगा! स्त्रियों के चलने का समय हुआ। शाम हो गई। प्रसन्न मुख निरू उठकर द्वार के पासखड़ी हुई और चलती हुई देवियों को पान देकर नमस्कार करके विदा किया।