दूध उतारने के बहाने युवती घर गई। पति वहीं घर ताक रहे थे। युवती के मन में सुरासुर-करों की कर्षित रज्जु से जो समुद्र-मंथन हो रहा था, उसका निकला हुआ गरल पति को एकांत में बुलाकर, महादेव की तरह का समर्थ समझ, अपने देवता-समाज की रक्षा के लिए सावधानी से पिला दिया। बिटिया रानी की जिनसे सगाई हो रही है, वे विलायत से लौटे हुए हैं, सुरेश बाबू के साथ बैठकर जेंये हुए, इस तरह अपने साथ इन्हें भी बहा ले गए हैं। युवती ने बड़े ढंग से बिटिया रानी से बातें करते हुए यह मतलब की बात निकाल ली। इनके साथ पान-पानीवाला संबंध रखना ठीक न होगा। ये इस तरह गाँव को भ्रष्ट कर देंगे, सबके साथ बिटिया भी बैठी हैं। गीले आटे का छुआव है। ऐसा जान-बूझकर धर्म लेने के लिए किया गया है कि फिर आगे कहने का मुँह न रहे। बिटिया सिर्फ देखने को उतनी बड़ी हो गई हैं, शऊर बिलकुल नहीं है। युवती दिल्लगी के पद से दिल्लगी करने लगी तो वे अपने ही मुँह ब्याह की बात कह चलीं। भगवान की इच्छा थी, नहीं तो कल किसी का धर्म न रह जाता।
पति से एकांत सामीप्य प्राप्त कर फिसफिसाते मधुर विश्वस्त स्वर से युवती ने कहा। महावीर सुनकर भौंहें कुटिल कर पदक्षेप से कोने में खड़ी की तेलवाई लाठी लेकर बाहर निकला। युवती ने मुड़कर देखकर कहा, "किसी से लड़ाई न करना, अभी से
कहे देती हूँ।"
"बैठ चुपचाप," गंभीर स्वर से कहकर धर्म-रक्षा के लिए संदेशवाहक अग्रदूत की तरह महावीर बाहर निकला, और गाँव के मुखिया के द्वार पर पहुँचकर जोर से लाठी का गूला दे मारा और 'मुखिया हो' कहकर ऊँची आवाज लगाई।
मुखिया थे। बाहर निकले। अँधेरे में मुस्कुराकर महावीर से पूछा, "क्या है, इतनी रात कैसे आए?"
महावीर ने संक्षेप में हाल कहा। मुखिया महावीर न थे। पुलिस, महाजन और जमींदार के प्रति उनकी समदृष्टि थी। मन में अपना मतलब गाँठकर महावीर को बढ़ावा देकर गाँव के चार भलेमानसों को बुला लेने के लिए कहा। साथ-साथ इस धर्म की रक्षा के उद्देश्य से आए महावीर को धन्यवाद देना भी न भूले।
जो लोग कड़ाही में थे, उन्हें महावीर जानता था; इसलिए न्यौतेवाले दूसरे लोगों को बुलाने चला, जिनकी दूसरों पर धाक थी। अत्यंत आवश्यक समस्या है, कहकर चार-पाँच अच्छे किसान ब्राह्मण एकत्र कर लिए और मुखिया के यहाँ लिवा लाया।
मुखिया बैठे हुए तम्बाकू थूक रहे थे। द्वार पर दीया भी मँगवा लिया था। अपने विचार के निष्कर्ष पर भी पहुँच चुके थे और भविष्य में प्राप्त उसके फल की कल्पना कर रहे थे कि महावीर आदमियों को लिवाकर पहुँचा। बार-बार कहना पड़ेगा,
इसी विचार से वहाँ विषय की चर्चा नहीं सुनाई। नमस्कार-पलागों करके समागत ब्राह्मण चारपाई पर बैठे। महावीर को मर्म तक देखते हुए जैसे, आए हुए आदमियों के सामने समाचार कहने के लिए मुखिया ने आज्ञा की। महावीर धर्म के रक्षक श्री रामचंद्रजी का स्मरण कर कह
चला और लोगों को शंकित, चकित, त्रस्त, क्षुब्ध, उद्वेलित और धर्म की रक्षा के लिए बद्धपरिकर करते हुए कथा समाप्त की।
"क्या राय है?" मुखिया ने पूछा। "जैसी पंच की राय," बलई सुकुल बोले। "हाँ, भई, पंच परमेसुर बराबर हैं," कालिका मिसिर ने कहा।
"रामअधार गाँव का साथ छोड़नेवाला नहीं," जोरदार गले से रामअधार पांडे न कहा। देवीदीन दुबे जनेऊ की कसम खाकर बोले, "सब आदमी सलाह कर लेव, फिर देख लेव, देवीदीन आगे ही हैं, नहीं तो यह छानबे नहीं, ताँत ।"
महावीर से न रहा गया। किसी को असलियत पर न आते हुए देखकर गर्म पड़कर बोला, "भाई, सुनो, धर्म पहले है। भगवान धर्म के लिए वनवास को गए और रावण को मारा। हमारे सामने तो बस पूरी ही कचौड़ी है।"
"अरे तो कौन पहुँचा पेले देता है?" बलई बोले। "यह सिड़ी है।" कालिका मिसिर ने कहा, "जैसे यही भगवान को जानता है। हम स्नान कर रामायण पढ़े बिना पानी नहीं पीते। सलाह कर लेव, जैसी ताल पड़े, वैसा किया
जाए-क्यों मुखिया?" "हाँ, भाई," ढीले स्वर मुखिया बोले, "अब हमारा तो समझा-बूझा नहीं कि कहाँ विवाह हो रहा है। हम तो जानते हैं कि मालिक हैं, बुलाया है, अपनी कड़ाही है,
कुछ दोख नहीं!" रामअधार जीभ से होंठ चाटकर बोले, "मुखिया, समझदारी की बात तो यही है,
फड़फड़ाना ठीक नहीं। सब काम सलाह से होना चाहिए।"
"तेरे तो लार टपकती है पूरी देखकर।" महावीर से न रहा गया।
देवीदीन ने कहा, "सब खाएँगे तो तू उपास न करेगा। पाव-भर औरों से ज्यादा खाएगा।
बहुत बलक मत। पंचों की राय से काम होगा। मुखिया पुराने हैं, इनको आगे-आगे चलने दे।" "भाई, सुनो," मुखिया बोले, "आँख और कान से चार अंगुल का फरक है। बस, समझ लेव।"
समझ में किसी के नहीं आया, पर सब समझदार की तरह सिर हिलाने लगे। "तो क्या कहते हो मुखिया?" बलई ने पूछा।
"भाई, सुनो," मुखिया सिर झुकाए और आँखें उठाए हुए बोले, "हम तो कह चुके! पाप देखे का है, सुने का नहीं।"
सहमत और असहमत दोनों भाववाले एकाग्र होकर सुनने लगे। कुछ देर तक जवाब न मिलने पर मुखिया ने फिर कहा, "जगन्नाथजी में सातों जात के लोग एक साथ खाते हैं। घर लौटकर अपना-अपना धर्म-कर्म करते हैं।"
अभी लोगों की समझ में विशेष बात नहीं आई। सिर्फ रामअधार को कुछ आशा बँधी और महावीर जगा।
फिर भी किसी को कुछ कहते न देखकर मुखिया बोले, "जब कहो कि रेल में मुसलमान, किरस्तान सब रहते हैं, पानी न पिएँगे; धर्म चला जाएगा, तो इस तरह धर्म नहीं जाता। कहा है, 'आपातकाले मर्जादा नास्ति' । हमारे गाँव के मालिक हैं। कहा है- 'राजा जोगी अगिन जल इनकी उलटी रीति।' न जाने कब क्या कर बैठें। इनसे विग्रह ठीक नहीं! फिर हमारे अपने नहीं। और हमारा सरबस इनके हाथ में है। काछी, कुर्मी, तमोली, तेली, बरमभोज करते हैं, सब लोग जाते हो। खाते हो और दच्छिना ले आते हो। तब धर्म कहाँ बह जाता है? हमारा-इनका जितना व्यवहार है, उतना न तोड़ना चाहिए,
क्योंकि हमारा-इनका सदा संबंध-व्यवहार रहेगा। ये जमींदार हैं, हम रियाया। फिर जब कड़ाही हमारी है तब क्या बात है, चाहे जिनके घर ब्याह करते हों ये।" "ब्याह हो जाएगा तो भी खावेंगे सब लोग?" अकेले विरोध की पूरी शक्ति रखने की
दुर्बलता को अस्वीकृत करते हुए महावीर ने पूछा। "यह तो मूसर है पक्का, न आज समझे, न कल।" सब लोग उठकर मुखिया से पालगी करके अपने-अपने घर चले। महावीर परास्त होने पर भी मन से पराजय स्वीकार न करता हुआ कंधे पर लट्ठ रखे सोचता हुआ चला।
सबके चले जाने पर मुखिया उठकर डेरे चले-सुरेश बाबू से मिलने, यह सोचकर कि आज रात-भर जगमग रहेगी।
महावीर घर आकर पत्नी से बोला, "सब-के-सब चमार हैं री, जाएँगे। धरम-धरम करते ही हैं, जी से डरते हैं कि खेत छूट जाएँगे।"