कुमार कमरे में अन्यमनस्क भाव से एक कुर्सी पर बैठ गया। चिंताराशि, फल के छिलके पर खुले रंग जैसे, मुख पर रंगीन हो आई। स्वच्छ हृदय के शीशे पर अपने ही रूप का प्रतिबिंब पड़ा। इसे ही वह प्यार करता था। अन्यत्र भी यही प्रतिफलित
होता था, जहाँ उसकी ज्ञानेंद्रियों को आनंद मिलता था। इस तरह प्यार आप अपना आकर्षण पैदा करता था। मनुष्य होकर, पश्चात विद्वान बनकर, इसी की रक्षा के लिए वह तत्पर रहा था। हृदय का निष्कलुष तत्त्व जीवन के पथ पर पथिक-जीव के
विचलित-स्खलित होने पर मलिनत्व को प्राप्त होता, क्रमशः उसे पतित कर देता है, यह वह जानता था; पहले स्थूल रूप से समझा था, अब सूक्ष्म रूप से जानता है। पहले यह प्यार शक्ति के रूप में था, जब उसे मनुष्योचित शिक्षा के अर्जन की धुन थी- इसीलिए समाज और घरवालों का विरोध उसने किया था-अपनी शिक्षा के समस्त सोपान तय करने के लिए, अब वह अपनी प्रज्ञा में स्थित है, उसकी पुष्टि में लगा हुआ, इसीलिए जो ठोकरें मिल रही हैं, उन्हें दूसरों की कमजोरी समझकर वह समर्थ होकर संसार के मुकाबले के लिए तैयार हो रहा है। उस पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है; वह कुछ भी पूरा नहीं कर सका; दूसरे अपने स्वार्थ के समक्ष उसे अपरास्त भी परास्त करार देते गए हैं। वह पनः-पुनः सँभलता, पैर उठाता बढ़ता जा रहा है-यही उसके चेहरे पर खिली रंगीनी है और भविष्य के कार्यक्रम पर विचार उसकी चिंता।
घड़ी में टन-टन कुछ बजा-आठ है, नौ या दस, उसे पता नहीं, गिना भी नहीं । एकाएक सामने टेबल पर नजर गई, देखा, चाय रखी हुई है-ऊपर से धुआँ नहीं उठ रहा; प्याले में हाथ लगाकर देखा, अभी पीने लायक है। उठाकर पीने लगा।
नौकर फिर आया, "बाबू, कल शाम को यह चिट्ठी आई, मैनेजर साहब देर से आए; इसलिए कल नहीं भेजी जा सकी।" सामने चिट्ठी रखकर चला गया था। चाय पीकर कुमार ने चिट्ठी खोली। उसके छोटे भाई की लिखी है। पढ़ने लगा। लिखा है-'खर्च नहीं चलता, माँ के पास भी खर्च नहीं, गाँववालों को कुछ भी सहानुभूति नहीं, न्योते नहीं आते,' ऐसी और कुछ बातें।
कुमार ने सड़क की ओर चिंता की दृष्टि से देखा, एक बुढ़िया पैक करनेवाले बॉक्स की चार पहिएवाली गाड़ी पर एक बुड्ढे को खींचती लिए जा रही थी। आँखें छलछला आईं। धीरे-धीरे आकृति गंभीर हो गई। एक निश्चय साथ-साथ आया। टाई, मोजा, पतलून, कोट, जूता, जल्द-जल्द पहनकर, जेब देखकर, कैप लेकर बाहर निकला।