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भाग 11

5 अगस्त 2022

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जूते पहनकर नीली को लेकर निरुपमा चली। बाहर निकलकर गली के घरों को पार करने लगी तो काम करती हुई किसानों की स्त्रियाँ आकर जमा हो गईं और चारों ओर से घेर लिया। स्नेह से उच्छ्वसित होकर उन्हीं में से एक वृद्धा ने कहा, "हमारी तो भाग फूट गई, बिटिया रानी; मालिक हमें छोड़कर चले गए। किसानों को लड़के से बढ़कर मानते थे, कभी नजर नहीं ली, लगान नहीं बन पड़ा-खेत में नहीं पैदा हुआ तो घर से दिया है, किसी पर दूब की छड़ी नहीं उठाई, कभी डाँड़ नहीं लिया।"

"चल, हट, राह छोड़," सिपाही ने आगे बढ़कर डाँटा।  "रहने दो," शांत खड़ी हुई निरुपमा बोली।

"रत्ती-रत्ती जिउ देने से एक साथ मर जाना अच्छा," बुढ़िया ने आवेश में आकर कहा। हटाई हुई काई की तरह स्त्रियाँ फिर सिमट आईं। "यह देखो, यह देखो,' बुढ़िया एक-एक स्त्री की कोंछी की धोती फैलाकर दिखाती हुई, "किसी तरह लाज बचाए

है, आसाढ़ का महीना है, अनाज नहीं रहा; छः-छः रुपयेवाले खेत के तीन साल में अठारह-अठारह रुपये पड़ने लगे। डेढ़ी का अनाज तुम ही से लें, नजर नियाद ऊपर से।

कहाँ तक दें? खेत न जोतें तो नहीं बनता, पापी पेट!" कहनेवाली वृद्धा रोने लगी; और-और युवती-प्रौढ़ा किसान नारियाँ भी नीरव अश्रुपात करने लगीं। निरू की भी आँखें छलछला आईं। नीली हैरान होकर दोनों ओर देख रही थी। तब तक उन्हीं में से सँभली हुई एक ने कहा, "देखो, रो रही हैं, अभी ये यह सब क्या जानें!" रोती हुई बुढ़िया बोली, "तुम्हारा गुलाम मलिकवा नहीं रहा!" "चुप रह बुढ़िया, बहुत न बढ़।" सिपाही ने डाँटा।

"क्यों, क्या हुआ?' सिपाही की तरफ कुटिल भ्रूक्षेप कर रुँघते गले को सँभालकर निरू ने पूछा।

अभय पाते ही उच्छ्वसित होकर रोती हुई आवेग से रुकते कंठ की बाधा न मानकर बुढ़िया कहने लगी, "किसुनकुमार के खेत मलिकवा बँटाई जोते था। तब खेत बेदखल न हुए थे। गाँववाले किसुन से नाराज थे-किसुन बिलायत गए थे पढ़ने। मलिकवा से

बोले-किसुन के खेत छोड़ दे; मलिकवा इनकार कर गया। फिर गाँववाले मालिक से मिले । एक दिन डेरे में मालिक बुलाकर छोड़ने को कहते रहे कि गाँववालों का साथ दे।

मलिकवा कुछ न बोला। फिर अँधेरे में कुछ जन खेत में पकड़कर अकेला जानकर..." बुढ़िया वहीं पछाड़ खाकर गिर पड़ी।

निरू सन्न हो गई। सिपाही से पूछा, "फिर क्या हुआ उसका?" मुस्कुराकर सिपाही बोला, "यह पक्की बदमाश है। मलिकवा को मिरगी आती थी। रात को गड़ही में डूब गया था, सुबह को उसकी लाश मिली, थानेदार आए, उन्होंने भी यही माना; पर यह शैतान की खाला वहाँ भी आँय-बाँय बकती रही; रात को छाँह देखकर-"आ गए' कहकर चिल्लाती है!" 

कृषक नारियों ने क्रूर दृष्टि से सिपाही को देखा और बुढ़िया को आँचल से हवा करने लगीं, एक पानी लेने गई। निरू इस आशा से खड़ी रही कि वे बुढ़िया के इस प्रसंग पर कुछ कहें, पर वे न बोलीं; केवल कटाक्ष पढ़कर निरू खड़ी रही। सिपाही

ने चलने को कहते हुए कहा कि देहात के ऐसे मामले हैं, आगे मालिक से इसका ठीक-ठीक पता चलेगा। बुढ़िया होश में आ रही थी। 

निरू धीरे-धीरे खेत की ओर चली। सिपाही से पूछा, "मलिकवा बुढ़िया का लड़का था?"

"जी हाँ।" जैसे कुछ लाना भूल गया, सोचकर सिपाही लौटा, "वे बाबू खड़े हैं।

मेड़-मेड़ जाइए!'

द्वार पर द्वारिका नाई बैठा था। बुलाकर सिपाही ने कुर्सी ले चलने के लिए कहा।

द्वारिका मुँह बिगाड़कर उठे और पीछे-पीछे कुर्सी लेकर चले।

कुमार के बेदखल किए बाग के एक आम के नीचे सुरेश कुर्सी पर बैठे थे। निरू धीरे-धीरे मेड़ों के ऊपर से चलती हुई गई। आगे-आगे नीली। तब तक सिपाही भी आ गया। खेतों में द्वारिका कुर्सी लेकर दौड़े। बाग की खाई पार करते हुए पैर फिसल

जाने पर, गिर पड़े। नीली खिलखिलाकर हँसने लगी। कुर्सी का एक पाया टूट गया।

सिपाही मारने दौड़ा, निरू ने रोक दिया। सिपाही सुरेश की ओर देखकर रह गया।

सुरेश द्वारिका को घूरते रहे। फिर सिपाही से कहा, "इसे रखवाकर दूसरी कुर्सी ले आओ।" ।

द्वारिका को लेकर सिपाही फिर लौटा।

गुरुदीन तिवारी, सीतल पाठक, मन्नी सुकुल, ललई मिसिर, कामता दुबे आदि मुख्य सब-के-सब जन जोत रहे थे। सुरेश के गाँव आने पर शिष्टाचार करने गए थे, हली के लिए पकड़ लिए गए। कुछ और भी किसान थे। जमींदार के खेत पहले बोए जाते हैं, कायदा है; बुलाने पर लोग चले गए थे।

कुर्सी आ गई। निरू खड़ी हुई कभी जनेऊ देखती थी, कभी जनेऊवालों की हल चलाने की निपुणता। हँस नहीं रही थी; पर हँसी की हलकी रेखा होंठों पर खिंची थी। इसी समय खेत के उस तरफ कुएँ के पास एक स्त्री आती हुई देख पड़ी- स्वस्थ, प्रौढ़। घूँघट से केवल ललाट ढँका हुआ। नीली पहचानकर आनंद से उच्छ्वसित होकर बोली, "कुमार बाबू की माँ।"

सुरेश वहीं थे। "कुमार बाबू की...।" डाँट के स्वर से कहकर नीली को दबा दिया।

निरू ने एक दफा बगल की ओर मुँह कर भाई को देखा। इसी समय जोतते हुए हलवाह खेत के इस तरफ चले। गुरुदीन के साथ सबने बैल खड़े कर दिए और बाग की तरफ चले। और जातिवाले खाई के पास छाँह में बैठ गए। ब्रह्ममण्डली बाग के भीतर, सुरेश बाबू के पास, आई।

"मालिक, तीन बाह हो गए। जुवार के लिए अब और भी जुताइएगा?" गुरुदीन कृपाकांक्षा की दृष्टि से देखते हुए बोले।

"रहने दो; बो जाए तो एक बाह करके पाटा दे दो," सुरेश ने कहा। 

"मालिक," सीतल बोले, "गाँव में पानी नहीं भरने दिया जाता, अब कौन बेधरम हो?

यहाँ आती है।" ।

समझकर भी निरू ने जैसे न समझा हो, "क्या बात है?" सुरेश से पूछा। "कुछ नहीं, यह सब जानकर क्या होगा, जहाँ की जैसी रीति।" उसी तरह बँगला में  बोले।

निरू चुप हो गई।

"अगर यह खेत सीर बनाया जाएगा तो कुआँ सरकारी होगा। हार में लोग आते हैं, दुपहर को लोग प्यासे भी होते हैं, अगर इनका पानी भरना जारी रहा तो लोग क्या बरगद दुह-दुहकर पिएँगे? और किसी कुएँ का पानी नहीं अच्छा।" गुरुदीन ने कहा।

"न गाँववाले इनके काम के हैं, न ये गाँववालों के काम के; व्यर्थ दूसरे का सगुन बिगाड़ती हैं।' मन्नी ने कहा।

निरू के हृदय की गति तेज हो गई। नीली सूखकर जैसे गाँववालों को देखने लगी। "तुम बातचीत करो, उनका और तो कुछ यहाँ है नहीं-घर घर है, वे बेचते हों तो ले लें।" सुरेश ने तटस्थ समझदार की तरह कहा।

निरुपमा ने स्फारित आँखों से एक बार सुरेश को देखा, जैसे खासतौर से यह रूप देख

लेने, इससे परिचित हो जाने की इच्छा हुई हो। यह वह सुरेश नहीं, जिसके प्रति

उसकी श्रद्धा है।

"बाग यह बंजर था ही; सरकार में आ गया; खेत सरकारी ही थे; अब घर घर है।" सिपाही ने उद्दण्ड स्वर से उसी लकीर पर जबान फेरी और लाठी का गूला एक दफा जोर से दे मारा और सहारा लिया।

यह समस्त सम्प्रदाय निरू की दृष्टि में छाया-रूप से चक्कर काटने लगा, जैसे स्वार्थ पर चाटुकारिता उसे ग्रस्त करना चाहती है। हृदय के बल और विश्वास के साथ वह उभरी। पर फिर वहाँ की प्रकृति उसे दबाने लगी। उसी समय दृष्टि उस महिला

के मुख से जाकर लिपट गई। वे पानी भर चुकी थीं। उबहनी फँदिया रही थीं।

अपना काम कर, चलने से पहले उन्होंने फिर निरू को देखा। दूर होने पर भी दोनों की दृष्टि स्पष्ट रूप से एक-दूसरी की आँखों में चुभ गई। इधर मूर्तिमती नवीन प्रीति थी, उधर संसार की क्रूरता को सहनेवाली करुणा। महिला ने विलंब न कर कंधे

पर उबहनी डालकर दोनों घड़े एक-एक कर उठा लिए। निरू ने आँखें झुका लीं। श्रद्धा से नत हो जैसे प्रणाम किया।

इसी समय गुरुदीन बोले, "मालिक, कहो तो कह दें, सरकारी कुएँ में पानी भरने न आया करे, अब कुआँ उसके..."

"अहमक है क्या? अपना काम क्यों नहीं देखता?' सुरेश ने डाँटा। निरू प्रसन्न होकर हिली। नीली गोद के सहारे थी। खड़ी होकर गुरुदीन को देखने लगी।

गुरुदीन गऊ हो गए। बोले, "मालिक, खेत तो तैयार है, अब बोने का हुक्म हो तो काम जारी किया जाए।"

स्नेह-स्वर से सुरेश बोले, "हम जमींदार हैं तो किसी को उजाड़ने के लिए नहीं।

जो सरकार के राज्य में है, वह किसी गाँव में बसा हुआ हो, उसका पानी नहीं बंद कर सकता कोई। वह मुसलमान हो जाए तो उसी कुएँ में भर सकता है या नहीं पानी?"

"भरते ही हैं, मालिक।" मन्नी ने जोर देते हुए कहा और बाग छोड़कर खेत की तरफ चला, अपने गमछे की झोली में बीज लेकर-अरहर, ज्वार, तिल्ली मिले हुए।

यद्यपि बातचीत से सबकुछ निरुपमा की समझ में आ गया था, फिर भी अब परिस्थिति शांत हो जाने पर और अच्छी तरह समझ लेने के लिए सुरेश से पूछा, "दादा, यहाँ के खेत बाबा के समय तो सीर में न थे?"

"नहीं," सुरेश गंभीर होकर बोले, "इसका गिरिजाशंकर के नाम पट्टा था। वे दो-तीन पुश्त से इसके काश्तकार हैं। इसलिए बहुत कम लगान उन्हें पड़ता था। वे भी खुद न करते थे। कलकत्ते में रहते थे। फिर शहर में रहने के विचार से कानपुर में अड्डा जमाया था। उनके न रहने पर, उनकी स्त्री बटाई में दिया करती थी। पर बटाई के खेत की हैसियत बिगड़ जाती है। इसलिए हमें बेदखल कराना पड़ा।"

विषय को समझकर निरू ने पूछा, "यह बाग किसका है?"

"यह भी गिरिजाशंकर का है। पर उनके यहाँ न रहने से इसकी भी हैसियत बाग की नहीं रह गई। बहुत-से पेड़ सूख गए, नए लगवाए नहीं गए। अब इसकी बाग की हैसियत नहीं रही। ऐसी जगह जमींदार की होती है। हमने दावा कर इसे भी अपने कब्जे में कर लिया है," कहकर सुरेश कुर्सी से उठे और खेत की तरफ बढ़े।

इसी समय निरुपमा की दासी घर के कार्यों से निवृत्त होकर स्नान आदि के लिए उसे ले जाने आई। उठकर नीली को लेकर निरुपमा घर की ओर चली।

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रचनाएँ
निरुपमा
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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (२१ फरवरी, १८९९ - १५ अक्टूबर, १९६१) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। उनके मार्ग में बाधाएँ आती हैं, पर वे उनसे विचलित नहीं होते और संघर्ष करते हुए अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं।'' कमल और निरुपमा के माध्यम से निराना ने नारी-जाति की मुक्ति का भी पथ प्रशस्त किया है। सन् 1935 के आसपास लिखा गया निराला का यह उपन्यास हमारे लिए आज भी कितना नया और प्रासंगिक है, यह इसे पढ़ कर ही जाना जा सकता है। सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' को उनके मरणोपरांत भारत के प्रतिष्ठित सम्मान “पद्मभूषण“ से सम्मानित किया गया।
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निरुपमा भाग 1

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लखनऊ में शिद्दत की गरमी पड़ रही है। किरणों की लपलपाती दुबली-पतली असंख्यों नागिनें तरु लता-गुल्मों की पृथ्वी से लिपटी हुई कण-कण को डस रही हैं। उन्हीं के विष की तीव्र ज्वाला भाप में उड़ती हुई, हवा में ल

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भाग 2

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एक साधारण रूप से अंग्रेजी रुचि के अनुसार सजा हुआ कमरा। एक नेवाड़ का बड़ा   पलँग पड़ा हुआ। पायों से चार डंडे लगे हुए; ऊपर जाली की मसहरी बँधी हुई। पलँग पर गद्दे-चदरे आदि बिछे हुए। चारों ओर तकिए। बगलवाले

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भाग 3

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कुमार कमरे में अन्यमनस्क भाव से एक कुर्सी पर बैठ गया। चिंताराशि, फल के छिलके पर खुले रंग जैसे, मुख पर रंगीन हो आई। स्वच्छ हृदय के शीशे पर अपने ही  रूप का प्रतिबिंब पड़ा। इसे ही वह प्यार करता था। अन्यत

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भाग 4

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सुरेश ने नीली को बुलाकर यामिनी बाबू से कहा, "हम लोग जाते हैं, जल्द काम है,   तुम पैदल निरू को लेकर आओ," सुरेश मोटर ले गए।  निरुपमा समझकर एक बार लज्जित हो चंपे के झाड़ की तरफ देखने लगी-यामिनी बाबू से  

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भाग 5

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नीली मार खाकर जिस तरह निरुपमा से नाराज हुई थी; अनादृत होकर उसी तरह यामिनी  बाबू से हुई। वह शारीरिक शक्ति में दीदी या यामिनी बाबू से कम है! पर बदला चुकाने की शक्ति में नहीं। जिस समय चमार के रूप में कुम

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भाग 6

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सुरेश के पिता योगेश बाबू पचपन पार कर चुके हैं। गृहस्थी के झंझटों से फुर्सत पा घर रहकर योग-साधन किया करते हैं। ध्यान सदा सुरेश पर रहता है कि नवयुवक गृहयुद्ध के दाँव-पेंच भूलकर सहानुभूति में कहीं बहक न

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भाग 7

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कमल निरुपमा की मित्र है। फर्स्ट आर्ट तक दोनों साथ थीं, निरू ने छोड़ दिया, वह बी.ए. में है। पिता ब्राह्म हैं, उसके भी विचार वैसे ही। बहुत अच्छा गाती है। मिलने आई है। "नमस्कार।"-कमरे में बैठते ही हाथ जो

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नीम के नीचे बैठक है। गुरुदीन तीन बिस्वेवाले तिवारी हैं, सीतल पाँच बिस्वेवाले पाठक, मन्नी दो बिस्वे के, सुकुल, ललई गोद लिए हुए मिसिर - पहले पाँच बिस्वे के पाँडे, अब दो कट गए हैं, गाँववालों के हिसाब से,

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रामपुर आते-आते निरुपमा के दिल का क्या हाल था, वह काव्य का विषय है। नीली भी  नील आकाश की चिड़िया थी, चपल सुख के पंख फड़काकर उड़ती हुई। मुश्किल से एक रात  डेरे में रही। सुबह होते ही गाँव घूमने निकली। नि

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भोजन के पश्चात आराम करते हुए सुरेश ने नीली को बुलाया। गाँव की हवा में नीली लहर की तरह मुक्त हो रही थी। लिखने-पढ़ने का कोई दुःख न था। भाई के सामने प्रसन्न मुख आकर खड़ी हुई। सुरेश बँगला उपन्यास की किताब

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भाग 13

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कई रोज हो गए। निरू बाहर नहीं निकली। ज्यों-ज्यों निरू अँधेरे में रहने लगी, सुरेश प्रकाश देखने लगे। अनेक प्रकार के काल्पनिक चित्र आकाश में रंगीन पंख खोलकर उड़ते हुए पक्षियों की तरह सजीव जान पड़ने लगे। स

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भाग 21

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"नीली!" उधर से जाती हुई नीली को योगेश बाबू ने बुलाया। मार्ग में बाधा पाकर पिता को देखकर नीली टेढ़ी होकर आँखों से स्नेह बरसाने लगी। "सुन।" भाव भरे गुप्त मंत्रणा के स्वर से पिता ने बुलाया। नीली गई। य

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भाग 22

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भाग 23

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कमल ढलते दिन के कमल की तरह उदास बैठी है। हाथ में एक पत्र है, जिसे बार-बार देखती है। रह-रहकर बँगले के सामने सड़क की ओर एक ज्ञात आकर्षण से जैसे निगाह फेर लेती है। अभी दिन काफी है, पर प्रतीक्षा करते उसे

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भाग 24

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नीली प्रतीक्षा में थी। मोटर के आने की आहट मिली। नीली ने ऊपर से झाँककर देखा, यामिनी बाबू के साथ दीदी को देखकर जल गई। निरू उतरकर यामिनी बाबू से स्नेह-संभाषण कुछ किए बगैर जीने पर चढ़ने लगी। कुछ द्रुत-पद

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भाग 25

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 यामिनी बाबू दूसरे दिन चलते समय निरू से विदा होने गए, तो निरू ने कहा, "मेरी इच्छा है कि मेरा विवाह मामा के घर से नहीं, मेरे घर से हो। इस समय सेन रोडवाला मेरा बँगला खाली है। बारात वहीं आए। आप मामा से क

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