एक साधारण रूप से अंग्रेजी रुचि के अनुसार सजा हुआ कमरा। एक नेवाड़ का बड़ा पलँग पड़ा हुआ। पायों से चार डंडे लगे हुए; ऊपर जाली की मसहरी बँधी हुई। पलँग पर गद्दे-चदरे आदि बिछे हुए। चारों ओर तकिए। बगलवाले दो लंबे गोल, सिरहाने और पाँयते के कुछ चपटे, कोनों के दो सिरहाने सूचित करते हुए। दो बड़े शीशे आमने-सामने लगे। दीवार पर चुनी हुई तस्वीरें- परमहंस रामकृष्णदेव, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, श्री रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, पं. मदनमोहन मालवीय, बाबू चितरंजन दास और पं. मोतीलाल नेहरू आदि की बड़े आकारवाली। इनके नीचे एक-एक बगल, मासिक-पत्रों में निकली हुई, आशा, भावना, कविता, शरत, वासंती, वर्षा आदि की काल्पनिक तस्वीरें। फिर भी तस्वीरों की अधिकता न मालूम देती हुई।
लोहे की छड़ों के बाहर से पूरे दरवाजे के आकार की खिड़कियों का आधा ऊपरवाला हिस्सा खुला हुआ, आधा नीचे वाला बंद। पूरबवाली खिड़कियों से प्रभात की हलकी धूप आती हुई। एक ओर एक मेज, जिसके दो ओर दो कुर्सियाँ। एक पर वही बालिका बैठी पढ़ रही है। इसी समय उसकी दीदी कमरे में आई और दूसरी कुर्सी पर बैठ गई। सामने बालिका के रोज के
पढ़ने की तालिका रखी थी, उठाकर देखने लगी। मन का दृष्टि के साथ सहयोग न था, इसलिए देखकर भी कुछ न समझ सकी। केवल लिखावट पर निगाह दौड़ाकर रह गई। मस्तिष्क तक विषय का निश्चय न पहुँचा। तालिका रखकर युवती बहन को हँसती आँखों देखने लगी। फिर पूछा, "अच्छा, नीली (बालिका का नाम नीलिमा है), हमारे सामनेवाले बैडमिंटन ग्राउंड की घास दो घोड़े दो दिन में चरें तो एक घोड़ा कितने दिन में चरेगा?" उच्छ्वास से उमड़ती हुई, उसकी ओर मुँह बढ़ाकर, उसी वक्त बालिका ने उत्तर दिया, "एक दिन में।"
'चट्ट' से एक चपत पड़ी। बालिका गाल सहलाती हुई, सजल आँखों से एकटक बहन की चढ़ी त्योरियाँ देखने लगी। इसी समय एक दासी ने आकर कहा, "दादा बुलाते हैं। यामिनी बाबू मोटर लेकर आए हैं, हवाखोरी को जा रहे हैं।" युवती दासी की बातें सुन रही थी कि एक ओर से बालिका निकल गई। सीधे यामिनी बाबू के पास पहुँची। यामिनी बाबू उसका आदर करते हैं। उस समय उसका दादा सुरेश वहाँ न था। कपड़े बदलने के लिए निरुपमा को बुलाकर अपने कमरे में गया हुआ था। बालिका अच्छी तरह जानती है कि यामिनी बाबू उसकी दीदी को प्यार करते हैं, और उसके घरवालों की इच्छा है कि उसकी दीदी का यामिनी बाबू से विवाह हो। फिर मन-ही-मन दीदी के प्रति रुष्ट होकर बोली, "वह जो बड़े-बड़े बालवाला हिंदुस्तानी है न-उस होटल में! - आज सुबह गाड़ीवाले बरामदे पर खड़ी दीदी उसे देख रही थी, वह भी दीदी को देख रहा था।" बालिका की बात का असर साँप के जहर से भी यामिनी बाबू पर ज्यादा हुआ।
प्रेम और संसार की नश्वरता का सच्चा दृश्य उन्हें देख पड़ने लगा। 'यां चिंतसयामि सततम्' आदि अनेक पुण्य-श्लोक याद आने लगे। इसी समय बालिका ने कहा, "अभी मुझे पढ़ा रही थीं, पूछा, उस बेडमिंटन ग्राउंड की घास दो घोड़े दो दिन में चरें तो एक कितने दिन में चरेगा? कितना सीधा सवाल है? हमारे स्कूल में जबानी पूछा जाता है। मैंने ठीक जवाब दिया, पर दीदी ने मुझे मार दिया।" बालिका जीने की तरफ देखकर सभय चुप हो गई। दासी के साथ निरुपमा धीरे-धीरे उतर रही थी; अचपल-दृष्टि, गौरव की प्रतिमा बालिका व्याकुल हो गई कि पीछेवाली बात इसने सुन न ली हो। निरुपमा नीचे के बरामदे में पहुँचकर धीरे-धीरे नीली के पास गई और उसका हाथ पकड़कर बगीचे की ओर देखने लगी। नीली को विश्वास हो चला कि नहीं सुना। फिर भी धड़कन थी, इसलिए इस प्रकार स्नेह का दान पाने पर भी खुलकर कुछ बोल न सकी-छड़ी की तरह चुपचाप सीधी खड़ी रही। यामिनी बाबू के वैराग्य-शतक की शक्ति निरुपमा के आने के बाद से क्षीण हो चली।
रूप के साथ आँखों का इतना घनिष्ठ संबंध है। पतंग एक दूसरे पतंग को जलकर भस्म होते देखता है, पर रह नहीं सकता। इतना बड़ा प्रत्यक्ष ज्ञान भी रूप के मोह से उसे बचा नहीं सकता-वह दीपक को सर्वस्व दे देता है। दीपक अपने ही स्थान पर जलता रहता है।
निरुपमा की दृष्टि में चाह नहीं, ऐसा कौन कहेगा? उसकी दृष्टि से उसकी बातें सुनकर सभी उसे प्यार करने लगते हैं, जो जिस तरह के प्यार का हृदय में अधिकार रखता है। और वह, वह शमा है जो बाहर की भस्म को ही भस्म करती है। इसलिए वैराग्य-शतक का कृत्रिम भस्म उसके एक ही दृष्टिपात से अपनी स्वर्गीय सत्ता में मिलित हो गया। यामिनी बाबू उमड़कर कुछ क्षण के लिए पहले से हो गए। तबीयत अच्छी न रहने के कारण निरुपमा की इच्छा दासी को लौटाल देने की थी, पर भाई के बुलावे का खयाल कर चली गई। उसके आने के कुछ ही देर में सुरेश बाबू भी कपड़े बदलकर आ गए। मोटर रास्ते के किनारे लगी हुई है। यामिनी बाबू के साथ सुरेश बाबू बहन को बुलाकर आगे-आगे चले। नीली को साथ लेकर पीछे-पीछे निरुपमा चली। नीली के जाने की कोई बात न थी। इधर जब से यामिनी की सुरेश बाबू से घनिष्ठता हुई, भाई के कहने से केवल निरुपमा साथ जाती थी, कभी-कभी नीली, यों प्रायः जाने के लिए खड़ी छलकती रहती थी। सुरेश बाबू डाँट देते थे। कभी-कभी पढ़ने के लिए खुलकर भी कड़ी जबान कह देते थे। वह लाज से मुरझाकर लौट जाती थी। भाई की आज्ञा पर कुछ कहने का अभ्यास निरुपमा को पहले से न था। किसी बगीचे के पास मोटर से उतरकर टहलते हुए सुरेश बाबू निरुपमा को अकेली छोड़ देते थे। यामिनी बाबू को बातचीत की सुविधा हो जाती थी। कुछ देर बाद किसी कुंजसे टहलकर सुरेश आते थे। इस प्रकार दोनों का परिचय बढ़ गया है। दोनों के हृदयनिश्चय ही बँध चुके हैं। अंग्रेजी पढ़ने पर भी, प्राचीन विचारों की महिलाओं में रहने के कारण निरुपमा हिंदू-संस्कारों में ही ढली है। भाई तथा अपर स्त्रियों का निश्चय ही उसका निश्चय है। पर यामिनी बाबू यूरोप की हवा खाकर लौटे हैं, इसलिए इस वैवाहिक प्रसंग पर कुछ अधिक स्वतंत्रता चाहते हैं। सुरेश अपने बंगाली समाज की वर्तमान खुली प्रथा के समर्थक हैं, पर एकाएक यामिनी बाबू को दी पूरी स्वतंत्रता से अभ्यास के कारण निरुपमा को संकोच पहुँच सकता है, इस विचार से धीरे-धीरे रास्ता तय कर रहे हैं।
नीलिमा का साथ रहना यामिनी बाबू को पहले से पसंद न था, पर आज सुरेश के मना करने से पहले उसे बुलाकर, ड्राइवर की सीट की बगल में, अपने पास बैठा लिया। सुरेश बाबू निरुपमा के साथ पीछेवाली सीट पर बैठ ही रहे थे कि होटल के सामने बरामदे पर कुमार खड़ा हुआ दीख पड़ा। नीली यामिनी बाबू को कोंचकर होटल की तरफ देखने लगी। यामिनी बाबू कुमार को देखकर निरुपमा को देखने लगे। निरू सिर झुकाए बैठी थी।
कुमार देखता रहा। मोटर चल दी। सीधे सिकंदर बाग गई। एक जगह सब लोग उतरकर इधर-उधर इच्छानुसार टहलने लगे। यामिनी बाबू नीली के साथ एक कुंज की तरफ गए। भ्रम था ही। सोचते हुए नीली से पूछा, "क्या पूछा था निरू ने तुमसे?" नीली मुस्कुराकर बोली, "आप भूल गए। आप याद नहीं रख सकते। अच्छा उसमें घोड़े हैं, बतलाइए?" "हाँ दो घोड़े दो दिन में, तो एक...क्या कहा तुमने?"एक दिन में," कहकर नीली समझदार की तरह हँसने लगी।"अच्छा, इसलिए मारा तुम्हें!" आवाज ऐसी थी कि नीली ने सहृदयता सूचक न समझी। एक विषय दृष्टि से यामिनी बाबू को देखने लगी।अब यामिनी बाबू को नीली की मैत्री खटकने लगी; नीली के भविष्य पर अनेक प्रकार की शंकाएँ उन्होंने की। निरू के प्रति जितने विरोधी भाव थे, एक साथ, तेज हवा में बादलों की तरह कट-छँट गए। प्रेम का आकाश पहले-सा साफ हो गया। निरुपमा की ओर अभियुक्त की तरह धीरे-धीरे बढ़ने लगे। वह एक चंपा के किनारे खड़ी फलों की शोभा देख रही थी। सोच रही थी- 'इनकी प्रकृति इनका कैसा विकास करती है! ये कितने कोमल हैं! खुली प्रकृति की संपूर्ण कठोरता, उपद्रव और अत्याचार बरदाश्त करते हैं! इनके स्वभाव से मनुष्य क्या सीखता है! केवल सौंदर्य के भोग के लिए इनके पास आता है!"