लखनऊ में शिद्दत की गरमी पड़ रही है। किरणों की लपलपाती दुबली-पतली असंख्यों नागिनें तरु लता-गुल्मों की पृथ्वी से लिपटी हुई कण-कण को डस रही हैं। उन्हीं के विष की तीव्र ज्वाला भाप में उड़ती हुई, हवा में लू होकर झुलसा रही है।
तमाम दिन बड़े-बड़े लोग खस-खस की तर टट्टियों के अंदर बंद रहकर काम और आराम करते हैं। इसी समय यूरोप की मुख्य भाषाओं का समझ-भर के लिए अध्ययन कर लंदन की डी. लिट. उपाधि लेकर लौटा हुआ कुमार, स्थान रहने पर भी योग्यता की अस्वीकृति से उदास, कलकत्ता विश्वविद्यालय से लखनऊ आया हुआ है-यहाँ कोई स्थायी-अस्थायी
काम मिल जाए, पर चूँकि किसी चांसलर, वाइस-चांसलर, प्रिंसिपल, प्रोफेसर या कलक्टर से उसकी रिश्ते की गिरह नहीं लगी, इसलिए किसी को उसकी विद्वत्ता का अस्तित्व भी नहीं मालूम दिया; जाँच करनेवाले ज्यादातर बंगाली सज्जन एक राय रहे कि एम. ए. में किसी तरह घिसट गया है-थीसिस चोरी की होगी। एक अस्थायी जगह लखनऊ विश्वविद्यालय में बाबू कामिनीचरण चटर्जी की छुट्टी से हो रही थी, वहाँ बाबू यामिनीहरण मुखर्जी आ गए। ये पी-एच. डी. ही थे, पर इनकी पूँछ में बालों का गुच्छा मोटा मिला। कुमार फिर जगह की तलाश में क्रिश्चियन-कॉ लेज गया, पर वहाँ भी वर्णाश्रम-धर्मवाला सवाल था। देखकर विद्या ने आँखें झुका लीं और हमेशा के लिए ऐसे स्थलों का परित्याग कर देने की सलाह दी।
यूरोप से लौटे हुए कुमार की दृष्टि में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' का ही महत्त्व है, इसलिए मन में हार की प्रतिक्रिया न हुई। कोहनूर होटल की नीचेवाली मंजिल में टिका हुआ है। सामने के कमरों में दो-तीन बाबू और रहते हैं। शायद अलग-अलग दफ्तरों में नौकर हैं। रात को कमरों से बाहर सड़क के किनारे चारपाइयाँ डालते हैं। ठंडी-ठंडी हवा लगती है, नींद अच्छी आती है।
सब जगह हताश होकर भी कुमार दिल से दृढ़ रहा। यूरोप जाते वक्त भी उसे समाज का सामना करना पड़ा था। लौटकर और करना पड़ेगा, यह पहले से निश्चय कर चुका था।
इसलिए, हेच जरा भी नहीं खाई; एक तरंग उठी और दिल-बहलाव की स्वाभाविक प्रेरणा से गुनगुनाने लगा। गुनगुनाते-गुनगुनाते भावना पैदा हुई, गाने लगा। रात के साढ़े नौ का समय होगा। गाना समाप्त हुआ कि सामने के सुंदर मकान से हारमोनियम का स्वर गूंजता हुआ सुन पड़ा, फिर किशोरी-कंठ का ललित संगीत। तरुणी भाव के मधुर आवेश में गा रही थी-'तोमारे करियाछि जीवनेर ध्रुवतारा।' कुमार का हौसला अभी पूरा न हुआ था, पुनः संगीत का श्रीगणेश उसी ने किया था, इसलिए वह भी गाने लगा। पर गाता क्या, भाव के आवेश में शब्दों का ध्यान ही जाता रहा। जब एक जगह रागिनी गाई जा रही हो, तब दूसरी रागिनी गाना असंभव भी है, दुःखप्रद भी। भाव के आवेश में कंठ उन्हीं-उन्हीं पदों पर फिरने लगा। एक ही पद के बाद हारमोनियम बंद हो गया। पर कुमार की गलेबाजी चलती रही। हारमोनियम क्यों बंद हो गया, इस तरफ ध्यान देने की उसे फुर्सत भी नहीं हुई। उसकी तान-मुरकी समाप्त हुई, उधर ग्रामोफोन में किसी बंगाली महिला का काफी ऊँचे स्वरों में, जहाँ उसके पुरुष-कंठ की पहुँच नहीं हो सकती, टैगोर-स्कूल का गाना होने लगा।
यह चाल और चालाकी कुमार समझ गया। साथ-साथ यह भी उसके खयाल में आया कि इस स्वर से गला मिलाकर गाने की उसे चुनौती दी गई है। उसने गला एक सप्तक घटा दिया। इससे उसे सहूलियत हुई। वह इतने ही स्वरों पर गाता था। टैगोर-स्कूल का ढंग भी उसे मालूम था। तमाम किशोरावस्था बंगाल में बीती थी। गाने लगा, बल्कि कहना चाहिए, अगर कंठ के कामिनीत्व को छोड़कर कमनीयत्व की ओर जाया जाए तो कुमार ने ही बाजी मारी।
एकाएक गाने के मध्य में रेकॉर्ड बंद हो गया। गाड़ीवाले बरामदे की छत पर एक तरुणी आकर रेलिंग पकड़कर खड़ी हो गई। होटल की ओर देखा। कई चारपाइयाँ पड़ी थीं। कुमार का गाना बंद हो चुका था। वह तकिए पर सिर रखे एक भले आदमी की तरह उसी ओर देख रहा था। तरुणी निश्चय न कर सकी कि उसे चिढ़ानेवाला किस चारपाई पर पड़ा है।एक बार देख कर 'छूँचो-गोरू-गाधा'कहकर तेजी से फिरकर चली गई। कुमार समझकर निर्विकार चित्त से करवट बदलकर- 'भजगोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढ़मते' - गाने लगा।
गाने के भीतर गाली की ध्वनि- 'छूँचो-गोरू-गाधा' बार-बार गूँजती हुई सुन पड़ने लगी। कुमार ने गाना बंद कर दिया। विचार करने लगा। सोचकर हँस पड़ा। गाली की तरफ ध्यान न गया, क्योंकि गाली के साथ-साथ उसकी वजह भी सामने आई। जहाँ गाली की कठोरता की तरह उसकी वजह मुलायम हो, वहाँ कोई मूर्ख गाली की तरफ ध्यान देगा! वह मूर्ख नहीं। कोरे 'छूँचो, गोरू, गाधा' में क्या रखा है-न इनमें से वह कुछ है।
वह उस भाव को सोच रहा है जो गाली देते वक्त जाहिर हुआ था, जिसमें गाली सुनाने की स्पर्धा को शालीनता से दबा रखने की शक्ति भी साथ-साथ प्रकट हुई थी, जहाँ भय था कि जिसे सुनाती हूँ उसके सिवा दूसरा तो न सुन लेगा, जिसमें पाप के विरोध में खड़ी होने की सरल पुण्य प्रतिभा थी, भले ही वह पाप दूसरों के विचार में पाप न हो।
युवती के मनोभावों की सुखस्पर्श उधेड़-बुन में कुमार को बड़ी देर हो गई। रात काफी बीत चुकी, पर न पी हुई उस मधु को एक बार पीकर बार-बार पीने की प्यास बढ़ती गई। आँखें न लगीं, उन विरोधी भावों में प्राणों के पास तक पहुँचने वाली
इतनी शक्ति थी कि वह स्वयं उसको धीरे-धीरे प्राणों को आवृत्त करने वाली कोमलताम से मिलता हुआ परास्त हो गया। जब आँखें लगी, तब वह जैसे उसकी पूर्ण पराजय की ही सूचना हो। तब तक रात के दो-तीन का समय हो चुका होगा। नींद जैसे युवती के पढ़े जादू का नशा हो।
कुमार की आँखें खुलीं जब सूरज निकल आया था, मुँह पर धूप पड़ रही थी। पास के और-और सोनेवाले उठकर चले गए थे। भ्रमण समाप्त कर लौट चुके थे, कुछ देर से जाने वाले लौट रहे थे। रास्ते पर काम से चले लोगों की काफी भीड़ हो रही थी।
जगने के साथ ही जिस तरफ को मुँह था, आँखें सीधे उसी तरफ आप-ही-आप गईं। जिस कल्पना को लेकर वह सोया था, जगने के साथ ही अपनी मूर्तिमत्ता में लीन न होने के लिए उसी तरफ वह चली। सामने टेलिग्राफ के पोस्ट को बाँधने वाले एक तार पर उसी मकान के भीतर से मधु-माधवी की एक लता ऊपर तक चढ़ी हुई प्रभात के वायु से हिल-हिलकर फूलों में हँस रही थी। उसी की फूली दो शाखाओं के अर्द्धवृत्त के भीतर से देखती हुई दो आँखें कुमार की आँखों से एक हो गईं-उसकी कल्पना जैसे सजीव, परिपूर्ण आकृति प्राप्त कर सामने खड़ी हो। इस खड़े होने के भाव में भरात का वही भाव स्पष्ट था। सारी देह लता की आड़ में छिपी हुई, मुख लता के दो भुजों के बीच, जैसे छिपने का पूरा ध्यान रखकर खड़ी हुई हो!
बरामदे पर सुबह-शाम रोज वह वायु-सेवन के लिए, बाहरी दृश्य देखने की इच्छा से निकलती थी, जरूरत पर यों भी आती थी। कल जिसे गाली दी, मुमकिन आज देख लेने के लिए आई हो! पहचान थी नहीं, सोते कुमार को देखा हो, आँखों को अच्छा लगा हो, इसलिए छिपकर देखने लगी हो!
कोई भी कुमार को सुंदर कहेगा। उसके सोते समय युवती किस भाव से, किस दृष्टि से देख रही थी, नहीं मालूम। पर उसके सोने पर भी उसके ललाट, चिबुक, नाक और मुँदी आयत आँखें विद्या के परिचय से प्रदीप्त रहती है। लंबे बाल कानों को ढककर कपोलों तक आ जाते हैं। गोरे चेहरे पर केवल साबुन से धुले सुनहरे बाल किसी मनुष्य को एक बार देखने के लिए खींच लेंगे, मुख और बालों की ऐसी मैत्री है।
कुमार के देखते ही युवती लजा गई। उसी की प्रकृति ने उसकी चोरी की गवाही दी। आँखें झुक गईं, होंठों पर पकड़ में आने की सलज्ज मुस्कुराहट फैल गई। सामने मधु-माधवी की लता हवा में हिलने लगी। पीछे सूर्य अपने ज्योतिमंडल में मुख को लेकर स्पष्टतर करता हुआ चमकता रहा। युवती छिपने के लिए पहले से तैयार थी, पर छिप न सकी। कुमार अपनी कल्पना को सुंदर प्रकृति के प्रकाश में घिरी, प्रत्यक्ष सजीव अपार रूप-राशि के भीतर सलज्ज सहानुभूति देती हुई देर तक देखता रहा, जैसे कल गाली देने के कारण आज वह मूर्तिमती क्षमाप्रार्थना बन रही हो! जैसे कल के
भीतरवाले भाव आज व्यक्तरूप धारण कर रहे हों! सुंदर को सभी आँखें देखती हैं। अपनी वस्तु को अपना सर्वस्व दे देती हैं। क्यों देखती हैं, क्यों दे देती हैं, इसका वही कारण है जो जलाशय की और जल के बहाव का। रूप ही दर्शन की सार्थकता है। यहाँ एक रूप ने दूसरे रूप को-आँखों ने सर्वस्व-सुंदर आँखों को चुपचाप क्या दिया, हृदय ने चुपचाप दोनों ओर से क्यासमझा-मौन के इतने बड़े महत्त्व को पुखरा भाषा कैसे व्यक्त कर सकती है! दोनों देख रहे थे, उसी समय एक बालिका आई। बहन के सामने खड़ी होकर रेलिंग पकड़े हुए पंजों के बल उठकर अजाने मनुष्य को एक बार देखा, फिर दीदी को देखकर दौड़ती हुई चली गई।
पकड़ में आकर हटते हुए युवती के पैर नहीं उठ रहे थे। वह रेलिंग पकड़े हुए मुँह फेरकर दूसरी ओर देखने लगी-होंठों में मुस्कुरा रही थी। कुमार उठकर कमरे के भीतर चला गया।