रामचंद्र के चले जाने पर निरू को एक जबरदस्त धक्का लगा। वह उस जगह जाकर अवस्थित हुई, जहाँ उसकी अक्लेद नारी-सत्ता है-समस्त विश्व की नारियों की एक ही चेतन संस्कृति, जो स्वयं रीति-नीतियों का सृजन करती है और तदनुकूल चलने की शिक्षा देती है। निरू ने सोचा, रीतियों की जो रंगीन साड़ियाँ समय-समय पर शोभा-वृद्धि के लिए वह पहनती हैं, वे आत्मिक सौंदर्य पर पर्दा डाल देती हैं, यहाँ तक कि देह का भी पूरा सौष्ठव उनके कारण स्पष्ट नहीं होता, पुनः चिक के
भीतर की महिला की तरह यह दूसरे के मुख की रूप-रेखा भी साफ नहीं देख पातीं। सोचा, जिन सामाजिक रीतियों के कारण कुमार जैसे शिक्षित मनुष्य को पीड़ा पहुँचती है, उनका समर्थन करके वस्तुतः ज्ञान की ओर बढ़ने का उसने विरोध किया है, यह रीति के अनुसार धर्म नहीं; जिसे कहीं भी सहारा नहीं मिला, वह समझदार के सहारे की आशा करता है; अगर वहाँ से भी निराश हुआ, तो चाहे जितने भी पुष्ट और अनुकूल तत्त्वों पर वह समझदार अवलंबित हो, एकाएक प्रबल भूकम्प से गिरे सुदृढ़ ऊँचे सौंधों की तरह वे तत्त्व नष्ट-भ्रष्ट हो अपनी आदिम सत्ता में पर्यवसित होते रहते हैं; वह जमींदार है, उसका पहला कर्त्तव्य पीड़ित की रक्षा करना है, फिर कुमार देश और काल के अनुसार गुण भी धारण करता है। जो देश और काल की पीड़ा के मिटानेवाले हैं, ऐसे मनुष्य ने मनुष्यता के मार्ग पर क्या सोचा होगा उसके लिए?
निरू क्षुब्ध हो उठी। कल्पना में देखने लगी, निस्सहाय एक शिक्षित की दृष्टि गाँव की दृष्टि-दृष्टि से फिर रही है, बड़े स्नेह से उनसे सहयोग चाहती है, उन्हें क्षुद्र सीमा से बँधी रहने का ज्ञान देकर वृहत्तर की तरफ ले चलने के लिए, अपने बड़प्पन को भूलकर उन्हें अपने में मिलाने के लिए, फिर भी चारों ओर से दृष्टियों द्वारा जहर उस पर क्षिप्त होता हुआ; शिक्षित चुपचाप सहन करता हुआ; मन-ही-मन उनके प्रसार की कामना करता हुआ; उन्हीं की अवज्ञा के फलस्वरूप हमेशा के लिए अपनी प्रिय पितृभूमि से नतमस्तक हो चलता हुआ। देखा, वह दृष्टि सहानुभूति की आशा से निरू पर भी स्थित हुई थी; उसे समझदार समझा था, पर वह हलकी तुष्ट करनेवाली दृष्टि उसे भी भार मालूम दी-उसने भी उसका तिरस्कार किया, वह उस
पर से भी उसी धैर्य के साथ उठ गई। देखा, उन आँखों में घृणा नहीं-केवल एक समझ है। वह दृष्टि की समझ उसके समस्त पर्दे पार कर, जहाँ वह अचल रीतियों की गोद में बैठी हुई उन्हीं की तरह दुबल हो रही है, वहाँ तक पहँचकर, उसे देख चुकी है। बड़ी ग्लानि हुई। वह इतनी दुर्बल है! इतनी सहानुभूति करते ही जैसे वही दृष्टि निरू को प्राप्त हो गई। उसी दृष्टि से उसका तादात्म्य हो गया। वह जीवन के भीतर से क्षिप्रगति से उठने लगी और क्षणमात्र में वहाँ के समस्त के जीवन के ऊपर हो गई। उसने स्पष्ट अनुभव किया, वह वहाँ के सभी लोगों से ऊपर, बहुत ऊपर है। वहाँ के समस्त मनुष्य एक अंधकार में पड़े हैं। एक बार देखकर फिर न देख सकी। वहाँ न रह सकी। उस विकृति के प्रति उसे हार्दिक घृणा हुई। धीरे-धीरे अपने कमरे की ओर चली और उसी दृष्टि को लिए हुए, उसी उच्चता के चरण-क्षेप से। वहाँ का जो कुछ भी उसे स्पर्श करने के लिए आता है; यह सब जैसे कलंकित हो, गिरा देनेवाला। वहाँ की आकृति, स्वर, सब जैसे प्रतिक्षण, प्रति इंगित से अपने पतित होने की सूचना दे रहे हों। इन्हीं से वह सहयोग किए हुए है और यह कौन-सी सत्ता, कौन-सी चीज है, जिसने स्पर्श मात्र से मानव और अमानव, स्वर्ग और पृथ्वी का बोध करा दिया?
निरू उसी तरह भावनयना अपने पलँग पर बैठ गई। एक छोटी मेज पर दीपक जल रहा है। निरू उसी ऊर्ध्व दृष्टि से देखने लगी, जो जल-सरोवर के किनारों से बँधा हुआ सरोवर का जल कहलाता है-न बहता हुआ। वह मुक्त मेघ से मुक्त होकर आया है, और तब वाष्पाकार होता हुआ सरोवर के किनारों को छोड़कर ऊपर उठता-मुक्त होता है। सोचा, उसी जल की कुछ बूंदें नदी में डाल दी जाएँ तो वे नदी के जल की व्याख्या प्राप्त करती हैं, फिर समुद्र से मिलकर समुद्र के जल की। इस तरह, जल की व्याख्या विशेष भले दी जाए, है वह जल सूक्ष्म रूप में एक ही प्रकार, स्थूल रूप में कूप, सर, नदी, समुद्र का बनता हुआ-भिन्न रूप, गुण और व्याख्या प्राप्त करनेवाला। निरू को हृदय का बल प्राप्त हुआ। वह कुमार को चाहती है, उसने दृढ़ कुमारी की तरह सोचा, कुमार ने भी उसे देखा है, वह भी प्यार करता है या नहीं, वह नहीं जानती, पर दृष्टि से पहले ही दर्शन में जो कुछ कुमार से उसे मिला है, उसके अतिरिक्त प्यार की दूसरी व्याख्या वह मानने के लिए तैयार नहीं। अगर होगी भी तो भी वह उस पहली अनुभूति की तरफ होगी-उसी को पाने की इच्छा रखेगी। संसार में भी वह वस्तु, हृदय में वैसी मधुरता भर देनेवाली, उसे नहीं मिली। यामिनी उस तत्त्व के मुकाबले एक जड़ विशेष है। वही विद्वान उसके मकान में जूता पालिश करने के लिए गया था। यह कितना बड़ा आदर्श है! ब्राह्मणत्व का कहीं नाममात्र के लिए अहंकार नहीं। यूरोप की शिक्षा का ज्वलंत उदाहरण। कहाँ विश्वविद्यालय के सामान्य पद की प्रतियोगिता, कहाँ सामान्य जूता पालिश करना!-एक ही व्यक्ति इन दोनों कार्यों की समता रखता हुआ। कहाँ यह और कहाँ यामिनी, आत्मसम्मानलोलुप-मनुष्य का रूपमात्र रखनेवाला। 'कुमार अविवाहित है, मैं कुमार को चाहती हूँ; भले वह बंगाली नहीं; पर मनुष्य है; कुछ हो या न हो, मैं चाहती हूँ, पहली बात यह है।' सोचती हुई निरू कुछ तनकर बैठी, 'मेरे हैं कौन! मैं लज्जा करूँ भी क्यों? विवाह मन का है, मेरा मन जिसे नहीं चाहता, मैं क्यों उससे विवाह करूँ?'
साथ ही निरू को गाली देनेवाली बात याद आई; सोचा, 'वह गाकर चिढ़ानेवाला कुमार ही होगा!' 'कुमार' शब्द के अस्फुट उच्चारण में वह आत्म-संप्रदान कर रही थी, 'कितना चालाक है! मैं जब गई तब मौन। माँ की जब ऐसी बँगला है, तब उसकी क्यों न वैसी होगी! मैं अगर मिलूँ भी तो क्या बुरा है? वे मुझे लड़की समझती हैं, इसीलिए बुलाया भी। मैं नहीं जा सकती थी। कमजोरी यह। ठीक नहीं। लज्जा अनुचित थी। पहले तो पति को बुलाते भी किसी को लज्जा नहीं लगी-न रुक्मिणी को लगी, न संयोगिता को। वह मेरी कमजोरी थी। दादा दादा हैं, बस। मैं उनका अहित तो चाहती नहीं, फिर उनके सामने मेरी आँखें क्यों झुकें? अपने लिए मैं जैसा उचित समझती हूँ, क्यों नहीं कर सकती? मुझे उनसे मिलना चाहिए। अभी वे गई न होंगी। अगर मैं बुलाऊँ तो ठीक नहीं, क्योंकि पहले वे बुला चुकी हैं; जमींदारी का अभिमान सूचित होगा, फिर हम लोग गुनहगार हैं, अत्याचार इधर से हुआ है, उन्होंने सहन किया है।
निरू ने दासी को बुलाया। आने पर नीली को बुला लाने के लिए कहा। निरू की इच्छा चलते-चलते रामचंद्र की माँ से मिलने की हुई। रामचंद के आने के बाद, यह मालूम कर कि कुमार बाबू आए हुए हैं, नीली रामचंद्र के जाने से पहले उसके घर पहुँची और अब तक वहाँ पुरानी पड़ गई। जितनी बातें पेट में थीं और कहने लायक उसने समझीं, सब कह दी, और जानने लायक जो उसे मालूम दीं, सब पूछ लीं। कुमार से नीली का ऐसा अकृत्रिम व्यवहार देखकर सावित्री देवी को दुःख के समय भी हँसी आ गई। पुत्र के कार्य-वैचित्र्य से उन्हें प्रसन्नता हुई।
नीली से उन्होंने भी बहुत-सी बातें कीं और भोजन कराया। सावित्री देवी ने नीली से कहा, "तुम्हारी दीदी हमें गरीब जानकर हमारे यहाँ नहीं आई-क्यों?"
नीली मुस्कुराकर रह गई। सावित्री देवी उसे उभारने के लिए फिर बोली, "तुम्हीं ने मना कर दिया है, लोग कहते थे।"
नीली ने मार्जित गले से प्रतिवाद कर दिया, "मैंने तो उन्हें और चलने के लिए कहा था, यह भी कहा था कि दादा ने तो जाने के लिए कह भी दिया है; पर दीदी फिर न जाने क्यों नहीं आई!" कुमार मुस्कुराया। सावित्री देवी इतने से दूर तक समझ गईं। पर संदेह न रहे, इस विचार से कहा, "तुम्हारे दादा कौन बड़े ज्योतिषी हैं! जब तुमने बताया तब मालूम हुआ कि तुम्हारी दीदी वहाँ जा रही है।" "मैंने पहले कब कहा? दादा ने पूछा तब कहा।" नीली निश्चिंत हो गई।
देवी सावित्री का अनुमान पूरा उतरा। इस तरह नीली दरबार जमाए हुए थी। इसी समय निरू की दासी गई और 'बुलाती है' कहकर चुपचाप साथ लेकर बाहर चली आई। नीली इस बार भी दासी से पहले, हाँफती हुई , बहन के पास पहुँची और पूछा, "दीदी,
तुमने बुलाया है?" "हाँ, तू गई कहाँ थी?"
"कुमार बाबू के यहाँ।" पलँग से बँधा मसहरी बाँधनेवाला लट्ठा पकड़े, नाचती हुई जैसे प्रसन्नता से नीली ने कहा।
"लड्डू बँट रहे थे न कुमार बाबू के यहाँ?' स्नेह के स्वर से निरू ने कहा।
नीली विषम दृष्टि से देखती रही।
हँसकर निरू ने पूछा, "क्या बातें हुईं कुमार बाबू से?"
नीली फिर भी कुछ न बोली।
निरू ने कहा, "मैंने तुझे बुलाया था भेजने के लिए कुमार बाबू के यहाँ; पर तू
हो आई, अब क्या जाएगी!"
"जाऊँगी क्यों नहीं?" सीधी होकर नीली ने कहा।
"तो पहले बता कि वहाँ क्या बातें हुईं?"
"कुमार बाबू ने कहा, हमारे गाँव के जमींदार की बहन आ गई।"
"फिर?"
"फिर कुमार बाबू की माँ ने कहा, 'गाँव-भर को खिला रही हैं, हमें पूछा भी नहीं।
फिर मलिकवा की माँ गई और चलने के लिए कहा। कुमार बाबू उसे साथ ले जाने को राजी
हो गए। फिर मैंने कुमार बाबू से उनका पता पूछा।'
निरू मन-ही-मन खिल गई। कहा, "वहाँ भी अड्डा जमाने का विचार है-क्यों? क्या
कहा?"
"57 नम्बर, लाटूश रोड?"
"फिर?"
"फिर कुमार बाबू की माँ ने कहा कि इसने मना कर दिया है, इसलिए इसकी बहन नहीं
आई। मैंने कहा, 'नहीं, दीदी तो आ रही थी।"
"दीदी तो आ रही थी!-नानसेन्स।"
"नहीं, मैंने कहा, दादा से बातें हुई थीं, दादा ने बाद को जाने के लिए कहा भी
था; पर...फिर कुमार बाबू की माँ बोलीं, 'फिर तुम्हारी दीदी नहीं आईं-क्यों?"
निरुपमा लज्जा से वहीं गड़ गई। चलने का विचार जाता रहा। नीली का कान पकड़ा; पर
धीरे से खींचकर छोड़ दिया। मन में सोचा, 'इसने न जाने और क्या-क्या कहा हो!
फिर पूछा, "फिर क्या हुआ?"
"फिर मुझे खाना खिलाया। कुमार बाबू यहाँ खाना नहीं खाएँगे। यहाँ का पानी पीना
पड़ेगा, इसलिए। स्टेशन पर खाएँगे।"
निरुपमा गंभीर हो गई।
दासी खाने के लिए बुलाने आई।
निरू ने कहा, "नीली को ले जा, भोजन महाराज से यहीं रख जाने के लिए कह दे। कुछ
देर बाद खाऊँगी।"
निरू की इच्छा खाने की न थी। पर नीली के सामने न कह सकी।
नीली चली गई। निरू सोचती रही।