भोजन के पश्चात आराम करते हुए सुरेश ने नीली को बुलाया। गाँव की हवा में नीली लहर की तरह मुक्त हो रही थी। लिखने-पढ़ने का कोई दुःख न था। भाई के सामने प्रसन्न मुख आकर खड़ी हुई। सुरेश बँगला उपन्यास की किताब बगल में रखकर
प्रसन्नता से देखते हुए बोले, "गाँववाले बड़े बदमाश हैं?" नीली के हृदय की बात थी। भाई से सहयोग करने के लिए खुलकर बोली, "हाँ।"
"लेकिन तीन आदमी बड़े अच्छे हैं-रामचंद्र की माँ, रामचंद्र और मलिकवा की माँ।"
सुरेश गंभीर होकर बोले।
"हाँ।" पूरी प्रसन्नता से नीली ने कहा, "मैं सुबह रामचंद्र के घर गई थी, उसकी माँ ने मुझे जलपान कराया।"
"क्या खिलाया?" सुरेश ने पान निकालकर खाया।
"पीठे, उनके भीतर खोया, मेवा और चीनी थी।"
"उन्होंने तेरे लिए बना रखे होंगे, जब उन्हें मालूम हुआ होगा कि हम लोगों के साथ तू भी आ रही है। पहले से चिट्ठी लिखी थी न हमने सवारी ले आने के लिए।" "हाँ, दादा,"-नीली हवा की तरह निर्विरोध बहती हुई जैसे बोली, "रामचंद्र को फिर मुझे छोड़ आने के लिए साथ भेजा, और दीदी को कल बुलाया है।"
सुरेश और गंभीर हो गए, पर चेहरे से मुस्कुराते रहे। पूछा, "तू अकेली चली गई?"
"हाँ, रास्ते में एक आदमी नहाकर लौट रहा था, मैं मकान के पास ही थी, पूछा, उसने बता दिया।"
सुरेश समझ गए कि इसने कृष्णकुमार बाबू का मकान पूछा होगा। पूछा, "तू जब बाहर निकली तब तेरी दीदी थी?"
"हाँ, आज उन्हीं ने तो कपड़े पहनाए।"
सुरेश समझ गए। वे बहुत पहले से सजग थे। यामिनी बाबू नीली की बातें सुरेश से कह चुके थे। उन्हें अनेक बार निरू का वह मुख, वह दृष्टि याद आ चुकी थी, जो कुमार के परिचय के समय मकान में उन्होंने देखी थी। शंका हो जाने पर सफेद भी सियाह दिखता है। फिर निरू ने अपनी तरफ से भी शंका को सत्य-रूप देने के कार्य किए थे। लखनऊ में, कुछ दिनों बाद जब यामिनी बाबू रुपये लेने की तैयारी करके आए तो निरू टाल गई, कहा कि मामा से कर्ज लेते उसे लज्जा आती है, सुरेश की शंका को सत्य का आभास मिला। कुछ दिनों बाद बहुत समझाकर जब फिर उससे कहा गया और उसने जवाब दिया
कि मामा का सहृदय रूप ही उसकी आँखों में है, वहाँ उनका वैषयिक रूप रखकर वह दृष्टि को कलंकित नहीं करना चाहती, तब सुरेश को सत्य की सत्ता कुछ प्रत्यक्ष दिखने लगी। फिर कुछ दिन बाद ज्यादा दबाव पड़ने पर उसने जब नीली से कहला भेजा कि कहो, दीदी कहती है, अभी समय है। मुमकिन है, तब तक यामिनी बाबू के पास रुपये आ जाएँ, अभी से रुपये लेकर वे खर्च कर डालेंगे तो मुझे फिर कर्ज लेना पड़ेगा, सुरेश सुने हुए कथन का सत्य रूप देखने लगे। निरू के गाँव चलने की बात इस संशय को सत्य में बदलने की आधार-भूमि थी-इसी पर कर्ज न लेने पर हुई शंका की मूर्ति सत्य के रूप से प्रतिष्ठित हुई। उन्होंने पिता से कहा। अनुभवी पिता ने इसे नई उम्र की तरंग कहकर, विशेष महत्त्व न देते हुए ऐसा युवक-युवती मात्र के जीवन में होता है समझाकर, सावधानी से उद्देश्य की सिद्धि की सलाह दी और निरू का गाँव जाना न रोका। आज दुपहर को खेत से लौटने पर गाँववालों ने जब सुरेश को समझाया कि गाँव से छुटे हुए से मालिकों का मेल है-सुबह छोटी बिट्टी किसुन के घर गई थी और रामचंद्र मालिकों के यहाँ आया था, तब सुरेश को सत्य की वह मूर्ति हिलती-डुलती दिख पड़ी। पर पिता की सलाह के अनुसार उद्देश्य की सिद्धि के लिए सावधानी न छोड़ी।
वैसे ही गंभीर, पर उससे अधिक स्नेह करके उन्होंने कहा, "तुम लोग दूसरे की खातिर करना नहीं जानतीं। उन्होंने तेरी खातिर की; पर रामचंद्र को तुम लोगों ने खदेड़ दिया होगा?"
"नहीं।" नीली हँसकर बोली, "लखनऊ से हम लोग जो मिठाई ले आए थे, दीदी ने उसे खाने को दी तो।'
"हाँ," सुरेश ने कहा, "तब तो अच्छा किया। कुछ मीठी बातचीत भी की या गाल फुलाए बैठी ही रही?"
"दीदी देर तक उससे बातें करती रही, क्या पढ़ते हो, कैसे खर्च चलता है। फिर उसे बीस रुपया महीना खर्च देने के लिए कहा। उसने अपने दादा की आड़ ली; पर सब कह भी न पाया था कि दीदी ने डाँट दिया।"
सुरेश के मुख पर अधीरता स्पष्ट हो आई। पर जल कर गए। पूछा, "और मलिकवा की माँ क्या कहती थी?"
"वे सब मलिकवा के मरने की बातें थीं, मैं अच्छी तरह नहीं समझी।"
इसी समय, पूछने के लिए कि उपन्यास समाप्त हो चुका हो तो ले जाए, निरुपमा कमरे में आई।
सुरेश ने स्नेह-कंठ से कहा, "निरू, तुम्हें शायद पता नहीं, रामचंद्र को गाँववाले छोड़े हुए हैं। हमको रहना तो गाँववालों के साथ है।"
"तो क्या गाँववालों की मूर्खता के साथ भी रहना है?" मधुर मंद स्वर में निरू ने कहा।
"नहीं, फिर भी अधिक संख्यक लोगों का खयाल होना जरूरी है जमींदार के लिए। सरकार भी संख्या का विचार रखती है।"
"पर जबरदस्त कमजोर पर हमला न करे, इसका भी खयाल सरकार रखती है और जमींदार को रखना चाहिए।" निरू सामने की कुर्सी पर बैठकर सरल ओजस्वी स्वर से बोली।
- "तुम ठीक कहती हो। पर हम अगर कोई उपकार करें मान लो तो हमें इसका विचार रखना चाहिए कि गाँव में जिसका हम उपकार कर रहे हैं, उससे भी गिरी दशावाले हैं या नहीं; अगर हैं तो वह उपकार उपकार न होकर कुछ दिनों में जमींदार के लिए अपकार सिद्ध हो सकता है।"
चोट खाकर निरू चुप हो गई। सुरेश की वक्तृता का वेग बढ़ा, "तुम तो जानती नहीं।
जमींदारी दरअसल एक पाप है। फूफाजी कर गए हैं, हम भुगत रहे हैं। कभी इस पर, कभी उस पर मुकदमा लगा रहता है। अधिक आदमियों का गिरोह न देखें, तो हमारी गवाही कौन दे! गाँव भर मिल जाएँ तो जमींदार जमींदार न रह जाए! सब मिलकर बात-की-बात में उसे पीट लें। इसलिए बड़ी समझ से काम लेना पड़ता है।"
निरू चुप हो रही। मन में सुरेश की युक्तियाँ बैठती गईं। सुरेश कहते गए, "अब तुम्हारे आने की खुशी में यहाँ ब्राह्मणों को भोज देना है; पाँच-छः दिन के अंदर-अंदर करने का विचार है। कह दिया है कि बड़ी अच्छी सगाई है, चूंकि यहाँ से विवाह नहीं हो रहा, इसलिए इसे तिलक का भोज समझो। बहन, दुनिया बड़ी टेढ़ी है।
गाँववालों को मिलाकर रहना पड़ता है। अपने से बड़े की बात मानकर चलो तो सारे देवता प्रसन्न होते हैं। कहा भी है-इस समय याद नहीं आ रहा।"
"पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयंते सर्वदेवताः," कहकर बड़े कष्ट से निरू ने हँसी को दबाया।
सुरेश संस्कृत के किनारे से न गुजरे थे, गंभीर होकर बोले, "हाँ, यह सब युगों तक तपस्या करके सोचकर ऋषियों ने लिखा है। इसके अनुसार हम चलें, तब न हमें इसका फल मिले?"
निरुपमा कुछ देर साँस तक रोके बैठी रही। सोचा, यह स्नेह का फंदा है। मन-ही-मन ऊपर उड़ती हुई, इस पाश को पार कर जाना चाहा, पर सब जगह इससे अपने को बँधी हुई देखा। कुमार को चाहती है, पर वह पहुँच से बाहर है। समर्थ मन बराबर पहुँच से बाहर की चीज लड़कर भी लेना चाहता है, वह मानसिक समर करती है, पर अपनी संस्कृति से आप परास्त हो जाती है। मामा, भाई आदि के प्रति हुए स्नेह और संस्कारों के मायाजाल में बँधकर नहीं बढ़ पाती। कुमार भी हर तरह उसकी पहुँच से बाहर है। अंत में पहले की तरह निश्चय बँध गया, एक साँस छोड़कर यथार्थ ही कमजोर होकर समझी, मेरे लिए यामिनी ही है, सुबह का कुमार नहीं। "बात यह है," सुरेश बाबू निरू का मतलब दूर तक लगाते हुए बोले, "हम अकारण दूसरे के लिए क्यों सरदर्द लें? अपनी दवा कर लेंगे। संसार ऐसा ही है।" निरूगंभीर होकर उठकर चल दी।
सुरेश देखते रहे। फिर नीली से कहा, "नील, अपनी दीदी से कह दे कि दादा ने जब सुना कि रामचंद्र के लिए निरू ने बीस रुपया वजीफा बाँध दिया है तब कहनेवाले से कहा कि जो दान दिया जा चुका है, वह वापस नहीं लिया जा सकता, अब आगे से ऐसा न होगा। और कृष्ण की माँ ने बुलाया है तो जाना चाहिए, अहा! बेचारी को गाँववाले कितना सताते हैं, आज कुएँ से पानी भरना भी बंद करवा रहे थे, तेरे सामने ही डॉटा था न मैंने गुरुदीन को?' नीली खुश होकर चली तो बुलाकर पूछा, "पान तो हैं न काफी? नहीं तो आदमी भेजकर बाजार से मँगा लिए जाएँ, अभी समय है। आज शायद गाँव की औरतें निरू से मिलने आएँगी।"