निरू ने कमल को स्नेहपूर्वक बिदा किया। कमल से वह कुछ खुल गई, इसके लिए मन में कुछ लज्जित हुई। पर, कमल उसकी हिताकांक्षिणी है, सोचकर आश्वस्त हुई। ऐसीछोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना ठीक नहीं, आखिर यह गीत हर बंगाली के गले पर है,कैसी पर्दगी है! और वह पर्दा करती है। उसके समाज में वर पक्ष अच्छी तरह कन्याको देख सकता है, पर कन्या के लिए वह आजादी नहीं। विवाह जैसे केवल वर का हो रहाहै, वह ही हर तरह वरेण्य है। यामिनी बाबू उसके मनोनीत नहीं है, जिससे विवाहकरना है। पर उसे मनोनीत कर विवाह करना है। वह यंत्र की तरह है, स्वेच्छानुसारछेड़कर राग मिलाए-यह संस्कृति।
उपाय के लिए सोचा, पर चारों ओर मामा नजर आए। मामा के लिए जैसा कहा जाता है,कमल जैसा कह गई है, मुमकिन है, सच हो। उसे हृदय में अस्वस्ति मिलती थी, यह वहमालूम कर चुकी है। यह भी देख चुकी है कि वैषयिक बातचीत, उसकी जमींदारी केसंबंध की, अगर कुछ होती रहती थी और उस समय वहाँ वह जाती थी तो बंद हो जाती थी।उसे यह भी नहीं मालूम कि अब तक कितना रुपया जमा हुआ। उसे रुपये की भूख नहीं।जमींदारी थी, वह भी पिता की स्मृति के रूप में न मिली होती तो वह न चाहती; औरसत्य के मार्ग पर वह मामा और सुरेश दादा को सभी कुछ दे सकती है; पर इस तरह की
कलुषित भावना लोगों में क्यों फैली है? -अब वह स्वार्थ और परार्थ को अच्छी तरहसमझने लगी है, उसकी जमींदारी में, उसी की जबकि वह है, उसी की जहाँ रिआया है,स्वार्थ का बर्ताव प्रबल है या परार्थ का, वह नहीं जानती। परार्थ का बर्ताव
किया जाए, तो अच्छी तरह किया जा सकता है, क्योंकि उसका खर्च बहुत थोड़ा है।कृष्णकुमार का क्या हाल है? उसी की जमींदारी का रहनेवाला है। निरुपमा में एकभेद पैदा हो गया। समस्त सात्त्विकता, जिसे असात्त्विक प्रभाव पड़ता हुआ आवृत्त
कर रहा था, जैसे एक साथ जगकर केन्द्रीभूत हो विचार में बदल गई। उसे मालूम हुआ,घरवालों की आँखों में वह किशोरी थी और अपने को भी वैसी ही समझती थी, वह भ्रमथा; वह समय, बहुत समय हुआ, पार हो चुका है। वह राय रखती है।
सुबह उठकर हाथ-मुँह धोकर निरुपमा बैठी थी कि उसकी दासी ने आकर कहा कि मामाबाबू बुलाते हैं।निरुपमा उठकर मामा के पास चली। कमरे में उनकी गद्दी की बगल में बैठकर नत आँखोंसे पूछा, "माँ आ गई?"योगेश बाबू एक हिसाब देख रहे थे, निगाह उठाकर कहा, "बैठो, काम है, अभी कहताहूँ।" फिर हिसाब देखने लगे।निरू चुपचाप बैठ गई। कुछ देर में योगेश बाबू निवृत्त हो गए। स्नेह की दृष्टिसे नत निरू को देखते रहे। फिर कहा, "माँ, अब तक तो तुम्हारे नौकर की तरह तुम्हारा काम करता रहा; पर अब वृद्ध हो गया हूँ। कुछ आराम चाहता हूँ। तुम्हेंसमझा दूँ, तुम मालकिन की तरह अपनी आज्ञा धारण करो-आखिर अब बहुत दिन तो हैनहीं।" योगेश बाबू निरू को देखकर मुस्कुराए।
इस स्नेह-स्वर में फर्क नहीं हो सकता, निरू ने निश्चय किया, लोग यों ही दूसरे को नीचा दिखाने के आदी हैं। स्नेह से उमड़कर नम्र हँसकर मामा को सरल दृष्टि से-वही जो किशोरी की दृष्टि थी-देखकर, बोली, "आज्ञा कीजिए।"
वृद्ध फिर हँसे, "तुम्हें देखता हूँ तो रानी की याद आ जाती है।" रानी निरुपमा की माता का नाम था। "तुम्हें सुखी करके मैं स्वर्ग का भागी हूँगा, मुझे पूरा विश्वास है।" निरू वैसी ही सरल दृष्टि से देखती रही। "आज तक तुमसे नहीं कहा," वृद्ध गंभीर हो गए, "जरूरत भी नहीं थी। अब है। क्योंकि संपत्ति-विषय में भी तुम्हें सँभाल देना है।" नली मुँह में लगाकर, धीरे-धीरे कई कश खींचे। "यामिनी को रुपये की जरूरत है।" निरुपमा कुछ सँभलकर जैसे अच्छी तरह विषय में प्रवेश करना चाहती है, भाव को और भी तेज दृष्टि से देखने लगी। वृद्ध कहते गए, "कभी-कभी हाथ खाली हो जाता है। तुम्हारे पिता बीमार बड़े थे,
तब पास कुछ न था।" निरुपमा को भीतर से जैसे किसी ने हिला दिया। कमल की बात याद आई। वृद्ध धीरे-धीरे सारी कथा कह गए। फिर रुपये लेने के संबंध में यामिनी बाबू की इच्छा प्रकट की, फिर हँसे, कहा, "तुम्हें यामिनी बाबू के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है।"
निरुपमा के मुख पर विकार न था। अपनी सांपत्तिक मर्यादा और ऋण की क्षुद्रता समझकर वह चंचल न हुई। केवल इस विषय में दूसरों की दूरदर्शिता उसे याद आती रही। "माँ, तुम्हें समझा देना मेरा काम था, मेरे पास बहुत कुछ तो है नहीं। इसी पर मेरा बुढ़ापा और तुम्हारे भाई-बहनों का भविष्य निर्भर है। नहीं तो तुम्हारे पिता मेरे ऊपर थोड़े ही थे?" "जी नहीं, मैं तो सोचती हूँ, दादा के लिए मैं इससे भी कुछ अच्छी व्यवस्था कर दूँ।"
"यह मैं जानता हूँ, तुम्हारा प्यार सभी को जता देता है; और तुम्हारा दादा तुम्हें फूफू की लड़की थोड़े ही समझता है?"
निरू मुस्कुराकर बोली, "रामपुर में बाबा ने डेरे की जगह रहने लायक एक घर बनवाया था।" "हाँ; वह अब भी है।"
"मेरा विचार है, एक बार कुछ दिन रामपुर रह आऊँ।" "लेकिन," वृद्ध सोचते हुए बोले, "बड़ी दिक्कत होगी। गर्मी है। देहात में तुम्हें अच्छा न लगेगा। वहाँ मिलनेवाली भी कोई नहीं। अकेली, फिर हिंदुस्तानी हमें कुछ नीची निगाह से देखते हैं," हँसकर बोले, "मछली का तो वहाँ अध्याय समाप्त है।" "बाबा के साथ मैं एक बार हो आई हूँ। मेरा खूब जी लगता है। देहात की हवा अच्छी होती है और अभी नहीं, जून में जाना चाहती हूँ। आमों की फसल होगी।"
"अच्छा," धीमे स्वर से योगेश बाबू बोले, "तुम्हारे दादा साथ जाएँगे, और?" "और नीली।"