नीली मार खाकर जिस तरह निरुपमा से नाराज हुई थी; अनादृत होकर उसी तरह यामिनी बाबू से हुई। वह शारीरिक शक्ति में दीदी या यामिनी बाबू से कम है! पर बदला चुकाने की शक्ति में नहीं। जिस समय चमार के रूप में कुमार गया था और उसके उत्तरोत्तर बढ़ते परिचय से लोगों में आश्चर्य और श्रद्धा बढ़ रही थी, उस समय बिना व्यक्तित्व और बिना विशेषता की समझी गई नीली भी एक बगल खड़ी हुई सबकुछ देख-सुन रही थी। उसे अपने प्रति होनेवाली अवज्ञा की परवा न थी, कारण, उसने निश्चय कर लिया था कि ऊँचाई, शक्ति और विद्या जैसी कुछ ही बातों में वह दूसरों से छोटी है-जब वह उनकी ऊँचाई तक पहुँच जाएगी, तब वैसी हो जाएगी, यों दूसरों की तरह वह भी सब बातें समझ लेती है। कुमार के चले जाने के बाद देर तक उसके संबंध में बातें होती रहीं, वह सब समझी।
वहाँ कई और बंगाली युवक थे। उन लोगों ने कुमार के विद्वान होने पर भी, जूता पालिश करने का पेशा इख्तियार करने की तारीफें कीं। पहले देर तक बहस हो चुकी थीकि देश गिरा हुआ है, गुलामों की कोई जाति नहीं; फिर भी जातीय ऊँचाई का अभिमान लोगों की नस-नस में भरा हुआ है, इससे मानसिक और चारित्रिक पतन होता है; हम लोगों के एक-दूसरे से न मिल सकने, इस तरह जोरदार न हो पाने का यह मुख्य कारणहै। इतने बड़े विद्धान का निस्संकोच भाव से यह कार्य इख्तियार करना महत्व रखता है। इससे लोगों की आँखें खुलेंगी, उन्हें ठीक-ठीक मार्ग सूझेगा। यों यूरोप विद्यार्थी जाते ही रहते हैं, या तो वहाँ बिगड़ जाते हैं या मेम लेकर, नहीं तोपदवी के साथ काले रंग के गोरे होकर आते हैं-अपनी संस्कृति के पक्के दुश्मनबनकर। यूरोप की चारित्रिक शिक्षा यही है जो इसमें देखने को मिली कि गर्व कानाम नहीं, अपने काम से काम; हृदय से इस काम को छोटा नहीं समझता। बड़ी देर तकसोचते रहकर यामिनी बाबू ने कहा, परिस्थिति मजबूर करती है तब बुरे-भले का ज्ञान नहीं रहता, जो काम सामने आता है, इनसान इख्तियार करता है, क्योंकि पेटवाली मारसबसे बड़ी मार है। दीवानखाने में बैठी हुई निरुपमा सुन रही थी। यामिनी बाबू केविकृत स्वर से मुँह बनाकर उठकर ऊपर चली गई-हृदय से दूसरे युवकों की आलोचना कासमर्थन करती हुई। नीली बातें भी सुन रही थी और बातें करनेवालों का बोलते वक्तमुँह भी देख रही थी।
कुमार के लिए नीली के भी मन में सहानुभूति पैदा हुई। उस आलोचना के फलस्वरूप उसने निश्चय कर लिया कि यह अच्छा आदमी है और हर एक शंका का समाधान इससेनिस्संदेह होकर किया जा सकता है। कभी-कभी वह होटल जाया करती थी; मैनेजर उसे स्नेह करते थे। दुपहर के भोजन के बाद जब घरवाले आाम करने लगे, होटल चलकरकुमार से स्नेह प्राप्त करने के लिए नीली चंचल हो उठी। मिलने की कल्पना से हृदय में बाल-चापल्य पैदा हुआ, जिससे उसे एक प्रकार का सुखानुभव होता रहा।इधर-उधर देखकर घर के लोगों की आँख बचा त्वरित-पद होटल आई। ठीक सामने मैनेजर का कमरा था। एक दृष्टि से मैनेजर को देखा। मैनेजर के मुख पर कुछ ऐसी गंभीरता थी कि नीली की सस्नेह आलाप वाली इच्छा दब गई। उसे कुछ भय-सा लगने लगा। तब तक होटलका नौकर रामचरण आया और बोला, 'बाबू, अभी नहीं तनख्वाह देना चाहते तो दस दिनबाद दीजिए। मैं अपने भाई के पास जाता हूँ; पर कुमार बाबू के बासन अब हम नहीं छू सकते, हमें रोटी पड़ जाएँगी," कहकर चलने लगा। इसका साफ मतलब नीली समझ गई।एक कुर्सी पर बैठ गई और उसी तरह कभी मैनेजर साहब और कभी नौकर का मुँह देखनेलगी।
डाँटकर मैनेजर साहब ने रामचरण को बुलाया, फिर ऊपर नारायण बाबू और जगदीश बाबू को बुला लाने के लिए कहा।
वह होटल नाम में जितना भड़कीला है, भोजन में उतना सुघर और प्रचुराशय नहीं। नाम के नीचे छोटे अक्षरों में लिखा हुआ है-'वैष्णव भोजन'। होटल में जो कहार हैं,वे भोजन से भी बढ़कर वैष्णव हैं, यानी आचार-शास्त्र का यथानियम पालन करनेवाले। उन्हें तरक्की की भी प्रचुर आशा है, क्योंकि भगवानदीन अहिर अब ठाकुर बन गया हैऔर किसी का छुआ भोजन नहीं करता। उनके मनोभाव की यहाँ पुष्टि होती है। यहाँज्यादातर दफ्तरों के वे बाबू रहते हैं जो सरकार को कलयुग की प्रतिष्ठाबढ़ानेवाली प्रधान शक्ति मानते हैं और उसकी या उसके रंग से रँगी अन्य ऑफिसोंकी नौकरी आर्थिक विवशता के कारण करते हैं; पर वे हृदय से पूर्ण रूप से प्राचीनसनातन-धर्म के रक्षक हैं। उनके विचार में 'यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवतिभारत' का पूरा चित्र इस समय भारत में देख पड़ता है, और श्री भगवान के अवतार में अब क्यों देर हो रही है-यह उनकी समझ में नहीं आता।
नारायण बाबू और जगदीश बाबू को रामचरण बुला लाया। इतवार को भी आराम नहीं मिल रहा, वे नासिका कुंचित किए हुए सोचते-से आकर कुर्सी पर बैठ गए। मैनेजर साहब ने कहा, "तो क्या कुमार बाबू को जाने के लिए कह दूँ?" "यह हम कैसे कहें?" नारायण बाबू ने कहा, "पर यह जरूर है कि उनके रहने पर हम होटल छोड़ देंगे। " जगदीश बाबू ने कहा, "यह इंगलिस्तान नहीं। जैसा देस, वैसा भेस। यहाँ तो इस तरह चमारों में ही रहा जा सकता है। भाई, हमें सोना है, हम तो जाते हैं।" "कुमार बाबू को बुला ला।" मैनेजर ने रामचरण को आज्ञा दी। कुमार बगल में था। बातें सुन चुका था पहले की और इस समय की। कहा कि बाकी किराए का बिल चुकाकर वह शाम को चला जाएगा, इस समय उसे मैनेजर साहब की बात सुनने की फुर्सत नहीं।
कुमार की आवाज मैनेजर साहब के पास तक पहुँची। नीली खुश होकर उठी। आवाज में खुश कर देने की वैसे ही लापरवाही थी। भीतर से कमरे में न जाकर बाहर के बरामदे में टहलने लगी। बाहर से भी भीतर जाने का दरवाजा है। पर बिना परिचय के जाए कैसे? मैनेजर से पूछताछ कर कोई सूरत निकालती; पर उसकी जगह न रही। 'मैनेजर कैसा आदमी है-इसे अक्ल नहीं-होटलवाले गधे हैं।'
नीली बरामदे में टहलती रही, कुमार के झरोखे के पास इच्छापूर्वक धीरे-धीरे,कि वह टोके, स्नेह करे, तब बातचीत हो। उसे कुमार जैसा आदमी पसंद है। होटलवालों को मालूम नहीं-कैसे आदमी से प्यार और किससे घृणा करनी चाहिए। जब कुमार ने नीली को गिन-गिनकर पैर रखते देखा, तब समझ गया कि सामनेवाले घर की लड़की है। वह उसके घर गया था, इसलिए उसे समझा देना चाहती है कि वह भी आई हुई है और उसके प्रति उसकी सहानुभूति है।
बँगला में कुमार ने आवाज दी, "क्यों?" नीली खुश होकर आगे बढ़ गई! वहाँ से उसका मुँह न देख पड़ता था। उठकर कुमार ने दरवाजा खोला, देखा। देखकर, लजाकर नीली दूसरी तरफ देखने लगी। टोकने से लड़कियाँ अक्सर भाग जाती हैं। नीली भागी नहीं। कुमार की इच्छा हुई, उसे बुलाकर बैठाए और उससे बातें करे। इधर दोपहर-भर धर्म और नीति की बहस सुनते-सुनते परेशान हो रहा था। कहा, "एक तस्वीर मेरे पास है। बहुत अच्छी है। आओ, तुम्हें दूँ।"
एक दफा सारी देह हिलाकर नीली ने 'नहीं-नहीं' की; फिर धीरे-धीरे कमरे में गई। कुमार बँगला बोला। वह साफ बँगला बोल सकता है। यह एक नया आविष्कार नीली ने किया, और पहले उसके मन में जितना सामीप्य कुमार का था, अब और हो गया। बड़े आदर से कुमार ने कुर्सी पर बैठने के लिए कहा, फिर अंग्रेजी मैगजीन से एक तस्वीर फाड़कर दी।
नीली तस्वीर देखती हुई खुश होकर कुमार से बोली, "आप तो हिंदुस्तानी हैं।" नीली की साफ हिंदी कुमार को बड़ी अच्छी लगी। पूछा, "और तुम?" "बंगाली।" नीली गम्भीर हो गई! फिर तस्वीर देखने लगी। हम हिंदुस्तानियों से बड़े हैं, यह भाव इस जरा-सी लड़की में भी बद्धमूल है, कुमार ने सोचा, फिर हँसकर पूछा, "तुम कहाँ पैदा हुईं?" अपना मकान दिखाकर नीली बोली, "वहाँ।" "तो वह बँगला है?...तब तो तुम भी हिंदुस्तानी हो।" नीली ने लजाकर सिर हिलाया। कुमार बँगला में बोला, "हम बंगाली हैं, तुम हिंदुस्तानी हो।"नीली बँगला में बोली, "आप हिंदुस्तानी हैं। मैं जानती हूँ।" "मेरी जन्मभूमि कलकत्ता है, फिर मैं हिंदुस्तानी कैसे हूँ?' "तुम कहाँ रहते हो?" "ढाका।"
कुमार जोर से हँसा और बँगला का पूर्वबंग वालों पर मजाक बनाया एक पद्य कहा। पद्य बहुत मशहूर है। नीली भी जानती थी। चूँकि वह पूर्वबंग की थी, इसलिए उसका उत्तर भी उसने रट रखा था जो पूर्वबंग वालों का बनाया हुआ था, सुना दिया। फिर बोली, "दीदी कलकत्ते की है।"।
कुमार ने नीली के मकान में जूते पालिश करने के लिए जाकर भी निरुपमा को देखा था। समझ गया, पर उस पर कोई बातचीत न की, कहा, "तुम लोग ढाके के बंगाली बनो, इससे तो बेहतर है कि लखनऊ के हिंदुस्तानी रहो। बंगाली हम हैं।"
"हूँ," कुमार के गर्व के स्वर पर अवज्ञापूर्ण ध्वनि करके नीली ने कहा, "आप तो रामपुर में रहते हैं। रामपुर दीदी की जमींदारी है।" कुमार खूब खुलकर हँसा, कहा, "तुम्हारी दीदी तो बहुत बड़ी जमींदार हैं! तीन घर का गाँव है और कुल नौ खेत, बाकी सब ऊसर!" "और भी तो गाँव हैं।" नीली कुमार को एकटक देखती हुई बोली।
"तुम्हारी दीदी बहुत बड़ी जमींदार हैं। शादी हो जाएगी तब जमींदारी रखी रहेगी; तब तुम जमींदार होगी।'
"नहीं आप समझे? कहा तो, दीदी कलकत्ते की है; हम ढाका के।" "हाँ, हाँ, गलती हो गई। तुम्हारी दीदी कलकत्ते से यहाँ कैसे आकर जमींदार बन गईं?"
"आपके गाँव के कौन जमींदार हैं?"
"वे तो रामलोचन बाबू हैं।"
"हैं नहीं, थे। उनका देहांत हो गया, तीन साल हुए। अब दीदी जमींदार है। काम सब दादा करते हैं।" नीली मन-ही-मन सोच रही थी, दीदी इन्हें प्यार करती है; ये भी दीदी को प्यार करें।
"तो तुम्हारी दीदी की जिससे शादी होगी, वह तो रातोंरात मालदार हो जाएगा।
"हाँ," कहकर नीली खिलखिला दी; कहा, "यामिनी बाबू से होगी।"
यामिनी बाबू का नाम कुमार को याद था। पूछा, "कौन यामिनी बाबू?"
''वह जो यूनिवर्सिटी में अभी लेक्चरर हुए हैं।"
कुमार चप हो गया। फिर जल्दी ही स्वस्थ होकर पूछा, "तुम्हारा नाम?"
"श्री नीलिमा देवी।"
कहने के सभ्य ढंग पर कुमार हँसा। फिर पूछा, "और हमारे गाँव की जमींदार तुम्हारी दीदी का नाम?"
नीली मुस्कुराकर बोली, "श्री निरुपमा देवी।"
कुमार कुछ सोचता हुआ-सा उठा, कमरे के बाहर होटल की घड़ी लगी हुई थी, देखने के लिए। लौटा तो नीली ने पूछा, "अच्छा, एक ग्राउंड की घास दो घोड़े दो दिन में चरते हैं तो एक घोड़ा कितने दिन में चरेगा?"
"चार दिन में। क्यों? मेरा इम्तहान हो रहा है?"
"नहीं। आप तो आज चले जाएँगे।"
"तुम्हें कैसे मालूम हुआ?"
"आप जब कह रहे थे तब मैं वहाँ बैठी थी। अब कहाँ जाएँगे?"
"कुछ ठीक नहीं। तुम्हारी दीदी की इतनी जमींदारी है, कहीं जगह दिला दो!"
नीली उठी और तस्वीर लिए दौड़ती हुई जैसे कुछ लक्ष्य कर घर चली गई।
दीदी के कमरे में जाकर देखा, वह अंग्रेजी का एक उपन्यास पढ़ रही थी। नीली को अपनी गलती मालूम होते ही दीदी के प्रति कुछ वैमनस्य दूर हो गया। बगल में बैठकर बोली, "कुमार बाबू ने मोची का काम किया है, इसलिए होटलवाले उन्हें होटल में नहीं रख रहे। वह आज कहीं चले जाएँगे। बड़ी अच्छी बँगला बोलते हैं।" निरुपमा सचिंत आँखों से सोचती रही। किताब एक बगल रखी रही।