नीली प्रतीक्षा में थी। मोटर के आने की आहट मिली। नीली ने ऊपर से झाँककर देखा, यामिनी बाबू के साथ दीदी को देखकर जल गई। निरू उतरकर यामिनी बाबू से स्नेह-संभाषण कुछ किए बगैर जीने पर चढ़ने लगी। कुछ द्रुत-पद अपने कमरे में आई। घरवालों की बेहयाई, स्वार्थपरता आदि सोचकर हृदय से झुलसती हुई। उसके आते ही नीली सामने आकर खड़ी हो गई और बड़े धीमे और विश्वस्त स्वर से कहा, "दीदी, कुमार बाबू की माँ कहती थीं कि तुम्हारी दीदी का पत्र हमें मिला है, पर जब तक तुम्हारी दीदी हमसे न मिलेगी, हम जल ग्रहण न करेंगी, और मुझे यह बात किसी दूसरे से कहने को मना किया है।"
निरू ने स्नेह की दृष्टि से बहन को देखा। फिर वैसे ही धीमे स्वर से कहा, "नीलू, तू अभी मुझे वहाँ ले चल, वे जरूर रात को फिर भोजन न करेंगी।" नीली प्रसन्न होकर उछल पड़ी। पूछा, "कोई पूछेगा तो क्या कहूँगी?" "कहना, दीदी अमीनाबाद कुछ सामान खरीदने गई थी।" निरू पुनः-पुनः पुलकित होने लगी। आनंद की भी बाढ़ आती है। बार-बार मन कहने लगा, 'अवश्य कोई शुभ संवाद है।' भीतर से श्रद्धा ने कहा, 'ये धर्म की माँ हैं, इनके स्नेह की तुलना नहीं हो सकती, ये पत्र से सब कुछ समझ गई हैं।'
निरू ने अपनी साड़ी की ओर देखा। घृणा हो गई। इसका यामिनी के वस्त्रों से स्पर्श हुआ है। इससे उस गृह में प्रवेश नहीं हो सकता। दासी को नहीं बुलाया। नीली से रोज की पहननेवाली सादी साड़ी ले आने के लिए कहा। स्वयं स्नानागार चली गई। नहाकर कुछ कपड़े वहीं छोड़ दिए। वस्त्र बदलकर हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम किया और प्रार्थना की कि अब कभी ऐसे दूषित संग में न फँसना पड़े। हृदय में एक पूर्व साहस आया। जो साहस लेकर वह कुमार के घर एक दिन गई थी, वह फिर मिला। अब उसे संसार में किसी का भय नहीं। भयवाला पहला स्वरूप सोचकर उसे हँसी आती है। वह कैसी यंत्र की तरह बन जाती थी। इसी समय एकाएक दासी सामने आकर खड़ी हुई, "नहाने के कमरे में जो कपड़े छोड़ आई हूँ, ले लेना।"
दासी प्रसन्न होकर चली गई मन में सोचती हुई कि आज जमाई बाबू के साथ टहलने गई थीं, उसकी खुशी है। निरू नीली को लेकर बाहर चली। निस्संकोच सीधे कुमार के मकान के सामने आकर खड़ी हुई। नीली ने आवाज दी, दरवाजा ढकेलकर देखा, खुला था; बिजली जल रही थी, निरू नीली को आगे कर भीतर गई। सावित्री देवी भोजन पकाकर दाल छौंकने के लिए घी गर्म कर रही थीं। एक तरफ मलिकवा की माँ बैठी थी। रामचंद्र भीतर पढ़ रहा था। नीली की आवाज से सावित्री देवी समझ गईं कि अब के नीली अकेली न होगी। तब तक दोनों बिलकुल पास आ गईं। "चलो, बैठो, मैं अभी आ गई," कहकर सावित्री देवी घी के नीचे और आँच करने के लिए फूँकने लगीं।
नीली दीदी को उसी कमरे में ले गई। साथ मलिकवा की माँ भी गई। रामचंद्र ने पढ़ते हुए आवाज न सुनी थी। निरू को देखकर खड़ा हो गया। निरू ने सस्नेह रामचंद्र की ठोढ़ी पकड़कर हिला दी, "पढ़ रहे हैं?" और उसी पलँग पर बैठ गई।
निरू को जैसा सुन चुकी थी, नीली भी सावित्री देवी को माँ कहकर पुकारती थी। रसोई के पास जाकर कहा, "माँ, दीदी तुम्हें खिलाने के लिए आई है।" सावित्री देवी हँसीं। कहा, "हाँ; पर यह तो बताओ कि तुम्हारी दीदी आज ही मुझे खिलाएगी या हमेशा?" नीली आशय समझ गई, बिना कुछ कहे जैसे वह हृदय से छोटी हुई जा रही थी, ऐसा सोचकर अप्रतिभ कंठ से बोली, "हमेशा।" यह कंठ जैसे नीली का नहीं, किसी सत्य का हो। निरू सुन रही थी, हृदय भर गया, अपने हृदय की शक्ति से हृदय को बाँधने लगी। सावित्री देवी रसोई से बाहर निकलीं। निरू को देखकर उसकी प्रसन्न मुखच्छवि से ऐसी प्रसन्न हुईं कि जैसे उनकी समस्त साधना आनंद बनकर भर गई हो। प्यार से निरू की ठोढ़ी उठाकर बलाएँ लीं, पीठ और कंधे पर हाथ फेरती रहीं। निरू पालतू चिड़िया की तरह बैठी रहीं। सावित्री देवी एकटक देखती रहीं। उनके सोचे हुए भावों का कहीं से भी विरोध न था। बँगला में बुलाकर निरू को दूसरे कमरे में ले गईं। हाथ में चिट्ठी देखकर निरू ने आँखें झुका लीं। बँगला में ही सावित्री देवी ने कहा, "माँ से हृदय का भाव कहीं इस तरह छिपाया जाता है? इससे तुम्हें कितना कष्ट हुआ! मैं तो गाँव में
नीली की बात से ही समझ चुकी थी; फिर तुमसे मिलकर और यहीं एक जगह तुम्हें और कुमार को देखकर समझी। कहो तो, यह पानी की बूँद है या तुम्हारा आँसू?" "आप माँ हैं, आपकी दृष्टि में भ्रम न था, आपने ठीक देखा और ठीक समझा है।" निरू
नत-दृष्टि, सरल-गंभीर कंठ से बोली। "तो इस संबंध में तो तुम्हें ही अपने संचालन का भार लेना होगा, तभी तुम सफल
होगी, मैं तुम्हारी केवल अनुकूलता कर सकती हूँ।" सावित्री देवी बिलकुल माँ की तरह मिलकर बोलीं। "मैं ऐसा ही करूँगी। कमल के संबंध में मुझे भ्रम न हुआ होता, तो उसी रोज मैं इसका आभास दे गई होती।" सावित्री देवी समझकर मुस्कुराकर बोलीं, "फिर भी तुमने बहुत कुछ आभास दिया था। जाओ, कुमार की कुछ किताबें वहाँ हैं, कोई ले लो और पलँग पर लेटकर आराम से पढ़ो, तब तक मैं कुछ भोजन और बना लूँ, मुँह जुठार जाओ, कुमार भी तब तक आ जाएगा, तुम्हें छोड़ आएगा, उससे निश्चय भी कर लेना।" सम्मति की सूचना के तौर पर निरू धीरे-धीरे कमरे के बाहर निकली और उसी तरह पसंद की एक किताब लेकर देखने लगी। सावित्री देवी ने फिर चूल्हा जलाया।
थोड़ी देर में कुमार के साथ कमल भी आई। कमल को देखते ही प्रसन्न सावित्री देवी ने कहा, "आज हमारे बड़े भाग्य हैं।"
"अच्छा!' निरू को देखकर कमल ने कहा, "इसीलिए, लेकिन हमारे भी भाग्य क्यों न जगें माँ?" बाहर निकलकर कहा।
सावित्री देवी अज्ञ दृष्टि से देखने लगीं, देखकर बोलीं, "यानी इनके पीछे हमें भी गरमागरम भोजन क्यों न मिले?" सावित्री देवी लजा गईं; कमल कहती गई, "यद्यपि बहू अपनी अधिक है और उसकी थाली में घी के अधिक पड़ने की संभावना है!" मकान का सारा वायुमंडल और हो गया। चारों ओर जैसे तीव्र प्राणों का स्पंदन हो चला।
उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना कमल भीतर गई और निरू की बगल में उसी पलँग पर बैठती हुई कुमार से बोली, "आप तो जानते होंगे, कहा है- 'उपायेन हि यच्छक्यं न तच्छक्यं पराक्रमैः' का क्या कनक सूत्रेण कृष्णसर्पोनिपातितः।"
निरू मुस्कुराकर बोली, "यानी तुम काकी हो।" "मैं काकी हूँ, नानी हूँ, काले साँप को कैसा खेलाती हूँ, देखो, बल्कि कहना
चाहिए, तुम्हारी इस वैवाहिक विचित्रता में कैसे फिनिशिंग टच देती हूँ-देखो।" निरू जानती थी, इससे ज्यादा बातें करने पर जगह-जगह नीचा देखने की यथेष्ट संभावना है। इसलिए चुप हो गई। कुमार अखबार उलट रहा था। मलिकवा की माँ दोमंजिले के आँगन पर पान लगा रही थी। कमल कहती गई, "पी-एच. डी. महोदय को Doctor's Phial (डॉक्टर की शीशी) न बनाई मैंने तो नाम क्या!" फिर नीली की तरफ निगाह गई, कहा, "उस मकान में अगर कोई समझदार है तो सिर्फ नीली।" नीली सीधी होकर बैठी। कमल कहती गई, "दुनिया के गुप्त कार्य जितने ऐसी उम्र में होते हैं, उतने किसी उम्र में नहीं। इस उम्र के कार्य में रोचकता काफी रहती है, करनेवाले को भी आनंद मिलता है, देखनेवालों को भी, और नीली के लिए मुझे पूरा विश्वास है कि इस कार्य में नीली दक्षता दिखा सकती है-डॉ. यामिनी को डॉक्टर की शीशी बना देगी।" नीली खुश होकर हँसी।
"अच्छा नीली, दबने की कोई बात नहीं, तेरी दीदी जबकि है, तब विवाह भी जरूर होगा, तू यह बता कि अपनी दीदी के योग्य तू किसे समझती है-यामिनी बाबू को या कुमार बाबू को?" "कुमार बाबू को।" इम्तहान देती हुई जैसे उच्छ्वसित होकर नीली बोली। "ठीक कहा तूने; मेरी भी यही राय है। अच्छा, यह बता कि इस काम में अगर पूरी मदद की जरूरत तुझी से हो, तो पूरी कर सकती है या नहीं?" "कर सकती हूँ," नीली बिलकुल तनकर बोली। "अच्छा, भेद खोलने के लिए अगर तेरे घरवाले तुझे कमरे में बंद कर बेंत लगाना शुरू करें, तो तू कितने बेंत सह सकती है?"
"पचास।"
"शाबाश! तू अवश्य काम कर सकती है।" फिर निरू से कहा, "निरू, तुम्हें काफी कड़ाहोना होगा। यह राहु-ग्रास बगैर टेढ़ा पड़े दूर न होगा। तुम्हारा सेन रोडवाला बँगला खाली है न?" "हाँ, है शायद।"
"तुम्हें इतना भी नहीं मालूम? वह खाली है। यामिनी बाबू के चले जाने पर उसे सजवा लेना और नीली को लेकर उसी में आकर रहना; जब विवाह के चार रोज रह जाएँ," कहकर निरू का हाथ पकड़कर उठी और जीना पार कर छत पर ले चलने के लिए चली। निरू चली।
छत पर पहुँचकर निरू से कहा, "अब तुम नाबालिग तो नहीं, सबकुछ समझती हो।
तुम्हारे मामा वगैरह कैसे हैं, इसका तुम्हें परिचय मिल चुका है। और भी अच्छी तरह परिचय पा लोगी। जरा इसे भी देखो," कहकर जेब से आई हुई चिट्ठी निकालकर दी और दियासलाई जलाई, कहा, "पढ़ो।"
निरू पढ़ने लगी। पढ़कर गुस्से से तमतमा उठी, "हूँ, समझी। तुम जो कुछ भी कहो, मैं करने के लिए तैयार हूँ। मेरी आँखों से जितना अंधकार था, सब कटता जा रहा है। मैं अच्छी तरह अब तुम्हारी पहली और अब तक की बातों का मतलब समझ रही हूँ।" - "हाँ, वहाँ जाकर तुम अपने मामा को ऐसा पत्र लिखो, जिसमें बात तो स्पष्ट न हो; पर यह साफ-साफ उन्हें मालूम हो जाए कि तुम उनकी चालबाजियों को जानती हो और तुम्हें उनकी मदद की जरा भी परवाह नहीं। मदद तो वही चाहते हैं और चाहेंगे, क्योंकि वह मदद तुम्हारे पास है और तुम दे सकती हो, अगर चाहो। लिख देना कि बँगले में ऊपर कोई न आ सकेंगे, और जब बुलाओ, विवाह के ठीक पहले तभी वे लोग वहाँ जाएँ। भोजन-पान का कुल प्रबंध कराएँ। वर-यात्रियों को खिलाएँ-पिलाएँ, जो उनका काम है। घर की स्त्रियाँ भी नीचे ही रहेंगी। तुम इच्छानुसार नीचे उतरकर उनसे मिल लोगी। इस तरह उन्हें अपनी लघुता के ज्ञान से दुःख होने पर भी वे विशेष बुरा न मानेंगे, पहले तो यही समझेंगे कि यह पाठ यामिनी का पढ़ाया है। साथ-साथ यह भी खयाल करेंगे कि विवाह हो जाने पर पहलेवाले पराए और बादवाले अपने होते हैं। निरू कुछ जल्दी कर गई। यह भी लिख देना कि तुम्हारे बाबा की इच्छा थी कि तुम्हारा हिंदुस्तानी ढंग से विवाह हो, इसलिए तुम उनकी इच्छा पूरी करना चाहती हो। विवाह में एक योग्य हिंदुस्तानी पंडित को तुमने आमंत्रित कर दिया है। कुछ संदेह लोगों को हो सकता है; पर जब, तुम सशरीर मौजूद हो, तब वह केवल संदेह ही रहेगा, उनमें उसकी जड़ जम नहीं सकती।" फिर निरू से अपने प्लैन की सारी बातें कहीं। निरू बहुत खुश हुई, "तुममें मौलिक चिंताशीलता अवश्य है।" कमल की संबर्द्धना की।
भोजन तैयार हो चुका। पत्तलें पड़ गईं। रामचंद्र ऊपर बुलाने के लिए गया। कमल ने बालक को पकड़कर पूछा, "इन्हें तुम क्या कहते हो?" "दीदी।" "यह ठीक नहीं," गंभीर होकर बोली, "भौजी कहा करो।" "हाँ, तो अभी ब्याह कहाँ हुआ?" रामचंद्र हँसी न रोक सका।