ब्रह्मभोज के दूसरे दिन निरुपमा नीली को लेकर लौट आई। चित्त में समाज के विरोध में जगा हुआ क्षोभ बराबर उसे बहका रहा था। सोच रही थी, प्राणों की मैत्री के लिए समाज की आवश्यकता है, वैषम्य की सृष्टि करे-इसके लिए नहीं। जो समाज शांति नहीं दे सकता, उसका त्याग करना ही उचित है, और विवाह जो जीवन की ऋतु-कुंचित गति को सहज साध्य और रसमय करने के लिए है, अगर रत्ती-भर अनुकूल न हुआ-सारी वृत्तियाँ विरोध पर रहीं तो किसी नीति या लोक-रुचि के विचार से करना आत्महत्या तुल्य होगा।
निरू कक्ष में बैठी थी। विचार के बाद ही उसे वृंत म्लान होते हुए स्थलपद्म की याद आई। उसी का चित्र देखती हुई मन में मुस्कुराई। नारी का रहस्यपूर्ण हृदय सहसा अपार शक्ति चमत्कार से जैसे खुल गया। सांत्वना मिली। कक्ष के झरोखे खुले
थे। वर्षा की आर्द्र वायु बहती हुई। एकाएक दृष्टि उस स्थान पर गई जहाँ कुमार को सर्वस्व दानवाली दृष्टि से देखा था। एक गर्म साँस सिक्त वायु से मिलकर बह गई। निर्जन बैठी हुई उसी जगह को देखती रही। कल्पना की कलियों की कितनी
प्यालियाँ भरती-ढुलकती रहीं। इसी समय दासी आई। निरू ने नीली को बुला लाने के लिए कहा, खुद उठकर आईने के सामने खड़ी होकर बाल ठीक कर लिए। "क्या है दीदी?" चपल आती हुई नीली ने पूछा। "चल, टहल आएँ," कहती हुई निरू जूते पहनने लगी।
हाथ पकड़, घर से बाहर होकर सड़क पर आते ही पूछा, "नीली, कुमार बाबू का पता मालूम है?" "हाँ," खुश होकर गर्दन टेढ़ी कर नीली ने कहा। "तू अभी गई तो नहीं?"
नीली हो आई थी। घर आने के आधे घंटे बाद पहले पता लगाने गयी थी। लेकिन भीतर नहीं गई। सिर्फ मकान पहचानकर चली आई थी। बोली, "सिर्फ मकान देखने गई थी।"
निरू संतुष्ट होकर चली गई। नीली के मन में किसी प्रकार के उद्वेग का कारण न रह गया। हिवेट रोड से लाटूश रोड, और क्रमशः कुमार बाबू के मकान के पास दीदी को लेकर खड़ा कर दिया, बोली, "यही है।"
"आवाज दे।" लज्जित स्वर से निरू ने उत्साह दिया। नीली दरवाजा भड़भड़ाती आवाज देती रही। रामचंद्र ने आकर दरवाजा खोल दिया और
निरू को देखकर भीतर बुलाए बगैर माँ के पास खबर देने के लिए दौड़ा गया। भीतर जाने की यह मुमानियत नहीं, बल्कि बड़ी आवभगत है, यह निरू उसी वक्त समझ गई और धीरे-धीरे लज्जिता नववधू की तरह पैर रखती बढ़ती रही, तब तक देवी सावित्री आ गयीं और बँगला में 'आओ-आओ' कहकर हाथ पकड़कर बड़े स्नेह से भीतर ले चलीं। नीली आँगन में पहुँचकर रामचंद्र से आलाप-परिचय करने लगी। रामचंद्र के गाँव से लखनऊ का जो फर्क है, उसी हिसाब से अपने को श्रेष्ठ नागरिक मानकर पूछा, "लखनऊ कैसा है?" रामचंद्र नीली से दबनेवाला न था। स्वर की पहचान करते उसे दिक्कत न हुई। बोला, "कलकत्ते के मुकाबले कूड़ाखाना।"
निरू ने देखा, छोटा पर सुघर घर है, हवादार, दोमंजिला। इसके गृहस्थ की, साधारण अवस्था होने पर भी कलाप्रियता स्पष्ट है, इसकी प्रत्येक सजावट कहती है। सारी चीजें कायदे से रखी हुईं-देशी-विलायती फूलों के गमले बराम दे में; पलँग, बिस्तर, कपड़े साफ।
देखती हुई नीरू ने पूछा, "माँ, यह सब आपका सजाया हुआ है?" शुद्ध हिंदी में निरू ने पूछा-सावित्री देवी के साथ दोमंजिले के सोनेवाले कमरे में मकान देखकर जाती हुई।
"नहीं, माँ, मेरे आने से पहले सजावट के सामान कुमार ने ले रखे थे। घर की चीजें ले आकर मैंने सुथरे ढंग से लगा दी है।' सावित्री देवी स्नेह से देखती हुई
बँगला मिले संबोधन से हिंदी में बोलीं। बिछे पलँग पर हाथ पकड़कर निरू को बैठाती हुईं, "यह कुमार का पलँग है," कहकर परीक्षा की दृष्टि से देखने लगीं।
बैठी हुई लज्जित निरू सप्रतिभ हुई कुमारी-कंठ से बोली, "अब आपको बड़ा कष्ट होता है। गाँव में कितना काम आप करती थीं। यहाँ कुछ सुबीता हुआ। पर कुमार बाबू की शादी आप क्यों नहीं करतीं?" उन्हें अपने समाज में लड़की मिलना मुश्किल है, इस भाव को दबाकर सावित्री देवी ने कहा, "कुमार होश सँभालकर अपनी इच्छा से चल रहा है। इसके विलायत जाने में
उसके पिता की राय न थी। उसे खिन्न देखकर मैंने समझाया। जो कुछ थोड़ा-सा था भविष्य के अवलंब के रूप में, वह कई साल कुमार के विलायत रहने पर खर्च हो गया। फिर उसके लौटने पर जो मुसीबतें आयीं, वे तुम्हें मालूम हैं। और अब मेरी रुचि का तो रहा नहीं, जैसा समझेगा, करेगा।"
"लेकिन दुनिया में दूसरे की रुचि भी देखनी पड़ती है। अगर किसी को...' निरू एकाएक रुक गई, जैसे उसके बनाते-बनाते विषय स्वयं स्वतंत्र होकर बिगड़ा जा रहा हो।
सावित्री देवी ने कहा, "हाँ, माँ, ठीक कहती हो, संसार में दूसरे की भी रुचि देखनी पड़ती है। अगर किसी को कुमार प्यार करता होगा, तो उसकी रुचि के अनुसार भी उसे चलना होगा। मेल के यही मानी हैं।" "अच्छा, माँ, कुमार बाबू तो विलायत हो आए हैं, जरूर यहाँ उनके मन में मेम का रूप होगा। अगर वे मेम ले आएँ या किसी ऐंग्लो इंडियन लड़की से शादी करें, तो
आपको बड़ी अड़चन होगी?" कहकर निरू मर्म में छिपी हुई सावित्री देवी को बड़ी-बड़ी आँखों से देखती हुई मुस्कुराई।
"अड़चन क्यों होगी, माँ? पुत्र-कन्या का जिस पर स्नेह होता है, उसकी ओर स्वभावतः माँ की स्नेह-धारा बहती है, यदि उस धारा के काटने के क्षुद्र कारण न हुए।" सावित्री देवी बाजार से मिठाई, नमकीन मँगाने के पैसे निकालने चलीं, फिर बाहर जाकर रामचंद्र को देकर अस्फुट शब्दों में जल्द ले आने के लिए कहकर भीतर आईं।
उनके कुर्सी पर बैठने पर निरू ने कहा, "माँ, मैं रामपुर की जमींदार हूँ! फिर भी जमींदारी की तरफ से आप पर जो अत्याचार हुए हैं-आपके बाग और जमीन बेदखल किए गए हैं-आपको दूसरी तकलीफें पहुँचाई गई हैं, इनका ज्ञान मुझे न था। इन सबके लिए आपसे माफी माँगने आई हूँ, आपने मुझे बुलाया था, फिर भी मैं आपके यहाँ नहीं आ सकी। दादा का कहना था कि दूसरे भी बुलाएँगे और जाना होगा, न जाना व्यवहार के विरुद्ध होगा।"
मलिकवा की माँ पान लगाकर ले आई। तश्तरी बगल में रख दी। निरू ने एक इलायची उठा ली और मलिकवा की माँ को देखकर दुखी होकर-गर्दन झुकाकर सोचने लगी। "क्षमा क्या है, माँ?' मलिकवा की मृत्यु तथा अपने दुखों की स्मृति से गंभीर
होकर सावित्री देवी ने कहा, "तुम्हारा था, तुम्हारा हुआ। ईश्वर जब स्नेह का धन-बुढ़ापे का सहारा भी माता-पिता से छीन लेता है, तब वैसे साधारण अधिकार के जाने का क्या क्षोभ? मलिकवा की माँ को देखो!" कुछ देर सहानुभूतिजनक मौन छाया रहा। मलिकवा की माँ खड़ी थी। आँखों से आँसू झरने लगे। वह बाजार चली गई।
"माँ, तुम्हें देखकर वह विचार मन में नहीं आता कि तुम दूसरे घर की हो। रामचंद्र के लिए जो स्नेह तुम्हारा बहता है, उसी स्नेह का प्रवाह तुम्हारी दृष्टि से आता हुआ मैं अनुभव करती हूँ। तुम्हारी दृष्टि को मेरे सत्य और असत्य का पता अवश्य लग जाएगा, और मैं बड़प्पन नहीं जता रही। यह तुम समझती हो और तुम्हारे सामने सदैव मेरा छुटपन ही तुम्हारा श्रेष्ठ दान-स्नेह प्राप्त करेगा।
कुमार बाबू की रुचि में मैं बाधा नहीं डालती। पर रामचंद्र की पढ़ाई के लिए हुई मेरी सेवा जो उन्हें मंजूर नहीं हुई, इसके क्या यही मानी नहीं कि मुझे समझाया कि रामचंद्र पर उन्हीं का अधिकार है? खैर, मैं उनके अधिकार पर हस्तक्षेप नहीं करना चाहती; सिर्फ कहना चाहती हूँ कि मेरा जो अधिकार था, उसका मैंने भी उचित प्रयोग किया है-आपके बाग और खेत ज्यों-के-त्यों आपके होंगे; जमींदार ने उन पर से अपना कब्जा उठा लिया है। आप कहें तो बाग की हैसियत जो नहीं रही, ठीक करा दी जाए।" सावित्री देवी स्नेह से पूर्ण हो मधुर स्वर से बोली, "माँ, तुम्हारी सहानुभूति दूसरे को ठीक नहीं समझती है, मुझे उसकी पहचान है; पर यह ठीक नहीं, गाँव में सभी तुम्हारे हैं, सबके लिए तुम्हारा एक ही भाव होना चाहिए। दूसरे इससे दुःखी होंगे। कानूनन वह सब तुम्हारा है। मुझे मिलना होता तो कानूनन तुम्हीं मिली होती।' सावित्री देवी ने सीधे विचार से कहा।
निरू हृदय की गहनता में निश्चल थी, स्वल्प लज्जित हो गई। अपने को कुमारी रूप से फिर सँवारकर बोली, "मलिकवा की माँ को तीन बीघे माफी देने का प्रबंध मैंने कर दिया है। वह जब तक जिएगी, खाएगी, मैं आपसे और कुछ कहना चाहती थी, आपने पहले ही मुझे चोट पहुँचाकर निराश कर दिया।" "चोट नहीं, मैं कायदे की बात कर रही थी, पर तुम्हें दुख पहुँचा हो तो मैं कहती हूँ, जैसा तुमने दावा पेश किया है-रामचंद्र पर तुम्हारा वैसा ही अधिकार है जैसा कुमार का। तुम्हें जो कुछ देना है, रामचंद्र को दो, मैं उसे लेने के लिए कहूँगी और उसे तुम्हारी दी वस्तु-संपत्ति लेते हुए खुशी होगी-मैं जानती हूँ।"प्रसन्न होकर निरू मुस्कुराई, कहा, "बाग और खेत तो हुए ही रामचंद्र बाबू के। आपके दो मकान भी कानपुर में हैं?"
"हाँ,' कुछ व्याकुल होकर सावित्री देवी ने कहा, "कुमार की पढ़ाई के खर्च में रेहन किए गए थे।" "हाँ, महाजन को रुपये की जरूरत है; मैं रुपये देकर रजिस्ट्री खरीद रही हूँ। वे मकान भी रामचंद्र बाबू को मिलेंगे।" सावित्री देवी सविस्मय मुँह की ओर ताकती रह गईं। इसी समय मलिकवा की माँ कुछ पूछने के लिए सावित्री देवी को बुलाने आई। उन्होंने संयत प्रसन्नता से पूछा, "मलिकवा की अम्मा, पहचानती हैं, गाँव की मालकिन हैं।" मलिकवा की माँ ने सिर हिलाकर सूचित किया कि पहचानती है।
मुस्कुराकर सावित्री देवी ने कहा, "तीन बीघा माफी तुझे इन्होंने दी है; माथा टेककर पैरों पड़।" मलिकवा की माँ विक्षिप्त आश्वासन से हँसकर उसी तरह पैरों पड़ी। उसी समय बाहर गया हुआ रामचंद्र आया और दो मंजिल के आँगन से माँ को आवाज दी। नीली रामचंद्र के साथ रह गई थी।