कमल भीतर कपड़े बदल रही थी, बाहर कुमार प्रतीक्षा करता हुआ। नए-नए संबंध की घनिष्ठता की डोर कमल के स्नेह-कर में जो थी, कुमार उससे बँधता जा रहा था-उसने बुलाया था, वह गया हुआ है। यद्यपि कुमार पहले से प्रकृति का पूरा स्वतंत्र था, फिर भी इधर की परिस्थिति ने उसके लिए लक्ष्य-विशेष नहीं रखा। कमल सजकर बाहर निकली और कहा, "बड़ा अच्छा मौसम है, है न?" नीचे-ऊपर देखती हुई। कुमार ने भी नीचे-ऊपर देखा और कहा, "हाँ, आकाश और पृथ्वी दोनों का पेट भरा हुआ है, इसलिए हँस रहे हैं।" चलती हुई कमल बोली, "आप लिखें तो सैटायर बहुत अच्छा लिख सकते हैं; आपको किसके
सैटायर पसंद हैं-ड्राइडन के?" "बहुत हैं," गंभीर शिक्षक के कंठ से कुमार ने कहा, "आजकल तो ब्यूटी सैटायर की
ही हो रही है। शा की सारी बिट सैटायर में लगी है। तुम्हारी बँगला में इसके कई अच्छे लेखक हैं; रविबाबू के सैटायर तो बड़े ही साफ उतरते हैं।" "आप बँगला-साहित्य की भी जानकारी रखते हैं!" चकित होकर कमल ने पूछा।
"हाँ, मैं वहीं इतना बड़ा हुआ। शिक्षा भी वहीं पाई, ग्रेजुएट मैं वहीं-कलकत्ते का हूँ। बँगला मेरी वर्नाक्यूलर थी। मैंने कुछ अच्छी ही तरह बँगला-साहित्य पढ़ा है।" शिष्टाचारपूर्वक मन्दोच्चारित शब्दों में कहा। अपनी एक खास कल्पना पर जोर देती हुई उल्लसित होकर कमल ने पूछा, "आप बँगला गाते भी होंगे?"
"हाँ," सोचकर खुश करने के अभिप्राय से कुमार ने कहा, "पर गाना तो तुम लोगों का है, यानी स्वर जिन्हें स्वर्गीय दान के तौर पर बारीक मिला हुआ है, पुरुषों का गाना तो...बात यह है कि ईश्वर ने स्त्रियों के कंठ में वीणा बाँधकर उन्हें
पृथ्वी पर उतारा है और पुरुषों के गले में हंडी।" "आप शायद कहें-डूब मरने के लिए?" तिर्यक दृष्टि से कुमार को देखती हुई कमल ने चोट की। "नहीं, स्त्रियों की तारीफ करने के लिए।" गंभीर होकर कुमार ने कहा।
कमल लज्जित हो गई। कुमार ने पूछा, "तुम तो गाती होगी, कमल? मुझे भी अपना गाना सुनाओ एक दिन।"
"अच्छा, लौटकर आज हमारे यहाँ खाना खाइए। आपको खाने में परहेज जरूर न होगा?"
दोनों बातें करते हुए जा रहे थे। रास्ते में कुछ बंगाली खड़े थे। दो-एक कमल को जानते थे। यों उसके पहनावे और चाल-ढाल से जाहिर था कि वह ब्रह्मसमाज की है, बंगाली हिंदू-समाज के थे। कुमार के साथ कमल को देखकर मुस्कुराए और आपस में
बातें करने लगे, जैसे सुनाकर, "कोई कौम छोड़ेंगी नहीं ब्रह्मसमाजी छोकरियाँ।"
"छः महीने हुए, एक ने रावलपिण्डी के सिक्ख से शादी की।"
"हाँ, हाँ, शादी के दूसरे दिन, ऐसा मंत्र फूंका कि उसने बाल-वाल सब कटा दिए और बंगाली ढंग से धोती पहनकर निकला।"
"अब देखो, काबुल और ईरान पहुँचती हैं।"
दोनों सुनते हुए निकल गए। कुमार गंभीर, कमल मुस्कुराती हुई। बढ़कर कमल ने पूछा, "आपकी समझ में आया कुछ?"
- "हाँ, क्योंकि मैं काबुली या ईरानी नहीं हूँ; पर नहीं समझ में आता कि ब्रह्मसमाज का यह विश्वप्रेम काबुली और ईरानियों को कैसे समझाएगी तरुणियाँ।"
कमल लज्जित पग चलती गई। सोचकर कहा, "यहाँ आपका अनुमान भी काम नहीं करता। कहते हैं, कवि लोग कल्पना में समझ लेते हैं सारी बातें। आप कवि होने की कोशिश कीजिए।" ।
"तुम समझी नहीं। मैं कहता हूँ कि कवि होकर मैं जैसे समझ गया; पर तरुणियों का मतलब समझनेवाले ये अफगानी और ईरानी भी कवि होते हैं?"
कमल को जैसे भरपूर किसी ने गुदगुदा दिया। प्रसन्न हँसकर बोली, "आपने थिएटर में पार्ट भी किया है, जान पड़ता है। कम-से-कम कॉलेज में ड्रामा जरूर खेले होंगे।"
"ड्रामा भी खेले और सजीव एक्टिग भी दिखाई, तुम देख चुकी हो। ईश्वर की कृपा पहले से मुझ पर ऐसी है कि जितने कदम उठाए, सब पीछे की ओर शुमार किए गए।"
कमल समझी। हृदय में दुख की छाप पड़ते ही बात बदल दी; कहा, "आप ईरानियों की कविता समझने की बात कर रहे थे? आप यह तो जानते हैं कि पेड़ों की भाषा और मेघमाला की भाषा भिन्न है; पर पेड़ों की प्यास, उनका आकर्षण मेघमाला समझती है और आर्द्र होकर उन पर स्नेह-सिक्त धारा बरसाती है। मरुभूमि के लिए उसका यह नियम नहीं।"
"हाँ, मैं समझा; पर यह जरूर कहूँगा कि काबुली-हृदय की प्यास बुझानेवाली कल्पना में काव्य-रस अधिक है।" ।
"वे गँवार हैं। हम लोगों को बनाया करते हैं। ब्रह्मसमाज का मुकाबला करें, देर है। आज भारत के सर्वश्रेष्ठ पुरुष, हर विषय के सर्वोत्कृष्ट योग्य..." बीच में बात काटकर कमल को उत्तेजित जान, कुमार ने कहा, "इसमें क्या शक है!
काव्य, विज्ञान, दर्शन, इतिहास, राजनीति-यहाँ तक कि संपादकत्व में भी ब्रह्मसमाज सबसे आगे हैं।" मन में कहा, 'इसी तरह प्रेम में भी बढ़ गया, तो क्या बुरा हुआ?' खुलकर कहा, "यह मेरा घर है।"
कमल बोली, "आपका घर देलूँगी। आपकी माँ हैं, मिलूँगी उनसे, आइए," कहकर जीने से खटाखट चढ़ती हुई गई। पीछे-पीछे कुमार, दो मंजिल पर गई। निरू जलपान कर बैठी थी।
देवी सावित्री, कुमार आ रहा है, जानकर बैठी रहीं। निरू को देखकर एकाएक खुशी से उद्वेलित हो, "अच्छा, तुम भी हो," कहकर, मंदस्मित हाथ जोड़कर सावित्री देवी को नमस्कार किया। कुमार के पढ़ाने की खबर सावित्री देवी को मालूम हो चुकी थी।
उठकर अपनी कुर्सी पर कमल को बैठाया। कुमार भी आ गया। परिचय करा दिया। पर कुमार के गले में उसका साधारण स्वर न था। सावित्री देवी ने एक बार निरू को देखा। उसे निष्पलक अपूर्व भाव से कुमार को देखते हुए देखकर रामचंद्र को आवाज दी।
रामचंद्र नीली के साथ छत पर खेलता हुआ बातें कर रहा था। माँ से दूसरे कमरे से कुर्सी ले आने की आज्ञा सुनकर उतर आया और कुर्सी लेने गया। कुर्सी पर कुमार को बैठने के लिए कहकर सावित्री देवी पलँग पर निरू के एक बगल में बैठ गईं। नीली भी उतर आई और रामचंद्र के साथ बाहरवाले बरामदे से देखने लगी।
"माँ, इन्हें ही पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया हूँ। श्रीकमल सुषमा चटर्जी इनका नाम है।" आदर के स्वरों में कुमार ने माँ से कमल को परिचित किया।
कमल की बिलकुल खुली हुई, निस्रास, हवा-हवा पर उड़ती हुई जलभारानत मेघमालावली प्रकृति के सामने सावित्री देवी एक अज्ञात दबाव से जैसे संकुचित हो गईं। उनके गृहस्थ जीवन में वैसी प्रकृति का परिचय न हुआ था। उनकी परिचित बंगाली समाज की महिलाओं का गृह की सीमा में ही कुशल, क्षिप्र, शिक्षित और उन्नत रूप था। ब्रह्मसमाज का नाम वे सुन चुकी थीं, और दूसरी बंगाली महिलाओं की तरह शिष्ट भाव से उन्हें ब्रह्मज्ञानी कहती थीं। उनके मन में निरू शिक्षित लड़कियों की चरम
विकसित रूप थी। बिलकुल मेम या मिस का स्वभाव उनकी प्रकृति पर एक अज्ञात दबाव छोड़ता था, जैसे उनकी संस्कृति की वह रूप-रेखा नारी-स्वभाव के प्रतिकूल मालूम देती हो! अपने में समाई हुई मधुर क्षीण स्वर से बोली, "मैंने अनुमान कर लिया था।"
क्षणमात्र देर किए बिना, जैसे पहले से घनिष्ठ परिचय रहा हो, ऐसे स्वर से कमल ने पूछा, "इससे आपका कैसा परिचय है?"
"ये मेरी मालकिन हैं।" सावित्री देवी मधुर मुस्कुराईं। इससे कमल की शंका निवृत्त न हुई। वैसे ही खुली आवाज में पूछा, "आपके मकान का किराया वसूल करनेवाली?"
निरू जल उठी, पर बैठी रही। कुमार की माँ को देखती आँखें मुस्कुरा दीं।
"नहीं," सावित्री देवी ने कहा, "हमारे गाँव की जमींदार। पहले इनके पिता थे, अब ये हैं," कहकर स्नेह से निरू को देखने लगीं।
कुमारी-गाम्भीर्य की स्वर्गीय महत्ता से निरू मौन थी। रह-रहकर एक विशेष भाव से कुमार को देख लेती थी।
बहुत-सी बातें कुमार के मन में उठीं; पर दम साधे बैठा रहा। निरू ज्यों-ज्यों गंभीर हो रही थी, कुमार चंचल । जब से आया, सम्वर्धना का शब्द नहीं निकला, सोचकर, त्रुटि से बचने के लिए, बहुत कुछ अपने को सँभालकर कहा, "बड़ी कृपा हुई जो यहाँ आने का कष्ट स्वीकार हुआ आपको," कहकर मन में सोचा, जैसे त्रुटि हो गई।
निरू कुछ न बोली। सावित्री देवी कमल की अभ्यर्थना के विचार से उठकर दूसरे कमरे की ओर मन में एक निश्चय से प्रसन्न होकर चलीं कि कमल ने निरू से कहा, "तुम तो ऐसी मौन हो जैसे ससुराल आई हो।"
"इन्हें पश्चात्ताप है," कुमार ने कहा। कमल एकाग्रता से कुमार को देखने लगी।
कुमार कहता गया, "एक रात बगैर पहचाने मुझे 'गोरू' कह दिया था।"
कमल खिलखिलाकर हँस दी। कुमार कहता गया, "कुछ चिढ़ गई थीं, हालाँकि कसूर मेरा न था। जैसाकि मैंने
अभी-अभी कहा है, उसी स्वर से गा रहा था। लिहाजा गाने में एक हक मेरा था। बाद को ये गाने लगीं। इनके मधुर स्वर के आगे मुझे अपना स्वर भूल गया। रास्ता भूला राही जैसा मैं इनके अगियाबैताली स्वर के पीछे-पीछे चला।"
निरू पहले की तरह चुपचाप प्रतिमा-सी बैठी रही। कमल जानती थी कि निरू अच्छा नहीं गाती। समझी, यह उस पर मजाक है। खुशी से भरी हुई, पूछा, "फिर?'
"फिर ये अपने सत्य रूप से प्रकट हुईं और मुझे रास्ता बता दिया।" इसी समय तश्तरी में जलपान सजाकर सावित्री देवी आईं और कमल की बगल में खड़ी हुईं। उनके पूछने से पहले ही वह ढंग देखकर जलपान उसी के लिए लाया गया है, समझकर कमल ने कहा, "मैं इस वक्त जलपान नहीं करूँगी, आप ले जाइए।"
सावित्री देवी लौट गईं। मलिकवा की माँ पान ले आई। "मैं पान नहीं खाती," कहकर कमल ने एक इलायची उठा ली, फिर निरू से सस्नेह, उसी सखी भाव से कहा, "हम लोग टहलने निकले हैं, लौटकर मेरे घर चलो, डॉक्टर साहब गाना सुनेंगे।" कमल ने स्वर से समझा दिया कि मैं भी गाऊँगी। अगर उस दिन कोई कसर रह गई हो, तो पूरी कर लेना। पर निरू ने निमंत्रण स्वीकार न किया। मन में एक अशांति एकाएक पैदा हो गई थी। बहुत सँभलकर, जैसे कहीं से भी न खुले, कहा, "नहीं, कमल, मुझे फुर्सत न होगी।' नीली एकटक, खड़ी हुई, कमल को देख रही थी। कुमार के लौटने पर निरू का हाल कहने का विचार कर सावित्री देवी कमरे में आईं कि निरू उठी और हाथ जोड़कर प्रणाम किया। कुमार और निरू के संबंध का स्वल्पमात्र कारण सावित्री देवी को जितना दृढ़ बाँध सकता था, बाँध चुका था; इसलिए निरू के प्रति उनकी वैसी स्नेहधाराउसके दर्शन मात्र से प्रवाहित हो चलती थी। हाथ पकड़कर "हमें फिर तुम्हें जल्द देखने की प्रतीक्षा रहेगी," कहकर साथ-साथ नीचे उतरीं। नीली एक दफा कमल को असह्य दृष्टि से घूरकर बहन के साथ हो ली।
कमल इस वैषम्य का जैसे कोई कारण न समझ पाई, ऐसी दृष्टि से निरू की ओर देखती रही। कुमार चुपचाप बैठा रहा, जैसे यह सब अंधकार हो, इसके भीतर दृष्टि साफ हो ही नहीं सकती, समझ रहा हो। सावित्री देवी के लौटने पर शिष्टाचार के विचार से कुछ देर तक बैठी साधारण बातचीत कर, रामचंद्र की ठोढ़ी हिलाकर कुमार को लेकर कमल घर लौटी।