गोरखपुर में बीजेपी की हार के बाद अब तक दो दर्जन निष्कर्ष सामने आ चुके हैं. कोई इसे बीजेपी की हार बता रहा है तो कोई योगी की व्यक्तिगत हार. जाहिर है कि बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने भी योगी आदित्यनाथ से इस हार के बारे में तलब किया होगा. ऐसा सुनने में आया है कि योगी ने संगठन को हार की सफाई देते हुए कहा कि गोरखपुर में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. इससे पहले भी एक मुख्यमंत्री गोरखपुर में उप-चुनाव हार चुके हैं. तो आखिर योगी किस मुख्यमंत्री का हवाला दे रहे थे?
1969 के राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस के भीतर की फूट सतह पर आ गई थी. आजादी के बाद कांग्रेस में ये दूसरी फूट थी और कांग्रेस दो टुकड़ों में बंट गई. पहला कांग्रेस (संगठन) और दूसरा कांग्रेस (आर). इंदिरा गांधी कांग्रेस (आर) का नेतृत्व कर रही थीं.
1969 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी हुए थे. कांग्रेस को 425 सीटों वाली विधानसभा में 211 सीटें हासिल हुई थीं और चंद्रभानु गुप्त मुख्यमंत्री बने थे. 1969 में कांग्रेस के टूटने के बाद चंद्रभानु गुप्त कांग्रेस (संगठन) में शामिल हो गए. सूबे में कांग्रेस अल्पमत में आ गई.
इस चुनाव में चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय क्रांति दल दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी. उसके पास 98 सीटें थीं. इधर कांग्रेस (आर) की कमान कमलापति त्रिपाठी के पास थी. कमलापति ने चौधरी को समर्थन दे दिया. चौधरी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. लेकिन दोनों में सात महीने में अनबन हो गई और कमलापति त्रिपाठी ने समर्थन खींच लिया. चौधरी चरण सिंह चाहते थे कि सूबे में चुनाव हो जाएं, लेकिन राज्यपाल बैजवाडा गोपाला रेड्डी ने विधानसभा भंग करने से इनकार कर दिया.
रेड्डी नेहरू मंत्रिमंडल में दो दफा मंत्री रह चुके थे. 1963 में कामराज प्लान के तहत इस्तीफ़ा देना पड़ा. नेहरू के करीबी माने जाते थे. 1967 में इंदिरा के दौर में उनका राजनीति क पुनर्वास हुआ और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बनाए गए.
चरण सिंह के इस्तीफे के बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया. इस दौरान तमाम तरह के गठजोड़ चलते रहे. यह बदली हुई परिस्थितयां चंदौली के गांधीवादी नेता त्रिभुवन नारायण सिंह के लिए मौक़ा बनकर आईं. वो 1952 और 1957 के चुनाव में चंदौली से सांसद चुने गए थे. 1957 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने मशहूर समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया को पटखनी दी थी. 1962 का चुनाव वो 3240 के करीबी अंतर से हार गए और इस तरह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के निहाल ने पांच साल बाद लोहिया की हार का बदला ले लिया. लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया.
1970 का अक्टूबर उत्तर प्रदेश की सियासत में उठापटक भरा रहा. 1 अक्टूबर को राष्ट्रपति शासन लगने के साथ ही बैकडोर से गठबंधन की कवायद तेज हो गई. कांग्रेस (संगठन), भारतीय क्रांति दल, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी ने मिलकर नया मोर्चा बनाया, ‘संयुक्त विकास दल’. 18 अक्टूबर 1970 के रोज टीएन सिंह को मुख्यमंत्री की शपथ दिलवाई गई.
कानूनी पचड़ा
टीएन सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी नियुक्ति कानूनी पचड़े में पड़ गई. झांसी से आने वाले जनसंघ के राम प्रकाश गुप्ता ने उनकी नियुक्ति को अवैध बताते हुए अदालत में पेटीशन डाल दी. मसला यह था कि मुख्यमंत्री बनने के समय टीएन सिंह राज्य के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे.
1971 में इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संसदीय बेंच का फैसला आया. इसमें संविधान की धारा 164 (4) का हवाला देते हुए कहा गया कि किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री को पद की शपथ लेने के छह महीने में सदन का सदस्य बनना जरूरी है. राम प्रकाश गुप्त का दावा था कि यह कानून सिर्फ मंत्रियों को ऐसी छूट देता है. सुप्रीम कोर्ट ने उनके इस दावे को ख़ारिज कर दिया.
मार्च 1971. टीएन सिंह को मुख्यमंत्री बने हुए 5 महीने हो गए थे. लिहाजा चुनाव अनिवार्य हो गए थे. इधर गोरखपुर में महंत दिग्विजयनाथ की मौत के बाद वहां की लोकसभा सीट खाली हो गई थी. उनकी राजनीतिक विरासत महंत अवैद्यनाथ के कंधों पर आ गई. 1970 में हुए उप-चुनाव में वो यहां से सांसद बन गए. महंत अवैद्यनाथ सांसद बनने से पहले मणिराम विधानसभा सीट से विधायक थे. गोरखनाथ मठ भी इसी इलाके में पड़ता है. 1971 में मणिराम सीट खाली थी. टीएन सिंह का विधायक चुना जाना जरूरी था और मठ उन्हें समर्थन दे रहा था. ऐसे में उन्होंने पर्चा भर दिया.
शर्म को ताक पर रखकर जब इंदिरा प्रचार करने पहुंची
टीएन सिंह आजादी से पहले कांग्रेस से जुड़े हुए थे. आजादी के बाद उन्होंने यह देखा था कि नेहरु चुनाव प्रचार के लिए नहीं जाते हैं. वो भी सूबे के मुख्यमंत्री थे. लिहाजा इतना कायदा तो उन्हें भी रखना चाहिए. वो अपने ही चुनाव में प्रचार के लिए नहीं गए.
इधर इंदिरा कांग्रेस (ओ) से खार खाए बैठीं थीं. इस चुनाव के कुछ ही सप्ताह बाद देश में लोकसभा चुनाव होने जा रहे थे. इस चुनाव का नतीजा आने वाले वाले लोकसभा चुनाव पर असर डालने वाला था. उन्होंने शर्म को किनारे रखा और मणिराम सीट पर कांग्रेस का प्रचार करने पहुंच गईं.
पत्रकारों की लड़ाई
कांग्रेस ने मणिराम सीट से रामकृष्ण द्विवेदी को मैदान में उतारा. वो सियासत में आने से पहले दैनिक समाचार पत्र अमर उजाला में काम किया करते थे. इधर टीएन सिंह भी किसी दौर में इंदिरा के पिता जवाहर लाल नेहरू के शुरू किए अखबार नेशनल हेराल्ड में चीफ सब-एडिटर हुआ करते थे. चुनाव में इंदिरा ने रामकृष्ण द्विवेदी के पक्ष में जमकर प्रचार किया. नतीजा यह हुआ कि रामकृष्ण द्विवेदी को सूबे के मुख्यमंत्री से दोगुने वोट हासिल हुए. इस चुनाव में रामकृष्ण द्विवेदी को मिले 33,230 वोट. वहीं टीएन सिंह का स्कोर महज 17,137 पर सिमट गया. सिंह मठ के भरोसे प्रचार करने नहीं गए थे. उनकी हार के साथ मठ की भी बहुत किरकिरी हुई.
जिस समय मणिराम उप-चुनाव के नतीजे घोषित हुए, उस समय उत्तर प्रदेश विधानसभा का सत्र भी चल रहा था. राज्यपाल का अभिभाषण हो चुका था और उस पर बहस जारी थी. इसी समय टीएन सिंह को सदन में आकर यह जानकारी दी गई कि वो चुनाव हार गए हैं और उन्हें इस्तीफ़ा देना होगा. इस तरह इंदिरा का प्रचार एक पॉलिटिकल मास्टर स्ट्रोक साबित हुआ. उनके इस्तीफ़ा देने के बाद कमलापति त्रिपाठी सूबे के नए मुख्यमंत्री बनाए गए. सत्ता फिर से कांग्रेस (आर) के हाथ में आ गई.