*सनातन धर्म इतना दिव्य एवं महान है कि इसकी प्रत्येक मान्यताएं अपने आप में अलौकिक हैं | जिस प्रकार सनातन की प्रत्येक मान्यता समस्त मानव जाति के लिए कल्याणकारी है उसी प्रकार सनातन धर्म में व्यक्ति की पहचान कराने के लिए गोत्र की व्यवस्था बनाई गई थी | सनातन धर्म में गोत्र का बहुत बड़ा महत्व है | वैसे तो गोत्र का अर्थ लोग कुल - परंपरा से लगाते हैं परंतु यदि इसका यथोचित अर्थ ढूंढा जाए तो गो अर्थात इंद्रियां एवं त्र अर्थात रक्षा करना | जिसका मूल अर्थ हुआ इंद्रिय आघात से रक्षा करने वाला | इंद्रिय आघात से रक्षा करने वाले कौन थे ? यदि इस पर विचार किया जाए तो हमारे ऋषियों की ओर ध्यान स्वयं चला जाता है | हमारे ऋषियों ने मनुष्य को अपनी इंद्रियों को वश में करने का ज्ञान दिया उन्हीं ऋषियों के नाम से मनुष्य का गोत्र चला | गोत्र गोत्र के विषय में लिखते हुए महर्षि पाणिनि ने बताया है :- " अपात्यम् पौत्रप्रभ्रति गोत्रम्" अर्थात :- पुत्र के पुत्र के साथ प्रारम्भ होने वाली (एक ऋषि की ) संतान ! सनातन के मानने वाले आदिकाल से अपने पूर्वजों के मध्य मूलपुरुष को अपना गोत्रपुरुष मानकर उन्हीं के नाम से स्वयं की पहचान स्थापित किये हुए हैं | वैसे तो सनातन धर्म में मूल रूप से प्रारम्भिक आठ गोत्र बताये जाते हैं परंतु समय के साथ गोत्रों की संख्या में भी वृद्धि हुई है | अनेक गोत्र होने के बाद भी सबकी मान्यतायें प्राय: समान ही हैं | गोत्र परम्परा में जिसे अपने गोत्र का ज्ञान न हो वह कश्यप गोत्र का कहा जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि महर्षि कश्यप की तेरह पत्नियों से ही समस्त जड़ - चेतन की उत्पत्ति हुई है | इसलिए समस्त प्रजा (मानवजाति) को कश्यप जी से ही जोड़ लिया जाता है | "हेमाद्रि चन्द्रिका" में स्पष्ट इसका वर्णन प्राप्त होता है :-- "गोत्रस्य त्वपरिज्ञाने काश्यपयं गोत्रमुच्यते ! यस्मादाह श्रुतिस्सर्वा: प्रजा: काश्यपसंभवा: !!" अर्थात :- यह सम्पूर्ण प्रजा कश्यप जी की ही है अत: जिन्हें अपने मूल गोत्र का ज्ञान न हो उसे कश्यपगोत्रीय माना जाता है | गोत्र परम्परा में सबसे महत्वपूर्ण विषय है विवाह | विवाह के माध्यम से मनुष्य सन्तानोत्पत्ति करके ब्रह्मा जी की मैथुनी सृष्टि में सहयोग करता है | परंतु आने वाली संतान को रक्तविकार एवं अंगभंग होने से बचाने के लिए एकगोत्रीय विवाह को वर्जित माना गया है | इसका निर्वहन आदिकाल से होता चला आया है | प्रत्येक मनुष्य को अपने गोत्र का ज्ञान अवश्य होना चाहिए | हम क्या हैं ? हमारे वंश का मूल का क्या है यह जानना परमावश्यक है क्योंकि जो स्वयं के विषय में नहीं जान पाता वह संसार के विषय में क्या जानेगा ?*
*आज समस्त विश्व प्रगतिपथ पर निरन्तर अग्रसर है , मनुष्य नित्य नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा है परंतु इसके साथ ही वह अपनी मूल सनातन संस्कृति से दूर भी होता चला जा रहा है | आज ऐसे लोग बहुतायत संख्या में मिल जायेंगे जिन्हें अपने गोत्र का ज्ञान ही नहीं है | समाज को ज्ञान प्रदान करने वाला ब्राह्मण को माना गया है परंतु आज ब्राह्मणों की अधिकांश युवापीढ़ी भी अपने गोत्र को विस्मरण करती चली जा रही है | जैसा कि यह समय समय पर स्थापित एवं प्रमाणित होता रहा है कि सनातन की प्रत्येक मान्यता में वैज्ञानिकता का पुट रहता है उसी प्रकार विवाह सम्बन्धों में सनातन की मान्यता को आज विज्ञान भी सहमति दे रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज समाज के बिगड़ते स्वरूप द का एक कारण वैवाहिक सम्बन्ध को भी मानता हूँ | क्योंकि जहाँ हमारे पूर्वजों ने एकगोत्रीय संतान को भाई - बहन मानकर आपस में वैवाहिक सम्बन्ध न बनाने का संदेश दिया था वहीं आज लोग इस विषय पर विचार किये बिना ही वैवाहिक सम्बन्ध बना रहे हैं | यही कारण है कि आज समाज में ऐसी संतानें हो रही हैं जो जन्म से ही अनेक प्रकार के रोगों से ग्रसित होती हैं | आज लोगों ने उच्चस्तरीय शिक्षा प्राप्त करते समस्त विश्व , इतिहास - भूगोल एवं भूगर्भीय विषयों का ज्ञानी तो हो गया है परंतु यह चिंतनीय एवं विचारणीय है कि इतना सबकुछ जानने वाला स्वयं के विषय में ही नहीं जानता | स्वयं की धुन में मस्त आज का मनुष्य स्वयं के मूल को न तो जान पा रहा है और न ही जानने का प्रयास ही कर रहा है | यही कारण है कि आज मनुष्य अपने कुल परम्परा के विपरीत कर्म कर रहा है , क्योंकि उसे अपने कुल / गोत्र के दिव्य इतिहास का ज्ञान ही नहीं है | जहाँ गुरुकुल शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी को उसको गोत्र का ज्ञान कराया जाता था वहीं आज की शिक्षा केवल व्यवसायिक रह गयी है इसीलिए आने वाली पीढ़ी इन विषयों से दूर होती चली जा रही है | आवश्यकता है अपने मूलरूप की ओर लौटने की |*
*जिस मनुष्य को अपने कुल गोत्र का ज्ञान न हो वह अनेकों प्रकार की विद्या एवं ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भी मूढ़ की ही श्रेणी में गिना जा सकता है |*