साउथ अफ्रीका के साथ एक दिवसीय मैच चल रहा था. भारत को जीतने के लिए दो रन चाहिए थे पर अंपायर ने 45 मिनट का लंच ब्रेक कर दिया. लंच ब्रेक के बाद जब खिलाड़ी वापिस आए तब तक अधिकाँश दर्शक जा चुके थे. भारत ने दो रन बना कर मैच जीत लिया और किस्सा खत्म हो गया. इस किस्से पर वीरेंदर सहवाग ने एक ट्वीट किया:
Umpires treating Indian batsmen like PSU Bank treat customers. Lunch ke baad aana #INDvSA2:25 AM - 4 Feb 2018
अंपायर के लंच डिक्लेअर करने को सरकारी बैंक से मिला कर ट्वीट करना अजीब सा लगा. किरकिट हो या बैंक सबके अपने अपने नियम हैं. खेल या दफ्तर कितने बजे शुरू होगा, कब लंच होगा और कब कार्यकाल समाप्त होगा ये सब संस्था की काली किताब में लिख दिया जाता है और उसी पर कारवाई होती है. अब दो रन बचे हों तो लंच ना किया जाए या फिर काली किताब के कानून पर चला जाए ? इसका फैसला अंपायर ही तो करेगा ? और अगर अंपायर लंच करने को कहता है तो वैसा ही होगा. और इसका अर्थ होगा कि अंपायर ने नियम का पालन किया. पर इस लंच ब्रेक पर बात पर ज्यादातर टिप्पणियाँ ऐसी ही हुई -
- Is not this funny?
- क्या मज़ाक किया अंपायर ने!
- दो रन के लिए 45 मिनट का ब्रेक - पागल ?
अब अपने यहाँ तो नियम कानून का पालन करना कम ही प्रचलित है. उसके बजाए नियम का ना पालन करना, खिल्ली उड़ाना या फिर फिर कटाक्ष करना आम बात है. तो अगर नजफगढ़ के नवाब ने भी अंपायर की खिल्ली उड़ाई तो कोई नई बात नहीं है. बस साथ में सरकारी बैंक भी घसीट लिए ये घटिया बात की. दोनों में क्या संबंध था? कही खेत की और सुनी खलिहान की!
अपनी 39 साल की सर्विस में ऐसा मौका नहीं आया कि दो बजे तक कस्टमर अंदर आ गया हो और उसका काम ना हुआ हो. और अब तो दो बजे वाला ब्रेक ही ख़तम हो गया. पता नहीं सहवाग को कैसे प्रोब्लम हुई. और अगर अंपायर ने या बैंकर्स ने समय से जीम लिया तो कोई हर्ज भी ना है भाई. ये बात जरूर समझ में आती है की सरकारी बैंक पंजाब नेशनल बैंक ने विराट कोहली को अपना ट्रेड मार्क राजदूत बना दिया और सहवाग को नहीं! वरना सहवाग के खाते में चार पांच करोड़ आ जाने थे. कहीं ये कारण तो नहीं था खिल्ली उड़ाने का ? जहां तक याद आता है राहुल द्रविड़ भी किसी सरकारी बैंक के ट्रेड मार्क राजदूत बने हुए थे.
सरकारी बैंकों पर तंज कसने वालों में प्रधान मंत्री मोदी भी हैं. जनवरी 2015 में बैंकर्स का ' ज्ञान संगम' हुआ जिसमें प्र. मं. ने कहा - लेज़ी बैंकर्स! अखबार में कुछ यूँ छपा था -
क्या सोच कर प्र. मं. ने बैंकर्स को आलसी बताया समझ नहीं आया. वैसे हर सरकारी पैसे खर्च करने वाली प्लान सरकारी बैंकों के माध्यम से ही होती है. इसके अलावा चाहे ज़ीरो बैलेंस के खाते हों, सब्सिडी बंटनी हो, टैक्स जमा करने हों या फिर पेंशन देनी हो सरकारी बैंकों के माध्यम से ही होता है. बैंक में किसी कर्मचारी या अधिकारी को कभी सोते नहीं देखा जबकि इसका उलट जरूर देखा है. मतलब की जिन दिनों क्लोजिंग हो या ऑडिट हो या बैलेंस शीट बननी हो बैंकर्स को 10-11 बजे रात तक काम करते देखा है. और सब छोड़िये सर जी नोटबंदी में ही देखा होगा बैंकर्स की क्या हालत हुई थी. पर साब अपनी शिकायत के अफ़साने को किसे सुनाएं . इसे यहीं ख़त्म करते हैं किसी अज्ञात शायर के लफ़्ज़ों के साथ:
एक उम्र से यही रवायत रही है,
कुसूरवारों को बेकसूरों से शिकायत रही है !