आन्ध्र प्रदेश के शहर विजयवाड़ा के प्रसाद जब इंजिनियर बन गए तो उन्होंने नौकरी ढूंढनी शुरू कर दी. इराक़ की एक तेल कंपनी में नौकरी मिल गई. दो साल बाद छलांग मार कर 2016 में कज़ाख़स्तान की तेल कंपनी में नई नौकरी करने पहुँच गए. वहां प्रसाद को मिस शाखिस्ता मिली. दोनों में प्यार हो गया. दोनों के माता पिता ने भी मंज़ूरी दे दी. अगस्त 18 में विजयवाड़ा में शादी हो गई. देसी लड़का और परदेसी लड़की की शादी में पत्रकार भी पहुँच गए. 27 अगस्त के The Hindu में फोटो भी छप गई. एक पत्रकार ने प्रसाद से पूछा कि परदेसी लड़की कैसे पसंद कर ली तो जवाब में प्रसाद ने कहा,
आप फोटो देख लें देसी दूल्हा और परदेसी दुल्हन दोनों खुश नज़र आ रहे हैं. दोनों को हमारा आशीर्वाद.
लम्बे बाल या छोटे बाल ये तो अपनी व्यक्तिगत पसंद है. कहा है ना,
पसंद अपनी अपनी ख़याल अपना अपना,
सवाल अपना अपना जवाब अपना अपना !
हमारे जैसे पेंशनर के लिए तो बालों का महत्व समाप्त हो गया है. पर कुंवारों के लिए लगता है कि लम्बे बालों या ज़ुल्फों का आकर्षण बड़ा जबरदस्त है. कुंवारों के अलावा कवियों और शायरों को तो लम्बी काली ज़ुल्फें दिख भर जाएं तो बस तुरंत शायरी शुरू हो जाती है. काली ज़ुल्फ़ों को काले बादलों या काली घटाओं से कम नहीं मानते. और कुछ शायर ज़ुल्फों को ढलती शाम, अँधेरी रात, मकड़ जाल और ज़ंजीर जैसा भी मानते हैं. जुल्फों की ये कल्पना तो कमाल की है -
"बाल उसने जब सँवारे, लोटे दिल पर सांप हमारे" !
पता नहीं शायर ने डर की वजह से ऐसा लिख दिया हो ?
इस बात के प्रमाण नहीं मिलते की लैला की ज़ुल्फ़ें कितनी लम्बी थी पर ये तो बात पक्की है की उन दिनों लैला ने ना तो बाल कटवाए होंगे ना ही कोई कलर लगाया होगा. हाँ ज़ुल्फ़ों में कोई ना कोई तेल जरूर लगाया होगा. उधर मजनूं अपनी लैला से मिलने निकल पड़ा था. गर्म रेगिस्तान में बिना मेट्रो या टैक्सी के सफ़र करता करता थक गया होगा. तो ऐसे में अगर मजनूं अपनी लैला की जुल्फों के साए में ठंडक पाना चाहे तो क्या बुरा है -
"तुम्हारी ज़ुल्फ़ के साए में शाम कर लूँगा, सफ़र इस उम्र का पल में तमाम कर लूँगा" !
लैला की ज़ुल्फ़ में मजनूं को थोड़ी बहुत ए सी जैसी ठंडक भी मिली होगी और सफ़र भी फ़ास्ट हो गया होगा. है ना कमाल की चीज़ है ये ज़ुल्फ़ !
रेगिस्तान में मजनूं और लैला दोनों के लिए पानी की कमी थी वरना मजनूं लैला को कुछ यूँ कहता -
"ना झटको ज़ुल्फ़ से पानी ये मोती टूट जाएंगे" !
कहने का असली मतलब तो मजनूं की सलाह थी की पानी ज्यादा से ज्यादा देर ज़ुल्फ़ों में रोक ले लैला, ठंडक मिलेगी और ठंडक देर तक रहेगी. इस नगर निगम की सप्लाई का भरोसा नहीं है कब पानी आए कब ना आए. ज़माना खराब है आजकल.
ज़माना तो कमबख्त खराब ही रहा है. कहाँ मिलने देता है लैला मजनूं को ? मजनूंओं को तो पत्थर मारने पर तुले रहते हैं. समाज की डांट फटकार और पत्थर खाकर भी मजनूं को फिर जुल्फें ही याद आती हैं -
"तेरी ज़ुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं माँगी थी, कैद मांगी थी रिहाई तो नहीं माँगी थी" !
पर सभी मजनुओं को चचा ग़ालिब की सलाह पर भी गौर कर लेना चाहिए. इशक में सब्र की ज़रुरत है जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. इश्क का मामला गंभीर मामला है कोई हंसी ठट्ठा नहीं है. चचा फरमाते हैं -
"आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक, कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक" !