विपासना मैडिटेशन के पांच दिन हो चुके थे और अब सुबह चार बजे उठने में कोई दिक्कत नहीं थी. अधिष्ठान में लगातार बिना हिले जुले बैठने में भी अभ्यस्त हो गए थे. वैसे भी तो ये बात कहते तो किससे कहते ? बोलती तो बंद थी पांच दिनों से ! देख लीजिये दुखड़े तो दुखड़े अपने छोटे मोटे सुखड़े भी किसी को बता नहीं पाए. इसलिए कुछ हद तक अपने अंदर के उबाल से छुटकारा हो गया. ये भी एक अनुभव था जिसका महत्व उस वक़्त समझ में नहीं आया पर अब विचार करने पर लगता है की अपनी कथा व्यथा सुनाने को मन कितना आतुर हो जाता है और मानसिक बैचेनी का कारण बनता है. जैसे कि 'मैं और मेरे साथ जो हुआ वो तो दुनिया से अलग है ! स्पेशल है !' जबकि ऐसा बहुत से लोगों के साथ होता ही रहता है.
पांच दिन गुजरने के बाद दूसरे साधकों पर ध्यान जाना भी घट गया था. कोई ऐसे कर रहा है या वैसे उस पर नज़र जानी स्वत: ही बंद हो गई. दूसरों को क्या देखें पहले खुद से तो निपट लें ! आचार्य जी ने दिन में एक एक घंटे की छूट भी दी कि या तो आप अपने कमरे में अभ्यास कर लें या फिर पगोडा में. अपने कमरे में किया तो बीच बीच में विघ्न पड़ा किसी बाहरी कारण से नहीं बल्कि अपने ही मन की हलचल से.
जहां तक पगोडा की बात है यह मंदिर नुमा बड़ा गोल हॉल था. इसमें किनारे किनारे गोलाई में शायद 30-40 छोटे छोटे कमरे या कक्ष या कोठरियां थीं. कोठरी इस लिए की इसमें आप या तो खड़े हो सकते थे या बैठ सकते थे परन्तु लेट नहीं सकते थे. सामने की दीवार में लगभग छे फुट की ऊँचाई पर एक गोलाकार रोशनदान था. अगर कक्ष के बीचो बीच फर्श पर आप बैठ जाएं तो दो फुट आगे, दो फुट बाएं और और दो फुट दाएं सफ़ेद दीवार और पीठ के दो फुट पीछे दरवाज़ा बंद. अटपटा सा लगा, घुटन सी महसूस हुई और लगा जेल में आ गए ! ठीक से ध्यान नहीं लगा. इस ध्यान कक्ष की पहली बैठक का अनुभव अलग ही रहा. बोलती बंद, आँख बंद, शरीर की हलचल बंद, तीन तरफ से दीवारें बंद और पीठ पीछे दरवाज़ा बंद याने * ? "x" @ # % $* ! उस वक़्त की भावनाओं के लिए शब्द कम पड़ गए ! पर अगले दिन जब उसी कक्ष में साधना की तो मन की स्थिति सामान्य रही.
छठे दिन और सातवें दिन एक बार फिर से पद्मासन लगा कर, कमर गर्दन सीधी रख कर और आँखें बंद करके शरीर में होने वाली संवेदनाओं पर ध्यान लगाना शुरू कर दिया. शुरू में तो स्थूल वेदनाएं ही समझ में आ रही थीं जिसमें से सबसे बड़ी तो थी घुटने का दर्द जो लगातार बैठने से हो रहा था. कन्धों में और रीढ़ का हड्डी में कुछ महसूस ही नहीं होता था. पर अभ्यास के बाद बारीक और सूक्ष्म संवेदनाएं भी पकड़ में आने लगीं. किसी किसी अंग में दबाव या खिंचाव पर भी ध्यान जाने लगा. छाती और फेफड़ों की हलकी सी हरकत भी पहचान में आने लगी. वो दोहा याद आ गया :
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान,
रसरी आवत जात के सिल पर परत निसान !
विपासना मैडिटेशन के पांच दिन हो चुके थे और अब सुबह चार बजे उठने में कोई दिक्कत नहीं थी. अधिष्ठान में लगातार बिना हिले जुले बैठने में भी अभ्यस्त हो गए थे. वैसे भी तो ये बात कहते तो किससे कहते ? बोलती तो बंद थी पांच दिनों से ! देख लीजिये दुखड़े तो दुखड़े अपने छोटे मोटे सुखड़े भी किसी को बता नहीं पाए. इसलिए कुछ हद तक अपने अंदर के उबाल से छुटकारा हो गया. ये भी एक अनुभव था जिसका महत्व उस वक़्त समझ में नहीं आया पर अब विचार करने पर लगता है की अपनी कथा व्यथा सुनाने को मन कितना आतुर हो जाता है और मानसिक बैचेनी का कारण बनता है. जैसे कि 'मैं और मेरे साथ जो हुआ वो तो दुनिया से अलग है ! स्पेशल है !' जबकि ऐसा बहुत से लोगों के साथ होता ही रहता है.
पांच दिन गुजरने के बाद दूसरे साधकों पर ध्यान जाना भी घट गया था. कोई ऐसे कर रहा है या वैसे उस पर नज़र जानी स्वत: ही बंद हो गई. दूसरों को क्या देखें पहले खुद से तो निपट लें ! आचार्य जी ने दिन में एक एक घंटे की छूट भी दी कि या तो आप अपने कमरे में अभ्यास कर लें या फिर पगोडा में. अपने कमरे में किया तो बीच बीच में विघ्न पड़ा किसी बाहरी कारण से नहीं बल्कि अपने ही मन की हलचल से.
जहां तक पगोडा की बात है यह मंदिर नुमा बड़ा गोल हॉल था. इसमें किनारे किनारे गोलाई में शायद 30-40 छोटे छोटे कमरे या कक्ष या कोठरियां थीं. कोठरी इस लिए की इसमें आप या तो खड़े हो सकते थे या बैठ सकते थे परन्तु लेट नहीं सकते थे. सामने की दीवार में लगभग छे फुट की ऊँचाई पर एक गोलाकार रोशनदान था. अगर कक्ष के बीचो बीच फर्श पर आप बैठ जाएं तो दो फुट आगे, दो फुट बाएं और और दो फुट दाएं सफ़ेद दीवार और पीठ के दो फुट पीछे दरवाज़ा बंद. अटपटा सा लगा, घुटन सी महसूस हुई और लगा जेल में आ गए ! ठीक से ध्यान नहीं लगा. इस ध्यान कक्ष की पहली बैठक का अनुभव अलग ही रहा. बोलती बंद, आँख बंद, शरीर की हलचल बंद, तीन तरफ से दीवारें बंद और पीठ पीछे दरवाज़ा बंद याने * ? "x" @ # % $* ! उस वक़्त की भावनाओं के लिए शब्द कम पड़ गए ! पर अगले दिन जब उसी कक्ष में साधना की तो मन की स्थिति सामान्य रही.
छठे दिन और सातवें दिन एक बार फिर से पद्मासन लगा कर, कमर गर्दन सीधी रख कर और आँखें बंद करके शरीर में होने वाली संवेदनाओं पर ध्यान लगाना शुरू कर दिया. शुरू में तो स्थूल वेदनाएं ही समझ में आ रही थीं जिसमें से सबसे बड़ी तो थी घुटने का दर्द जो लगातार बैठने से हो रहा था. कन्धों में और रीढ़ का हड्डी में कुछ महसूस ही नहीं होता था. पर अभ्यास के बाद बारीक और सूक्ष्म संवेदनाएं भी पकड़ में आने लगीं. किसी किसी अंग में दबाव या खिंचाव पर भी ध्यान जाने लगा. छाती और फेफड़ों की हलकी सी हरकत भी पहचान में आने लगी. वो दोहा याद आ गया :
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान,
रसरी आवत जात के सिल पर परत निसान !