दस मई 1857, रविवार मेरठ के फिरंगियों का विश्राम का दिन था। इनमें ज़्यादातर अंग्रेज़ कुछ पुर्तगाली कुछ डच और कुछ अन्य यूरोपियन थे। कुछ सदर में शॉपिंग कर रहे थे, कुछ चर्च में थे और कुछ घरों में। अचानक शोर शराबे के साथ काली पलटन के कुछ सिपाहियों और शहर निवासियों ने हमला बोल दिया। फिरंगियों के सँभलने से पहले उनमें बहुत से मार दिए गए और कुछ भाग गए। पूरे शहर और आसपास के गाँवों में विद्रोह फैल गया। शाम होते होते नारा बुलंद हो गया ' चलो दिल्ली'।
उन दिनों मेरठ छावनी में 2000 से ज्यादा अंग्रेज़ सिपाही और अफ़सरान थे जबकी लगभग 3000 लोकल यानी 'काली पलटन' के सिपाही थे। ये लोग तीसरी बंगाल लाइट कैविलरी में शामिल थे। कुछ महीनों पहले अंग्रेज़ों ने एनफील्ड नाम की एक नई राइफ़ल सिपाहियों में बाँटी थी जिसके कारतूस पर गाय और सूवर की चरबी लगी होती थी। राइफ़ल में कारतूस लोड करने के लिए मुँह से कारतूस का कवर हटाना पड़ता था। इसको ले कर पूरे देश की 'काली पलटन' में बड़ा रोष था। इस तथ्य को अनदेखा करते हुए हुए लेफ़्ट कर्नल कारमाइकेल स्मिथ ने 24 अप्रैल के दिन 90 सिपाहियों की टुकड़ी को इन्हीं कारतूसों का फ़ायरिंग अभ्यास करने का आदेश दिया।
85 ने आदेश मानने से इंकार कर दिया और उनका कोर्ट मार्शल कर दिया गया। बग़ावत के आरोप में सरसरी तौर पर मुक़दमा चला और 74 को दस दस साल की क़ैद और 11 को जो कम उम्र के थे पाँच पाँच साल की बामशक्कत क़ैद की सज़ा दी गई।
जेल भेजने से पहले सरे आम वर्दियाँ उतार ली गईं जबकी बाकी सेना देखती रही। नंगे बदन और हथकड़ियाँ पहना कर जुलूस की शक्ल में जेल ले जाया गया। रास्ते में क़ैदियों पर जनता की गालियों की बौछार पड़ी। अगले दिन याने दस मई रवीवार के दिन पूरे शहर में अशांति बढ़ गई और ग़ुस्सा फूट पड़ा। कोतवाल धन सिंह गुर्जर ने इन पच्चासी सिपाहियों को छोड़ दिया। बाकी क़ैदियों को जनता ने छुड़ा लिया और शोर शराबे के साथ अंग्रेज़ों पर हल्ला बोल दिया। बग़ावत का बिगुल बज गया।
स्वतंत्रता संग्राम 1857 का स्मारक जो 1972 में बनाया गया। इस मीनार के पीछे एक कुँआ था जो प्याऊ का काम करता था। इससे कुछ क़दम दूर औघड़नाथ मंदिर या काली पलटन का मंदिर है। यही विद्रोह का अड्डा या उदगम स्थल बना |
इन नामों से भी अनेकता में एकता झलकती है |
1. Meerut a short write-up
2. मेरठ का एक गाँव गगोल, 1857 और दशहरा