मोटर साइकिल डायरी
मोटर साइकिल डायरी की बजाए पहले तो 'फटफटिया डायरी' शीर्षक देना चाहता था पर जचा नहीं इसलिए लिखा नहीं. दरअसल 'द मोटरसाइकिल डायरीज ' एक मशहूर किताब है जिस पर इसी नाम की 2004 में स्पेनिश फिल्म भी बन चुकी है. ये 'डायरीज ' लिखने वाले का नाम है एरनेस्तो ग्वेरा( Ernesto Guevara de la Serna ) जो 'चे ग्वेरा' के नाम से बेहतर जाना जाता है. अर्जेंटीना में जन्मे( 1928-1967 ) 'चे' डोक्टरी की पढ़ाई ख़त्म करके अपने दोस्त अल्बर्टो ग्रानादो के साथ मोटरसाइकिल पर दक्षिणी अमरीका में कई देशों की यात्रा की जो तक़रीबन चार महीने चली. उसी दौरान 'चे' ने डायरीज लिखी. 'चे' के बारे में आपको इन्टरनेट में ढेर सारी जानकारी मिलेगी. 'चे' डॉक्टर, लेखक, क्रांतिकारी, गोरिल्ला सैनिक, क्यूबा सरकार का मंत्री और डिप्लोमेट भी रहा था. बोलीविया के जंगलों में पकड़ा गया और सैनिक कोर्ट ने सरसरी सुनवाई करके सजाए मौत दे दी और उस पर मशीन गन से गोलियां दाग दी गईं.
चे ग्वेरा की 'डायरीज ' के मुकाबले अपुन की फटफटिया डायरी तो कुछ भी नहीं है. बस एक ही इत्तेफाक है वो है मोटरसाइकिल से घूमने का शौक. घूमना तो पैदल से लेकर हवाई जहाज तक किसी भी तरह हो सकता है पर पसंद अपनी अपनी है. जब फटफटिया रेस पकड़ती है तो सीने पे हवा लगती है, ज़ुल्फें लहराती हैं, शर्ट के कालर फड़ फड़ करते हैं तो मज़ा आता है. किसी विद्वान ने कहा है कि,
Four wheels move the body,
Two wheels move the soul!
बस यही सोच के पहली फटफट 1979 में खरीदी थी. उसका नाम था राजदूत. थी तो 250 सी सी की पर थी हलकी फुलकी. चौराहे की लाल बत्ती पर बंद कर दो हरी हो तो किक मारो और चल मेरे भाई. हाईवे पर अगर 80 के ऊपर स्पीड करो तो लगता था उड़ ना जाए. हाईवे पर भी स्पीड ना हो तो क्या फायदा ऐसी फटफट का? समझ आ गया की लम्बी ड्राइव की गाड़ी नहीं है राजदूत. खैर दिल्ली में तो खूब चली और सच पूछो तो पिछली सीट की सवारी ढूँढने में भी खूब काम आई.
जल्द ही पटर पटर करने वाली राजदूत को बदलने का मन बना लिया. फिर खरीदी धकधक करने वाली स्टैण्डर्ड बुलेट. 1984 में इसकी कीमत सोलह हज़ार के आसपास थी. शानदार सवारी और जानदार सवारी! उस वक़्त बुलेट का रुआब ज्यादा था और पुलिस वाले भी टोकते नहीं थे. दिल्ली की रिंग रोड पर कई बार 100 पे दौड़ा दी. जयपुर, ऋषिकेश और लैंसडाउन का ट्रिप लगाने में मज़ा आने लगा. पर 1986 में ट्रान्सफर हो गई सिलचर, आसाम. अब? अब बुलेट को पैक कराया और ट्रेन में डाल दिया. सिलचर स्टेशन पर उतारी, पेट्रोल डलवाया और धकधक फिर शुरू हो गई.
कुछ दिनों बाद सिलचर से तेज़पुर ब्रांच में ट्रान्सफर हो गई. लगभग चार सौ किमी दूर. अपना बिस्तर लपेटा और बुलेट में बाँध दिया. एक अटैची साइड में बाँधी और रवाना हो गए. रात गुवाहाटी के होटल में काटी और सुबह तेज़पुर का रुख किया. ट्रैफिक काफी कम था उन दिनों. रास्ते में शानदार सीनरी - पहाड़ियां, तालाब, खेत, छोटे बड़े गाँव देखते हुए पहुँच गए तेज़पुर. बैंक के साथियों को आश्चर्यचकित और डरते देख और भी मज़ा आता था. ब्रांच मैन रोड के क्रासिंग पर थी और सुबह 9 से 12 तक ट्रैफिक पुलिस की ड्यूटी रहती थी. दो दिन तो उसने देखा पार्किंग करते हुए तीसरे दिन मिलने आ गया. मिल कर बहुत खुश हुआ और हमारी दोस्ती हो गई!
पर बाइक की क्वालिटी उस वक़्त अच्छी नहीं थी. बल्ब फ्यूज़ हो जाते थे, क्लच की तार ज्यादा नहीं चलती थी, चेन लॉक निकल जाता था और मोबिल आयल का ध्यान रखना पड़ता था. याने सन्डे के सन्डे हाथ काले हो जाना लाज़मी था. बुलेट का एक फायदा ज़रूर था की दोस्त यार मांगते नहीं थे!
तेज़पुर से सितम्बर 1988 में दिल्ली वापसी के आर्डर हो गए. एक बार फिर बुलेट ट्रेन में लोड कर दी. पर दिल्ली आकर बुलेट ज्यादा समय रुक नहीं पाई और दस हज़ार में बिक गई. चार्टर्ड बस और स्कूटर का मज़ा लिया. तब तक मारुती 800 ने पीं पीं कर दी थी तो फटफटिया पीछे हो गई थी पर भूली नहीं थी.
2005 में फिर रॉयल एनफील्ड की याद आ गई. छोरा भी जवान हो गया था और उसकी डिमांड भी आने लगी थी. तो इस बार थंडरबर्ड खरीदी छप्पन हज़ार की. इस थंडरबर्ड ने भी खूब सड़कें नापी. नैनीताल, ऋषिकेश, अहमदाबाद, जयपुर, पुष्कर, जैसलमेर वगैरा के चक्कर लगते रहे.
मज़ा तब आता था जबकि आप लम्बी खाली सड़क पर धकधक करते जा रहे हैं और दूसरी तरफ से धकधक करती बुलेट आ रही हो तो अनायास ही एक दूसरे को हाथ उठा कर अभिवादन कर देते थे. बाइकर बिरादरी बड़ी मस्त है! इस बिरादरी में फिरंगी बाइकर भी शामिल हैं. वो भी खुले दिल से हाथ हिलाते या मिलते हैं. पर खैर उन्हीं दिनों बैंक ने भी मारुती गाड़ी दे दी, अपनी मारुती भी थी तो फिर थंडरबर्ड का क्या काम? थंडरबर्ड रुखसत हो गई.
जून 2011 में रिटायरमेंट आ रही थी तो सोचा की एक बार फिर रॉयल एनफील्ड चलाई जाए और इस बार भारत दर्शन किया जाए. जेब में पैसे भी होंगे और छुट्टी किसी बॉस से लेनी नहीं होगी तो टूर का ज्यादा आनंद आएगा. तो चार महीने पहले ही एक लाख दस हज़ार में क्लासिक 500 ले ली. ये गड्डी ज्यादा भारी, ज्यादा ताकत वाली और ज्यादा रफ़्तार वाली थी. लम्बे टूर के लिए फिट थी.
रिटायरमेंट के बाद सोचा की क्लासिक 500 पर एक दो छोटे टूर लगा लें ज़रा हाथ साफ़ हो जाएगा फिर लम्बा ड्राइव लगाएंगे. कई सालों से तो कार के आदी हो चुके थे. पहला टूर ऋषिकेश, लैंसडाउन की तरफ बनाया. महसूस किया की शहरों में ट्रैफिक और प्रदूषण बेतहाशा बढ़ चुका है. कार में ए सी के चलते इतना महसूस नहीं होता था. जितना भी मुंह ढक लो या हेलमेट से कवर कर लो धुआं अंदर जाना ही है. बाइक सड़क के बाएँ रखो तो बस और ट्रक वाले दबाते हैं दाहिने रहो तो कारें पीं पीं करती हैं और बीच में चलो तो त्रिशंकू की तरह परेशानी है. साथ ही ये भी पता लग गया की उमर साठ की हो गई है! पहले दो ढाई घंटे बाद टी ब्रेक करते थे अब एक घंटे में ही थकावट होने लगती है. नाज़ुक कमर, गर्दन और कंधे कड़कड़ाने लग रहे थे. सोचा कि शायद बहुत दिन बाद हाईवे पे निकले हैं इसलिए.
दूसरी यात्रा राजस्थान की बनाई सोचा की चौड़ी चौड़ी सड़कें हैं और ट्रैफिक कम मिलेगा तो ड्राइविंग आसान हो जाएगी. कहाँ तो सुबह चलकर शाम को बुलेट या थंडरबर्ड से पुष्कर पहुँच जाते थे अब जयपुर ही मुश्किल लगने लगा. हमारी सवारी ने भी थकान की शिकायत कर दी. अब तो ढाबे की कड़क चाय या बियर ने भी जोश भरना बंद कर दिया. कुल मिला के भारत दर्शन मुश्किल लगने लगा. बहरहाल भारत दर्शन तो जारी है सिर्फ वाहन बदल गया है. आजकल चार चक्रीय ए सी डीज़ल रथ इस्तेमाल हो रहा है.
क्लासिक 500 अभी भी है और बैंगलोर में साहेबज़ादे की हाज़िरी बजा रही है.
चे ग्वेरा की 'डायरीज ' के मुकाबले अपुन की फटफटिया डायरी तो कुछ भी नहीं है. बस एक ही इत्तेफाक है वो है मोटरसाइकिल से घूमने का शौक. घूमना तो पैदल से लेकर हवाई जहाज तक किसी भी तरह हो सकता है पर पसंद अपनी अपनी है. जब फटफटिया रेस पकड़ती है तो सीने पे हवा लगती है, ज़ुल्फें लहराती हैं, शर्ट के कालर फड़ फड़ करते हैं तो मज़ा आता है. किसी विद्वान ने कहा है कि,
Four wheels move the body,
Two wheels move the soul!
बस यही सोच के पहली फटफट 1979 में खरीदी थी. उसका नाम था राजदूत. थी तो 250 सी सी की पर थी हलकी फुलकी. चौराहे की लाल बत्ती पर बंद कर दो हरी हो तो किक मारो और चल मेरे भाई. हाईवे पर अगर 80 के ऊपर स्पीड करो तो लगता था उड़ ना जाए. हाईवे पर भी स्पीड ना हो तो क्या फायदा ऐसी फटफट का? समझ आ गया की लम्बी ड्राइव की गाड़ी नहीं है राजदूत. खैर दिल्ली में तो खूब चली और सच पूछो तो पिछली सीट की सवारी ढूँढने में भी खूब काम आई.
जल्द ही पटर पटर करने वाली राजदूत को बदलने का मन बना लिया. फिर खरीदी धकधक करने वाली स्टैण्डर्ड बुलेट. 1984 में इसकी कीमत सोलह हज़ार के आसपास थी. शानदार सवारी और जानदार सवारी! उस वक़्त बुलेट का रुआब ज्यादा था और पुलिस वाले भी टोकते नहीं थे. दिल्ली की रिंग रोड पर कई बार 100 पे दौड़ा दी. जयपुर, ऋषिकेश और लैंसडाउन का ट्रिप लगाने में मज़ा आने लगा. पर 1986 में ट्रान्सफर हो गई सिलचर, आसाम. अब? अब बुलेट को पैक कराया और ट्रेन में डाल दिया. सिलचर स्टेशन पर उतारी, पेट्रोल डलवाया और धकधक फिर शुरू हो गई.
कुछ दिनों बाद सिलचर से तेज़पुर ब्रांच में ट्रान्सफर हो गई. लगभग चार सौ किमी दूर. अपना बिस्तर लपेटा और बुलेट में बाँध दिया. एक अटैची साइड में बाँधी और रवाना हो गए. रात गुवाहाटी के होटल में काटी और सुबह तेज़पुर का रुख किया. ट्रैफिक काफी कम था उन दिनों. रास्ते में शानदार सीनरी - पहाड़ियां, तालाब, खेत, छोटे बड़े गाँव देखते हुए पहुँच गए तेज़पुर. बैंक के साथियों को आश्चर्यचकित और डरते देख और भी मज़ा आता था. ब्रांच मैन रोड के क्रासिंग पर थी और सुबह 9 से 12 तक ट्रैफिक पुलिस की ड्यूटी रहती थी. दो दिन तो उसने देखा पार्किंग करते हुए तीसरे दिन मिलने आ गया. मिल कर बहुत खुश हुआ और हमारी दोस्ती हो गई!
पर बाइक की क्वालिटी उस वक़्त अच्छी नहीं थी. बल्ब फ्यूज़ हो जाते थे, क्लच की तार ज्यादा नहीं चलती थी, चेन लॉक निकल जाता था और मोबिल आयल का ध्यान रखना पड़ता था. याने सन्डे के सन्डे हाथ काले हो जाना लाज़मी था. बुलेट का एक फायदा ज़रूर था की दोस्त यार मांगते नहीं थे!
तेज़पुर से सितम्बर 1988 में दिल्ली वापसी के आर्डर हो गए. एक बार फिर बुलेट ट्रेन में लोड कर दी. पर दिल्ली आकर बुलेट ज्यादा समय रुक नहीं पाई और दस हज़ार में बिक गई. चार्टर्ड बस और स्कूटर का मज़ा लिया. तब तक मारुती 800 ने पीं पीं कर दी थी तो फटफटिया पीछे हो गई थी पर भूली नहीं थी.
2005 में फिर रॉयल एनफील्ड की याद आ गई. छोरा भी जवान हो गया था और उसकी डिमांड भी आने लगी थी. तो इस बार थंडरबर्ड खरीदी छप्पन हज़ार की. इस थंडरबर्ड ने भी खूब सड़कें नापी. नैनीताल, ऋषिकेश, अहमदाबाद, जयपुर, पुष्कर, जैसलमेर वगैरा के चक्कर लगते रहे.
मज़ा तब आता था जबकि आप लम्बी खाली सड़क पर धकधक करते जा रहे हैं और दूसरी तरफ से धकधक करती बुलेट आ रही हो तो अनायास ही एक दूसरे को हाथ उठा कर अभिवादन कर देते थे. बाइकर बिरादरी बड़ी मस्त है! इस बिरादरी में फिरंगी बाइकर भी शामिल हैं. वो भी खुले दिल से हाथ हिलाते या मिलते हैं. पर खैर उन्हीं दिनों बैंक ने भी मारुती गाड़ी दे दी, अपनी मारुती भी थी तो फिर थंडरबर्ड का क्या काम? थंडरबर्ड रुखसत हो गई.
जून 2011 में रिटायरमेंट आ रही थी तो सोचा की एक बार फिर रॉयल एनफील्ड चलाई जाए और इस बार भारत दर्शन किया जाए. जेब में पैसे भी होंगे और छुट्टी किसी बॉस से लेनी नहीं होगी तो टूर का ज्यादा आनंद आएगा. तो चार महीने पहले ही एक लाख दस हज़ार में क्लासिक 500 ले ली. ये गड्डी ज्यादा भारी, ज्यादा ताकत वाली और ज्यादा रफ़्तार वाली थी. लम्बे टूर के लिए फिट थी.
रिटायरमेंट के बाद सोचा की क्लासिक 500 पर एक दो छोटे टूर लगा लें ज़रा हाथ साफ़ हो जाएगा फिर लम्बा ड्राइव लगाएंगे. कई सालों से तो कार के आदी हो चुके थे. पहला टूर ऋषिकेश, लैंसडाउन की तरफ बनाया. महसूस किया की शहरों में ट्रैफिक और प्रदूषण बेतहाशा बढ़ चुका है. कार में ए सी के चलते इतना महसूस नहीं होता था. जितना भी मुंह ढक लो या हेलमेट से कवर कर लो धुआं अंदर जाना ही है. बाइक सड़क के बाएँ रखो तो बस और ट्रक वाले दबाते हैं दाहिने रहो तो कारें पीं पीं करती हैं और बीच में चलो तो त्रिशंकू की तरह परेशानी है. साथ ही ये भी पता लग गया की उमर साठ की हो गई है! पहले दो ढाई घंटे बाद टी ब्रेक करते थे अब एक घंटे में ही थकावट होने लगती है. नाज़ुक कमर, गर्दन और कंधे कड़कड़ाने लग रहे थे. सोचा कि शायद बहुत दिन बाद हाईवे पे निकले हैं इसलिए.
दूसरी यात्रा राजस्थान की बनाई सोचा की चौड़ी चौड़ी सड़कें हैं और ट्रैफिक कम मिलेगा तो ड्राइविंग आसान हो जाएगी. कहाँ तो सुबह चलकर शाम को बुलेट या थंडरबर्ड से पुष्कर पहुँच जाते थे अब जयपुर ही मुश्किल लगने लगा. हमारी सवारी ने भी थकान की शिकायत कर दी. अब तो ढाबे की कड़क चाय या बियर ने भी जोश भरना बंद कर दिया. कुल मिला के भारत दर्शन मुश्किल लगने लगा. बहरहाल भारत दर्शन तो जारी है सिर्फ वाहन बदल गया है. आजकल चार चक्रीय ए सी डीज़ल रथ इस्तेमाल हो रहा है.
क्लासिक 500 अभी भी है और बैंगलोर में साहेबज़ादे की हाज़िरी बजा रही है.