पेंशन मिल जाने के बाद बैंक की रोज़मर्रा की व्यस्तता ख़त्म हो गई. अब नाश्ते का समय 8 बजे से खिसक कर 9 बजे पहुँच गया. अखबार जो कभी दस मिनट में निपट जाता था अब दो तीन घंटों तक खींचता चला जाता है. दफ्तर जाना नहीं तो क्या जूते चमकाने और क्या टाई लगानी. अब लोगों को जल्दी जल्दी दफ्तर जाने की तैयारी करते देख कर मुस्कराहट आ जाती थी - बच्चू और तेज़, और जल्दी कर, और भाग और कमा ले. कभी हम भी तेरी तरह दफ्तर की तरफ दौड़ते थे, बच्चों के स्कूल में रिजल्ट लेने जाते थे और श्रीमती को शौपिंग कराते थे. अब आराम करते हैं, घूमते रहते हैं और दोस्तों यारों से गप्पें मारते हैं. किसी का पुराना शेर है,
तुम काम करते हो मैं आराम करता हूँ,
तुम अपना काम करते हो मैं अपना काम करता हूँ !
गप्पों की महफ़िल में कभी कभी सीरियस धार्मिक मुद्दे भी आ जाते हैं. धर्म की बहस अगर शुरू हो जाए तो बहुत लम्बी और टेढ़ी मेढ़ी चलती है. नास्तिकवाद से लेकर कट्टरवाद, स्वर्ग से लेकर नर्क और योगासन से लेकर जिम तक याने सब कुछ ही शुरू हो जाता है. और मजे की बात है की ज्यादातर दोस्त यारों ने धार्मिक ग्रन्थ पूरी तरह पढ़े भी नहीं. और अगर पढ़े तो मनन नहीं किया. कुछ ज्ञान तो टीवी धारावाहिक को सच मान कर ही ले लिया. मेरे से पूछें तो मुझे पता नहीं भगवान है या नहीं. ग्रन्थ कभी पढ़े नहीं क्यूंकि भारी भरकम हैं और चलते फिरते नहीं पढ़े जा सकते. पूजा पाठ कभी किया नहीं कभी कभार दिवाली में या किसी हवन जागरण में हाथ जोड़ दिए और कुछ पैसे डाल दिए कथा समाप्त. कभी किसी को गुरु बनाने या समझने की कोशिश भी नहीं की. भगवान से कभी ना लगाव हुआ और ना ही डर लगा. ना नास्तिक ना आस्तिक अर्थात जैसा चल रहा है सब ठीक है. मन शांत है तो सब ठीक है.
ऐसी ही एक गप्प गोष्ठी में मैडिटेशन की बात चल पड़ी. किसी ने कहा ध्यान लगाने से बहुत शांति मिलती है, एक सज्जन ने बताया कि कुंडलिनी जाग जाएगी, दूसरे ने कहा ईश्वर के नज़दीक पहुँच जाएंगे वगैरा वगैरा. किसी दोस्त ने किसी बाबा का कार्यक्रम बताया और किसी ने दूसरे, तीसरे और चौथे बाबा का नाम बताया. ध्यान के बारे में थोड़ी सी ही जानकारी थी जो योगाभ्यास सीखने के समय बताई गई थी. 1995 में जब दिल्ली में भारतीय योग संस्थान से योग सीखा तो उसमें प्राणायाम भी सीखा. योगासन और प्राणायाम करने के बाद चौकड़ी मार कर बैठने के लिए कहा जाता था. फिर कमर गर्दन सीधी, आँखें कोमलता से बंद करके दोनों आँखों के बीच माथे पर आज्ञा चक्र पर ध्यान देने को कहा जाता था. वैसा ही करते भी थे. पर फिर नौकरी में इधर उधर ट्रांसफर होती रही तो योगासन और प्राणायाम तो जारी रहा पर ध्यान बंद हो गया.
घर आकर श्रीमती से जिक्र हुआ तो उन्हें एक सहेली की याद आई जो दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थी और जिसने दस दिन का विपासना मैडिटेशन कोर्स किया था. और प्रोफेसर ने दस दिन का कोर्स बहुत मुश्किल कोर्स बताया था. ये भी पता लगा कि तिहाड़ जेल में भी विपासना कराई जाती है. यहाँ ज़रा सा खटका लगा की शायद अपराधियों के लिए कोई मनोवैज्ञानिक कार्यक्रम चलाया जाता होगा? ऐसे शिविर में जाना ठीक रहेगा क्या ?
और जानकारी के लिए गूगल बाबा की सहायता ली तो हजारों पेज हाजिर हो गए. मालूम हुआ कि सत्य नारायण गोयनका जी के दस दस दिन के कोर्स दुनिया भर में जगह जगह होते हैं. भारत में भी 40 - 45 केंद्र हैं. हमने देहरादून चुना और दोनों ने एप्लाई कर दिया. शर्तें कठिन थी. दस दिन मौन रखना होगा. चलिए मान लिया. किसी से इशारे से या आँखों से भी बात नहीं करनी है याने आर्य मौन. इसका तो पालन कर लेंगे. श्रीमती दस दिन चुप रहेंगी ये तो वाकई देखने वाली बात है! पुरुष और महिलाएं अलग अलग रहेंगे. ये भी साधारण सी शर्त है जो मान्य है. शरीर ढका रहेगा और परफ्यूम नहीं लगाएंगे. कोई दिक्कत नहीं. सात बजे के बाद डिनर नहीं होगा. चलिए ये भी मान लिया. तो बस फिर रेडी? बाकी जो होगा वहीँ जाकर देखा जाएगा. जो विपासना में अनुभव हुए वो आपसे शेयर करते चलेंगे.
गौतम बुद्ध के समय पाली भाषा प्रचलित थी जिसमें पस्सना शब्द का अर्थ है देखना और विपस्सना का अर्थ है अच्छी तरह देखना याने reality check. यह विपासना एक ध्यान या मैडिटेशन की पद्धति है जिसे गौतम बुद्ध ने ढाई हज़ार साल पहले पुनः जीवित कर दिया था. संस्कृत में इन शब्दों का पर्याय है पश्यना और विपश्यना और अब आम तौर पर कहा जाता है विपासना. गौतम बुद्ध स्वयं कहते थे,
'इहि पस्सिको!' अर्थात
'आओ और ( स्वयं ) देखो!'
पेंशन मिल जाने के बाद बैंक की रोज़मर्रा की व्यस्तता ख़त्म हो गई. अब नाश्ते का समय 8 बजे से खिसक कर 9 बजे पहुँच गया. अखबार जो कभी दस मिनट में निपट जाता था अब दो तीन घंटों तक खींचता चला जाता है. दफ्तर जाना नहीं तो क्या जूते चमकाने और क्या टाई लगानी. अब लोगों को जल्दी जल्दी दफ्तर जाने की तैयारी करते देख कर मुस्कराहट आ जाती थी - बच्चू और तेज़, और जल्दी कर, और भाग और कमा ले. कभी हम भी तेरी तरह दफ्तर की तरफ दौड़ते थे, बच्चों के स्कूल में रिजल्ट लेने जाते थे और श्रीमती को शौपिंग कराते थे. अब आराम करते हैं, घूमते रहते हैं और दोस्तों यारों से गप्पें मारते हैं. किसी का पुराना शेर है,
तुम काम करते हो मैं आराम करता हूँ,
तुम अपना काम करते हो मैं अपना काम करता हूँ !
गप्पों की महफ़िल में कभी कभी सीरियस धार्मिक मुद्दे भी आ जाते हैं. धर्म की बहस अगर शुरू हो जाए तो बहुत लम्बी और टेढ़ी मेढ़ी चलती है. नास्तिकवाद से लेकर कट्टरवाद, स्वर्ग से लेकर नर्क और योगासन से लेकर जिम तक याने सब कुछ ही शुरू हो जाता है. और मजे की बात है की ज्यादातर दोस्त यारों ने धार्मिक ग्रन्थ पूरी तरह पढ़े भी नहीं. और अगर पढ़े तो मनन नहीं किया. कुछ ज्ञान तो टीवी धारावाहिक को सच मान कर ही ले लिया. मेरे से पूछें तो मुझे पता नहीं भगवान है या नहीं. ग्रन्थ कभी पढ़े नहीं क्यूंकि भारी भरकम हैं और चलते फिरते नहीं पढ़े जा सकते. पूजा पाठ कभी किया नहीं कभी कभार दिवाली में या किसी हवन जागरण में हाथ जोड़ दिए और कुछ पैसे डाल दिए कथा समाप्त. कभी किसी को गुरु बनाने या समझने की कोशिश भी नहीं की. भगवान से कभी ना लगाव हुआ और ना ही डर लगा. ना नास्तिक ना आस्तिक अर्थात जैसा चल रहा है सब ठीक है. मन शांत है तो सब ठीक है.
ऐसी ही एक गप्प गोष्ठी में मैडिटेशन की बात चल पड़ी. किसी ने कहा ध्यान लगाने से बहुत शांति मिलती है, एक सज्जन ने बताया कि कुंडलिनी जाग जाएगी, दूसरे ने कहा ईश्वर के नज़दीक पहुँच जाएंगे वगैरा वगैरा. किसी दोस्त ने किसी बाबा का कार्यक्रम बताया और किसी ने दूसरे, तीसरे और चौथे बाबा का नाम बताया. ध्यान के बारे में थोड़ी सी ही जानकारी थी जो योगाभ्यास सीखने के समय बताई गई थी. 1995 में जब दिल्ली में भारतीय योग संस्थान से योग सीखा तो उसमें प्राणायाम भी सीखा. योगासन और प्राणायाम करने के बाद चौकड़ी मार कर बैठने के लिए कहा जाता था. फिर कमर गर्दन सीधी, आँखें कोमलता से बंद करके दोनों आँखों के बीच माथे पर आज्ञा चक्र पर ध्यान देने को कहा जाता था. वैसा ही करते भी थे. पर फिर नौकरी में इधर उधर ट्रांसफर होती रही तो योगासन और प्राणायाम तो जारी रहा पर ध्यान बंद हो गया.
घर आकर श्रीमती से जिक्र हुआ तो उन्हें एक सहेली की याद आई जो दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थी और जिसने दस दिन का विपासना मैडिटेशन कोर्स किया था. और प्रोफेसर ने दस दिन का कोर्स बहुत मुश्किल कोर्स बताया था. ये भी पता लगा कि तिहाड़ जेल में भी विपासना कराई जाती है. यहाँ ज़रा सा खटका लगा की शायद अपराधियों के लिए कोई मनोवैज्ञानिक कार्यक्रम चलाया जाता होगा? ऐसे शिविर में जाना ठीक रहेगा क्या ?
और जानकारी के लिए गूगल बाबा की सहायता ली तो हजारों पेज हाजिर हो गए. मालूम हुआ कि सत्य नारायण गोयनका जी के दस दस दिन के कोर्स दुनिया भर में जगह जगह होते हैं. भारत में भी 40 - 45 केंद्र हैं. हमने देहरादून चुना और दोनों ने एप्लाई कर दिया. शर्तें कठिन थी. दस दिन मौन रखना होगा. चलिए मान लिया. किसी से इशारे से या आँखों से भी बात नहीं करनी है याने आर्य मौन. इसका तो पालन कर लेंगे. श्रीमती दस दिन चुप रहेंगी ये तो वाकई देखने वाली बात है! पुरुष और महिलाएं अलग अलग रहेंगे. ये भी साधारण सी शर्त है जो मान्य है. शरीर ढका रहेगा और परफ्यूम नहीं लगाएंगे. कोई दिक्कत नहीं. सात बजे के बाद डिनर नहीं होगा. चलिए ये भी मान लिया. तो बस फिर रेडी? बाकी जो होगा वहीँ जाकर देखा जाएगा. जो विपासना में अनुभव हुए वो आपसे शेयर करते चलेंगे.
गौतम बुद्ध के समय पाली भाषा प्रचलित थी जिसमें पस्सना शब्द का अर्थ है देखना और विपस्सना का अर्थ है अच्छी तरह देखना याने reality check. यह विपासना एक ध्यान या मैडिटेशन की पद्धति है जिसे गौतम बुद्ध ने ढाई हज़ार साल पहले पुनः जीवित कर दिया था. संस्कृत में इन शब्दों का पर्याय है पश्यना और विपश्यना और अब आम तौर पर कहा जाता है विपासना. गौतम बुद्ध स्वयं कहते थे,
'इहि पस्सिको!' अर्थात
'आओ और ( स्वयं ) देखो!'