बुद्ध का जन्म ईसापूर्व 563 में हुआ और महानिर्वाण ईसापूर्व 443 में. 29 की आयु में महल और परिवार त्याग कर वन की ओर प्रस्थान किया और 6 वर्ष तक सत्य की खोज में लगे रहे. उस समय वेद, पुराण और उपनिषद का प्रचलन था. साथ ही नास्तिकवाद भी प्रचलित था. और नास्तिक वाद में भी कई तरह की विचार धाराएं चल रहीं थीं. इन नास्तिकों का कोई बड़ा संगठन या ग्रुप नहीं था. फिर भी नास्तिक विचारकों या उनके शिष्यों की कमी नहीं थी. ये ज्यादातर वैदिक ज्ञान और कर्मकांड को नकारते थे और वेदों से अलग हट कर जीवन के उद्देश्य की खोज में लगे हुए थे. ज्यादतर भिक्षा पर या जंगल के कंद मूलों पर निर्वाह करते थे, नंगे या कम से कम कपड़े और सामान रखते थे. इन्हें श्रमण या शर्मन कहा जाता था.
इन नास्तिकों में चार्वाक का नाम प्रसिद्ध है. ये कौन थे इसकी ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है. चार्वाक कोई व्यक्ति था या केवल एक विचार धारा ये भी पता नहीं. चार्वाक शब्द का मूल चारू+उव्वाच याने सुंदर वाक्य भी बताया जाता है जिन्हें बोल कर लोगों को कर्मकांड के विरुद्ध बताया जाता था! जो भी हो इस विचार धारा में प्रभु, परलोक, आत्मा या परमात्मा का अस्तित्व नहीं है. चेतन शरीर के समाप्त होते ही सब कुछ विलीन हो जाता है. इसलिए यह कहा गया कि किसी भी तरह के वैदिक कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं है. चार्वाक की एक कहावत प्रसिद्ध है - "ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत, यावाज्जिवेत सुखं जीवेत!" अर्थात जब तक जियो सुख से जियो, घी पियो चाहे ऋण ही लेना पड़े.
चार्वाक के अतिरिक्त कुछ और नास्तिक सन्यासियों का किसी ग्रन्थ या कथा में जिक्र किया गया है वो हैं:
* अजीत केशकामब्ली जो 'अक्रियावाद' के पक्षधर थे. उनके अनुसार ब्रह्माण्ड धरती, वायु, जल और अग्नि का मेल है. मृत्यु के पश्चात कोई जीवन नहीं है. किसी की हत्या करने में पाप नहीं है और किसी भी तरह से आनंद लेने में बुराई नहीं है.
* संजय वैरात्रिपुत्र के अनुसार जो होना है वो होता है और होनी अनहोनी को रोका नहीं जा सकता. आत्मा, परमात्मा और किसी भी तरह के सिद्धान्त के कोई मायने नहीं हैं. इस धारा को विक्षेप्वाद या 'अज्ञान' वाद भी कहा गया है.
* निर्गंठ नटपुत्र जैन दर्शन के उपासक थे और तीर्थांकर पार्श्व के शिष्य कहे जाते थे. ये नंगे रहते और विश्चास करते थे की इस जन्म में जो हो रहा है वह पिछले जन्मों के कर्मों का फल है. घर बार सब कुछ त्याग करके अगर तपस्या करें और ब्रह्मचारी रहें तो पिछली गलतियाँ सुधारी जा सकती हैं. उनका कहना था कि अहिंसा परम धर्म है.
* मख्खाली गोसाल भी नग्न सन्यासियों में थे. कहा जाता है की मख्खाली जैन तीर्थांकर महावीर के अनुयायी थे. उनके अनुसार मनुष्य की कोई स्वतंत्र इच्छा या कर्म नहीं हैं बल्कि नियति के अनुसार सभी बंधे हुए हैं और सभी को संसार की हरेक योनि में से गुजरना है. नियति के आधार पर ही संसार में आवागमन चलता रहता है.
* पूरण कश्यप भी अक्रियावाद के समर्थक थे. उनके अनुसार मनुष्य को हत्या या चोरी करने से पाप नहीं लगता और भला कार्य करने से पुण्य नहीं मिलता.
* पाकुड़ कात्यायन के अनुसार सात तत्व स्वयंभू हैं ना बनाए जा सकते हैं और ना ही मिटाए जा सकते हैं. ये हैं पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, सुख, दुःख और जीव. मनुष्य का शरीर इन्हीं तत्वों में विलीन हो जाता है और सब कुछ यहीं समाप्त हो जाता है.
जैन और बौद्ध धर्मों में भी नास्तिकवाद का पुट है. गौतम बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व पर ना हाँ कहा ना ही ना. उन्होंने ये कहा की पहले बताये मार्ग पर चलो बाद में पूछना.
नोट: मैं एक जिज्ञासु की तरह गौतम बुद्ध का मार्ग समझाने की कोशिश कर रहा हूँ. भूल-चूक के लिए क्षमा.
बुद्ध का जन्म ईसापूर्व 563 में हुआ और महानिर्वाण ईसापूर्व 443 में. 29 की आयु में महल और परिवार त्याग कर वन की ओर प्रस्थान किया और 6 वर्ष तक सत्य की खोज में लगे रहे. उस समय वेद, पुराण और उपनिषद का प्रचलन था. साथ ही नास्तिकवाद भी प्रचलित था. और नास्तिक वाद में भी कई तरह की विचार धाराएं चल रहीं थीं. इन नास्तिकों का कोई बड़ा संगठन या ग्रुप नहीं था. फिर भी नास्तिक विचारकों या उनके शिष्यों की कमी नहीं थी. ये ज्यादातर वैदिक ज्ञान और कर्मकांड को नकारते थे और वेदों से अलग हट कर जीवन के उद्देश्य की खोज में लगे हुए थे. ज्यादतर भिक्षा पर या जंगल के कंद मूलों पर निर्वाह करते थे, नंगे या कम से कम कपड़े और सामान रखते थे. इन्हें श्रमण या शर्मन कहा जाता था.
इन नास्तिकों में चार्वाक का नाम प्रसिद्ध है. ये कौन थे इसकी ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है. चार्वाक कोई व्यक्ति था या केवल एक विचार धारा ये भी पता नहीं. चार्वाक शब्द का मूल चारू+उव्वाच याने सुंदर वाक्य भी बताया जाता है जिन्हें बोल कर लोगों को कर्मकांड के विरुद्ध बताया जाता था! जो भी हो इस विचार धारा में प्रभु, परलोक, आत्मा या परमात्मा का अस्तित्व नहीं है. चेतन शरीर के समाप्त होते ही सब कुछ विलीन हो जाता है. इसलिए यह कहा गया कि किसी भी तरह के वैदिक कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं है. चार्वाक की एक कहावत प्रसिद्ध है - "ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत, यावाज्जिवेत सुखं जीवेत!" अर्थात जब तक जियो सुख से जियो, घी पियो चाहे ऋण ही लेना पड़े.
चार्वाक के अतिरिक्त कुछ और नास्तिक सन्यासियों का किसी ग्रन्थ या कथा में जिक्र किया गया है वो हैं:
* अजीत केशकामब्ली जो 'अक्रियावाद' के पक्षधर थे. उनके अनुसार ब्रह्माण्ड धरती, वायु, जल और अग्नि का मेल है. मृत्यु के पश्चात कोई जीवन नहीं है. किसी की हत्या करने में पाप नहीं है और किसी भी तरह से आनंद लेने में बुराई नहीं है.
* संजय वैरात्रिपुत्र के अनुसार जो होना है वो होता है और होनी अनहोनी को रोका नहीं जा सकता. आत्मा, परमात्मा और किसी भी तरह के सिद्धान्त के कोई मायने नहीं हैं. इस धारा को विक्षेप्वाद या 'अज्ञान' वाद भी कहा गया है.
* निर्गंठ नटपुत्र जैन दर्शन के उपासक थे और तीर्थांकर पार्श्व के शिष्य कहे जाते थे. ये नंगे रहते और विश्चास करते थे की इस जन्म में जो हो रहा है वह पिछले जन्मों के कर्मों का फल है. घर बार सब कुछ त्याग करके अगर तपस्या करें और ब्रह्मचारी रहें तो पिछली गलतियाँ सुधारी जा सकती हैं. उनका कहना था कि अहिंसा परम धर्म है.
* मख्खाली गोसाल भी नग्न सन्यासियों में थे. कहा जाता है की मख्खाली जैन तीर्थांकर महावीर के अनुयायी थे. उनके अनुसार मनुष्य की कोई स्वतंत्र इच्छा या कर्म नहीं हैं बल्कि नियति के अनुसार सभी बंधे हुए हैं और सभी को संसार की हरेक योनि में से गुजरना है. नियति के आधार पर ही संसार में आवागमन चलता रहता है.
* पूरण कश्यप भी अक्रियावाद के समर्थक थे. उनके अनुसार मनुष्य को हत्या या चोरी करने से पाप नहीं लगता और भला कार्य करने से पुण्य नहीं मिलता.
* पाकुड़ कात्यायन के अनुसार सात तत्व स्वयंभू हैं ना बनाए जा सकते हैं और ना ही मिटाए जा सकते हैं. ये हैं पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, सुख, दुःख और जीव. मनुष्य का शरीर इन्हीं तत्वों में विलीन हो जाता है और सब कुछ यहीं समाप्त हो जाता है.
जैन और बौद्ध धर्मों में भी नास्तिकवाद का पुट है. गौतम बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व पर ना हाँ कहा ना ही ना. उन्होंने ये कहा की पहले बताये मार्ग पर चलो बाद में पूछना.
नोट: मैं एक जिज्ञासु की तरह गौतम बुद्ध का मार्ग समझाने की कोशिश कर रहा हूँ. भूल-चूक के लिए क्षमा.