दोपहर टीवी चलाया तो समाचार मे गुजरात पर दलितों पर हुए अत्याचार पर बहस चल रही थी. देखते देखते मन 70 के दशक मे चला गया. अपने गाँव जिबलखाल, जिला पौड़ी गढ़वाल में चाचाजी के घर की पूजा समारोह की याद आ गई.
हमारा गाँव जिबलखाल, तहसील लैंसडाउन से थोड़ी दूरी पर है. दस बारह घरों का छोटा सा गाँव है जो एक पहाड़ी की ढलान पर है. आस-पास सीढ़ीनुमा खेत हैं और नीचे एक पहाड़ी नदी नज़र आती है. लैन्सडाउन कभी ब्रिटिश वायसराय का समर रैसिडेंस था पर अब वहां सेना की बड़ी छावनी है.
चाचाजी ने गाँव के सभी परिवारों को कुल-देवता की पूजा और प्रीतिभोज का न्योता दिया था. चाचीजी दूसरे गाँव में रिश्ते-नाते को भी न्योता दे आई थी. छोटे से गाँव के सभी घरों में सुबह से ही चहल पहल शुरू हो गई. बक्सों में से सबने अपने बेहतरीन वस्त्रों को निकाला. सबसे पहले बच्चे रंग बिरंगे कपड़ों में तैयार हो कर बाहर आये उनमें ज्यादा उत्साह था.
फिर महिलाएं निकलीं बढ़िया साड़ियों में. महिलाओं ने तो अपने अपने जेवर भी निकाल लिए थे ख़ास तौर पे नथ. पहाड़ी समाज में जिस महिला की नथ जितनी बड़ी होगी तो मानें कि उसका परिवार उतना ही संपन्न होगा.
अब पूजा समाप्त होगी तो उसके बाद प्रीतिभोज होगा. उसकी तैयारी भी सुबह से चालू हो गई. गाँव में टेंट लगाने या हलवाई बुलाने का कोई चक्कर नहीं होता. बिना कहे बड़े बड़े चूल्हे तैय्यार होने लग गए. बड़े बड़े बर्तन आ गए और शुरू हो गई भोजन पकाने की तैय्यारी. बच्चों ने सूखी लकड़ियाँ जो पहले ही जंगलों से पेड़ काट कर सुखा ली गई थी ,चूल्हे के पास डालनी शुरू कर दी. महिलायें पानी भरने व पत्तल बनाने के काम पर लग गई और पुरूषों ने भोजन व्यवस्था संभाल ली. मसलन गाँव के फकीर भैजी ( भाई जी ) सूजी का हलवा बहुत अच्छा बनाते हैं तो हलवा उनके जिम्मे कर दिया गया. दाल और सब्ज़ी शम्भू और जयनंद भैजी के जिम्मे थी और पूड़ियाँ तलने का काम महिलाओं के जिम्मे रहा.
घर के अन्दर पूजा लगभग समाप्त हो चुकी थी और भोग लगने के बाद मेहमानों को भोजन परोसने की तैय्यारी शुरू हो गई. बच्चों ने दौड़ दौड़ कर दरियां बिछा दी और पत्तलें लगा दी. सब पुरुष पंगत मे बैठने लगे. उसके बाद नम्बर था बच्चों का और फिर महिलाओं ने भोजन किया.
पर इस दौरान देखा कि घर के आंगन के बाहर खेत की मुँडेर से लग कर भजनी काका अपने दोनों छोटे छोटे बेटों के साथ खड़े थे. भजनी काका का घर गाँव के बाहर ऊँची वाली पहाड़ी पर था और उनका पानी भी अलग था. लेकिन खेतों में हल व बुवाई के समय गाँव वाले उनसे काम करवाते थे और दान मे कुछ अनाज या पैसे दे देते थे बस मेरे पास उनका इतना ही उनका परिचय था. मैंने भजनी काका को आँगन में आने का इशारा किया पर उन्होंने अनदेखा कर दिया. मैंने फिर पिताजी को उन्हें बुलाने को कहा.
- वह नहीं आएगा चाहो तो तुम ही बुला लाओ. जाओ कोशिश करो.
भजनी काका के पास जाकर भोजन ग्रहण करने का न्योता दिया पर वो और उनके दोनों बच्चे अपनी जगह से नहीं हिले. भजनी काका बोले ,
- न न यखी ठीक च ( न न यहीं ठीक है ).
जब सारा गाँव भोजन कर चुका तब भी भजनी काका और दोनों बेटे मुंडेर पर ज़मीन पर पंजों के बल ही बैठे थे. भजनी और उसके बच्चों को वहीं पत्तल पर भोजन दे दिया गया. तीनों ने वहीं पर शांतिपूर्वक भोजन किया. उन्हें घर के लिए भी पत्तल बाँध दी गई. पिताजी से कारण पूछने पर पता चला की भजनी काका निम्न जाति के हैं इसलिए उसे खाना वहीं देना पड़ता है. दिल्ली में ऐसा नहीं देखा था और गाँव में पहली बार जात के भेदभाव को देखा और महसूस किया जो बड़ा विचित्र लगा.
कुछ ने ये सब देखा और समझाया कि बराबरी करने का कोई फायदा नहीं है. तुम तो चार दिन बाद शहर वापस चली जाओगी पर भजनी को तो यहीं इसी व्यवस्था मे रहना है !
- गायत्री वर्धन, नई दिल्ली.