बॉल पॉइंट पेन
बैंक में प्रमोशन मिली तो उसके बाद दो साल के लिए किसी गाँव में जा कर नौकरी करनी जरूरी थी. चिट्ठी ले कर दिल्ली से पहुंचे मेरठ रीजनल ऑफिस. बॉस से मुलाकात हुई,
- दिल्ली के नज़दीक ब्रांच दे रहा हूँ क्यूंकि दिल्ली वालों की नाक दिल्ली की तरफ ही रहती है. दिल्ली मत भागते रहना कुछ काम कर के भी दिखाना है.
- जी सर ! बिलकुल सर ! ( चिलम तो आप की ही भरनी है सरकार !).
बॉस ने भुड़बराल शाखा में भेज दिया. शाखा की लोकेशन तो बढ़िया थी. मोदीनगर से मेरठ की तरफ जाएं तो दस बारह किमी आगे गाँव था. मेन रोड से दो तीन किमी अंदर गाँव में शाखा थी. शाखा पहुंचे तो देखा के गेट पर डीज़ल का जनरेटर भड़भड़ की आवाज़ के साथ स्वागत में धुंआ फेंक रहा था. अंदर काउंटर पर भीड़ थी जिसमें अंगूठा टेक ज्यादा नज़र आ रहे थे. याने इस प्रदेश की एक नार्मल ब्रांच थी.
बैठ कर हिसाब लगाया कि फटफटिया से दिल्ली तक डेली अप-डाउन किया जा सकता है या नहीं. पर बारिश या ठण्ड में दिक्कत हो सकती है. और फिर बॉस को भी खुश रखना था इसलिए गाँव में आपातकालीन व्यवस्था कर लेना ही ठीक था. बड़ी मुश्किल से एक चौधरी साब के हाते में कोने वाले कमरे में जगह मिली. बाथरूम तो अटैच कहाँ से होना था वो तो हाते से भी डिटैच था. साल में 10-15 दिन की बात है चलो यही सही.
हमारे मकान मालिक चौ'साब के दो बेटे फ़ौज में थे. तीन बेटियों में से बड़ी शायद 14-15 साल की थी और दो छोटी स्कूल जाती थीं. बड़ी वाली आठ पास कर चुकी थी इसलिए आगे क्या पढ़ाई करवानी थी. उसने कोई नौकरी थोड़े ही करनी है. आगे चल कर घर परिवार संभालना है, रोटीयां बेलनी हैं. सो वो कर भी रही थी. दो भैंसों का चारा भूसा डालना, दूध निकालना, घर की साफ़ सफाई और परिवार की रोटी टिक्कड़ सब ख़ुशी ख़ुशी अकेले संभाल लेती थी. उसे भी पता था कि आगे भी ज़िन्दगी ऐसे ही चलती है.
एक शनिवार दोपहर को काली घटा के साथ जोरदार बारिश शुरू हो गई. फटफटिया पर दिल्ली जाने का मतलब नहीं था. तो वहीं रुकने का फैसला कर लिया. इतवार को कहीं आसपास घूम लेंगे. सुबह देखा तो अहाते में सफाई अभियान चल रहा था और पूरे घर में पकवान बनने की खुशबू फैली हुई थी.
चौ'साब ने दरवाजा खटखटाया और पूछा,
- मनीजर साब पेन है जी आपके धोरे?
- हाँ हाँ. मैंने एक बॉल पॉइंट पेन पकड़ा दिया और पूछा,
- चौ'साब बड़ी तैयारी हो रही है?
- ना ना बस जी आज मेहमान आ रए.
- ठीक ठीक. मैं तो ज़रा निकलूंगा शहर की तरफ.
- हाँ जी हाँ घूम लो जी आप.
आधे घंटे बाद जब तैयार होकर बाहर निकला तो बड़ी लड़की शर्माती हुई मिली. अच्छे से कपड़े पहन कर सुंदर लग रही थी. पर गले में वही पेन धागे में पिरो कर पहना हुआ था. जल्दी में मैंने पूछा नहीं ऐसा क्यूँ किया. शाम को वापिस आया तो चौ'साब से बातचीत हुई,
- मेहमान चले गए?
- जी वे तो दोपहर को ही जा लिए. मनीजर साब बड़ी बिटिया सयानी हो गई जी उसी का रिश्ता लेकर आये थे जी.
- अभी तो छोटी लगती है चौ'साब. और वो बिटिया ने पेन गले में टांग रखा था तो मैंने सोचा फिर से पढ़ने जाएगी.
- ना जी अब क्या पढेगी. पेन तो नूं टांग राख्या था जी की लड़के वालन को भी पता लग जा के लड़की पढी लिखी है.
मन ही मन बिटिया को आशीर्वाद दे दिया.
- दिल्ली के नज़दीक ब्रांच दे रहा हूँ क्यूंकि दिल्ली वालों की नाक दिल्ली की तरफ ही रहती है. दिल्ली मत भागते रहना कुछ काम कर के भी दिखाना है.
- जी सर ! बिलकुल सर ! ( चिलम तो आप की ही भरनी है सरकार !).
बॉस ने भुड़बराल शाखा में भेज दिया. शाखा की लोकेशन तो बढ़िया थी. मोदीनगर से मेरठ की तरफ जाएं तो दस बारह किमी आगे गाँव था. मेन रोड से दो तीन किमी अंदर गाँव में शाखा थी. शाखा पहुंचे तो देखा के गेट पर डीज़ल का जनरेटर भड़भड़ की आवाज़ के साथ स्वागत में धुंआ फेंक रहा था. अंदर काउंटर पर भीड़ थी जिसमें अंगूठा टेक ज्यादा नज़र आ रहे थे. याने इस प्रदेश की एक नार्मल ब्रांच थी.
बैठ कर हिसाब लगाया कि फटफटिया से दिल्ली तक डेली अप-डाउन किया जा सकता है या नहीं. पर बारिश या ठण्ड में दिक्कत हो सकती है. और फिर बॉस को भी खुश रखना था इसलिए गाँव में आपातकालीन व्यवस्था कर लेना ही ठीक था. बड़ी मुश्किल से एक चौधरी साब के हाते में कोने वाले कमरे में जगह मिली. बाथरूम तो अटैच कहाँ से होना था वो तो हाते से भी डिटैच था. साल में 10-15 दिन की बात है चलो यही सही.
हमारे मकान मालिक चौ'साब के दो बेटे फ़ौज में थे. तीन बेटियों में से बड़ी शायद 14-15 साल की थी और दो छोटी स्कूल जाती थीं. बड़ी वाली आठ पास कर चुकी थी इसलिए आगे क्या पढ़ाई करवानी थी. उसने कोई नौकरी थोड़े ही करनी है. आगे चल कर घर परिवार संभालना है, रोटीयां बेलनी हैं. सो वो कर भी रही थी. दो भैंसों का चारा भूसा डालना, दूध निकालना, घर की साफ़ सफाई और परिवार की रोटी टिक्कड़ सब ख़ुशी ख़ुशी अकेले संभाल लेती थी. उसे भी पता था कि आगे भी ज़िन्दगी ऐसे ही चलती है.
एक शनिवार दोपहर को काली घटा के साथ जोरदार बारिश शुरू हो गई. फटफटिया पर दिल्ली जाने का मतलब नहीं था. तो वहीं रुकने का फैसला कर लिया. इतवार को कहीं आसपास घूम लेंगे. सुबह देखा तो अहाते में सफाई अभियान चल रहा था और पूरे घर में पकवान बनने की खुशबू फैली हुई थी.
चौ'साब ने दरवाजा खटखटाया और पूछा,
- मनीजर साब पेन है जी आपके धोरे?
- हाँ हाँ. मैंने एक बॉल पॉइंट पेन पकड़ा दिया और पूछा,
- चौ'साब बड़ी तैयारी हो रही है?
- ना ना बस जी आज मेहमान आ रए.
- ठीक ठीक. मैं तो ज़रा निकलूंगा शहर की तरफ.
- हाँ जी हाँ घूम लो जी आप.
आधे घंटे बाद जब तैयार होकर बाहर निकला तो बड़ी लड़की शर्माती हुई मिली. अच्छे से कपड़े पहन कर सुंदर लग रही थी. पर गले में वही पेन धागे में पिरो कर पहना हुआ था. जल्दी में मैंने पूछा नहीं ऐसा क्यूँ किया. शाम को वापिस आया तो चौ'साब से बातचीत हुई,
- मेहमान चले गए?
- जी वे तो दोपहर को ही जा लिए. मनीजर साब बड़ी बिटिया सयानी हो गई जी उसी का रिश्ता लेकर आये थे जी.
- अभी तो छोटी लगती है चौ'साब. और वो बिटिया ने पेन गले में टांग रखा था तो मैंने सोचा फिर से पढ़ने जाएगी.
- ना जी अब क्या पढेगी. पेन तो नूं टांग राख्या था जी की लड़के वालन को भी पता लग जा के लड़की पढी लिखी है.
मन ही मन बिटिया को आशीर्वाद दे दिया.