प्राचीन समय से ही ऋषि, मुनि और विचारकों ने समय को परिभाषित करने की कोशिश की है और समय को नापने के पैमाने बनाने की कोशिश भी होती रही है. प्लेटो, अरस्तु, न्यूटन और आइंस्टीन ने समय के बारे में बताया और अब भी समय के गुण और इसको नापने के विषय में खोज बीन जारी है.
एक सरल सा उदाहरण लें कि एक व्यक्ति एक पत्ते को पेड़ की टहनी से टूट कर धरती पर गिरते हुए देखता है. पत्ते के टूटने और धरती पर गिरने तक इन दो बिन्दुओं के बीच का अंतराल उस व्यक्ति को समय का बोध कराता है. इस अंतराल को किसी घड़ी से मापा जा सकता है. अगर घड़ी से समय माप सकते हैं तो क्या समय भौतिक वस्तु है?
इसी उदाहरण में उस व्यक्ति ने पूरी घटना आँखों से देखी और मन में ( मस्तिष्क में या चित्त में ) नोट कर ली. अगर ना देखी होती तो उस व्यक्ति को हो चुकी घटना और घड़ी का सन्दर्भ देकर बताना पड़ता. तो क्या समय किसी घटना का सापेक्ष या relative कहा जाए ? वैसे भी समय चलन अवस्था से ही जुड़ा हुआ है. बिना किसी पदार्थ के हिले डुले समय का पता लगेगा क्या?
आम तौर पर कहा जाता है की कष्ट का समय काटे नहीं कटता और ख़ुशी का समय जल्दी से ख़त्म हो जाता है. एक बुज़ुर्ग के जीवन में एक साल अपना कुछ महत्व रखता है पर वही एक साल एक बच्चे के जीवन में अलग महत्व रखता है. तो क्या अलग अलग लोगों का समय अलग अलग होता है ?
समय के इस तरह के सवालों पर धार्मिक उत्तर क्या हैं ? आइये देखते हैं. इसाई, यहूदी और इस्लाम धर्मों में आम तौर पर समय को सीधी रेखा की तरह माना गया है याने समय Linear है. साथ ही समय की दिशा भी एक तीर की तरह एक ही ओर मानी गई है. भगवान ने जब सृष्टि बनाई तो समय प्रारम्भ हुआ और सृष्टि जब खत्म करेगा तो समय समाप्त हो जाएगा.
न्यूटन के विचार में समय सृष्टि का एक आयाम / भाग या Dimension है. Kant और Leibniz के अनुसार समय न कोई वस्तु है और ना ही कोई घटना. कान्त के अनुसार समय और आत्मा को अलग नहीं किया जा सकता. आइंस्टीन के अनुसार समय सापेक्ष है और इसका सम्बन्ध गति से भी है. फ़्रांसिसी दर्शन शास्त्री के अनुसार समय दो प्रकार के हैं शुद्ध समय याने pure time या lived consciousness जिसे मापा नहीं जा सकता और दूसरा समय mathematical time है जिसे गिना जा सकता है.
बहुत सी प्राचीन सभ्यताओं और धर्मों में ( जैसे कि इन्का, माया, बेबीलोन, हिन्दू, जैन और बौद्ध ) समय को एक चक्र के रूप में बताया गया है. इनमें से कुछ में समय का आरम्भ और समाप्ति की सीमा और गणना भी बताई गई है.
हिन्दू मान्यताओं में समय या काल को एक कालचक्र के रूप में दर्शाया जाता है. ये कालचक्र चार युगों में विभाजित है - सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलयुग. युग शुरू होने के साथ समय शुरू हो कर युग के साथ समय भी समाप्त हो जाता है. एक युग का अन्तराल और अंत निर्धारित है. नए युग में नई सृष्टि के साथ एक बार फिर से शून्य से समय प्रारम्भ हो जाता है. चारों युगों की समाप्ती के बाद एक बार फिर कालचक्र चार युग लेकर आ जाता है.
बौद्ध दर्शन के अनुसार समय की अपनी कोई अलग सत्ता नहीं है no real existance. समय का होना एक subjective विचार है जो दृष्टा और उसके चित्त ( या मस्तिष्क या मन या mind ) पर निर्भर है. पांच इन्द्रियों के माध्यम से संसार के पदार्थों को देख कर, सुन कर, स्पर्श कर, स्वाद लेकर या सूंघ कर चित्त में संवेदना या फीलिंग बनती है जो कुछ क्षणों के लिए होती है और फिर नष्ट हो जाती है. यही क्षण समय बोध कराते हैं. अर्थात चित्त में धारण नहीं हुआ तो समय नहीं है और समय चित्त सापेक्ष है.
मस्तिष्क में आए क्षणिक विचार के तीन खण्ड हैं - उत्पन्न होना, विकसित होना और नष्ट हो जाना. एक क्षण अब के एक सेकंड का पचहत्तरवां भाग है. महायान बौद्ध दर्शन में मान्यता है की एक क्षण में 900 तक विचार उत्पन्न होकर, विकसित होकर नष्ट भी हो सकते हैं !
इस पर एक उदाहरण याद आ गया जो अब याद नहीं कहाँ पढ़ा था. ओलिंपिक की दौड़ के लिए धावक अपनी पोज़ीशन में तैयार थे. उन्होंने पिस्तौल की आवाज़ सुनकर दौड़ना था. अगर उस आवाज़ से पहले कदम उठाया तो फ़ाउल और रेस से बाहर. अगर आवाज़ के बाद कदम उठाने में देर हुई तो पिछड़ने का खतरा. अब पिस्तौल बजी 'ठाएँ'. कान में आवाज़ पड़ी और तुरंत मस्तिष्क को सूचना मिली. मस्तिष्क ने तुरंत फैसला किया - 'दौड़ो' ! एक अच्छे धावक के मस्तिष्क में इस कारवाई में कितना समय लगा होगा ? मात्र 150 मिलीसेकंड जबकि एक सेकंड में 1000 मिलीसेकंड होते हैं !
इसी दार्शनिक विचार का एक स्वाभाविक निष्कर्ष ये भी निकलता है की समय क्षणों का जोड़ है या क्षणों की एक श्रृंखला है. पर इस श्रृंखला का चित्त पर से गुज़रना इतनी तेज़ी से होता है की हमें निरन्तरता का आभास होता है. ऐसा नहीं लगता की समय बीच बीच में भंग हो रहा है.
और अंत में महर्षि रमण के विचार में समय :
"The idea of time is only in your mind. It is not in the Self. There is no time for the Self. Time arises as an idea after the ego arises. But you are the Self beyond time and space; you exist even in the absence of time and space."
-- Sri Ramana Maharishi