कहावत मशहूर है कि हज़ार मील लम्बा सफ़र हो पर शुरुआत तो एक कदम से ही होती है. ये बात एक चीनी दार्शनिक लाओ त्सू ने कही थी. आजकल तो यूँ कहना चाहिए की लम्बे सफ़र की शुरुआत पहले गियर से ही होती है. अब लाओ त्सू की तरह पैदल तो जाना मुमकिन नहीं है. हाँ आजकल बसें हैं आराम से बैठिये ड्राईवर पहुंचा देगा.
पर अगर बस ड्राईवर बीच रास्ते में कहे कि 'बस अब मैं बस नहीं चला सकता' तो? बात वैसे पुरानी है. दिसम्बर 1982 की सर्दी में दिल्ली से बस ली कोटद्वार की. वहां से जीप में सवार हुए और पहुँच गए लैंसडाउन. लगभग 6000 फुट की उंचाई पर बसा लैंसडाउन कुल्फी की तरह ठंडा था. रात का तापमान शायद 3-4 डिग्री होगा. पर दिन में साफ़ नीला आसमान और तेज़ धूप. छत में बैठकर नज़ारा देखो और चाय की चुस्की लो. शाम हो तो जलती लकड़ियों की गर्माइश लो और साथ में पेग रख लो. ऐसा मज़ा पहाड़ों में ही आ सकता है. ऐसी ही छुट्टी मना कर हम अपने दो साल के बालक के साथ वापिस चल पड़े. सोचा कि हरिद्वार और ऋषिकेश होते हुए दिल्ली निकल जाएंगे. नाश्ता किया, बिल दिया, सिद्धबली मंदिर देखा और कोटद्वार बस अड्डे पहुँच गए.
शाम के साढ़े पांच बज चुके थे और हरिद्वार की इकलौती बस तैयार खड़ी थी. पचास सीटों की खटारा बस में मुश्किल से पंद्रह सवारियां होंगी जिनमें से चार पांच लेडीज़ थी और दो तीन बच्चे थे. नौजवान ड्राईवर ने बस स्टार्ट कर दी और बूढ़े कंडक्टर ने घोषणा कर दी लालढांग होकर जाएगी. मन में सोचा,
- यार लालढांग से ले जा या पीले से पर जल्दी पहुंचा दे. अँधेरा हो गया है और पहाड़ी जंगल का रास्ता है.
अगर आप उस तरफ गए हों तो जानकारी होगी की एक तरफ तो चिड़ियापुर का जंगल है और दूसरी तरफ पथरीला बरसाती नाला है. ये नाला अपनी मर्ज़ी से कभी सड़क के नज़दीक आ जाता है और कभी जिम कॉर्बेट जंगल में घुस जाता है. यहाँ रात को बस चलाना खाला जी का काम नहीं है.
पंद्रह किमी भी नहीं चली थी बस के अगले टायर की आवाज़ आई फुस्स्स्स! बस हिचकोले खाती रुक गई. बजाए टायर चेक करने के ड्राईवर और कंडक्टर में बहस शुरू हो गई की ड्राईवर खटारा बस रात को क्यूँ लाया दूसरी ले आता. दोनों नीचे उतरे तो सवारियों में बहस शुरू हो गई. दो अधेड़ आपस में कह रहे थे,
- बसों को मेन्टेन नहीं करते पैसा खा रहे हैं बस. जनता का टाइम खराब कर रहे हैं.
जवाब मिला,
- सरकारी काम च भै जी परवा नीं च
एक बुज़ुर्ग ने बहित ही गुप्त जानकारी दी,
- इस रस्ते पर कई बसें रात को लुटी हैं. ये स्टाफ स्साला मिला हुआ है आज बस लुटे ही लुटे!
पिछली सीट पर बैठे यात्री ने बीड़ी का बण्डल निकाल लिया बोला,
- भै जी माचिस देण.
बच्चे अँधेरे और ठण्ड से परेशान थे. महिलाएं भयभीत हो रही थीं. नीचे उतर के देखा तो अँधेरे की वजह से काम ठीक से नहीं हो पा रहा था. कागज़ जला कर काम करने की कोशिश कर रहे थे. चार पांच तमाशबीन कारवाई देख रहे थे. तब तक एक फौजी ने टोर्च दिखाना शुरू किया तो स्टेपनी खुली. स्टेपनी साइड में टिका कर अब पंचर टायर उतारने की कोशिश की जा रही थी. तब तक सामने से गाड़ी आती दिखी. आवाज़ से लगा की ट्रेक्टर है. बिलकुल पास आकर उसने झटके से बाएँ काटा ट्रेक्टर तो निकल गया पर ट्रोली लहराई और ड्राईवर की साइड की हेड लाइट तोड़ती हुई निकल गई. इस टक्कर ने साइड में टिकी स्टेपनी को हिला दिया और वो ड्राईवर पे जा गिरी. जैक भी खिसक गया और पंचर टायर फिर जमीन पर आ गया.
अफरा तफरी मच गई. लोगों ने स्टेपनी सीधी की ड्राईवर को उठाया. ड्राईवर दर्द में कराहा और सड़क पर ही पसर गया. लेटने के बाद हाय हाय करने लगा. फर्स्ट ऐड के नाम पर फौजी ने चुपके से पटियाला पेग लगवा दिया. फौजी और कंडक्टर तो जैक लगाने और पंचर टायर उतारने में लग गए. दो लोग ड्राईवर की सेवा में हाजिर हो गए. सारा काम हो जाने के बाद ड्राईवर ने गाड़ी चलाने से मना कर दिया बोला मेरे दोनों पैरों में बहुत दर्द है नहीं चला पाऊंगा.
अब क्या होगा? काली रात, सन्नाटा और ठण्ड. दूर दूर तक घना जंगल. ड्राईवर बोला जिस किसी को चलानी आती हो चला ले यहाँ रुकना ठीक नहीं है. उसकी बात से सब सहमत थे. सब मर्दों ने एक दूसरे की तरफ देखा. मैंने कहा भाई लोग कार तो चलाई है पर बस नहीं चलाई कभी. फिर लाइट भी टूटी हुई है. स्टार्ट कर के दूसरी लाइट भी चेक करो जलती है या नहीं. दूसरी लाइट ठीक थी बस टिमटिमा रही थी. शायद कोई तार ढीला हो गया होगा. फौजी भी तैयार था गाड़ी चलाने के लिए हालांकि अभ्यास उसे भी नहीं था.
पहला नंबर अपुन का लगा. स्टार्ट करके पहला गियर लगा दिया. बस चल पड़ी दूसरा गियर समझ में नहीं आया कैसे लगाएं. तब ड्राईवर ने बताया,
- भै जी पहले क्लच दबा के न्यूट्रल में लाओ. दुबारा क्लच दबा के सेकंड लगाओ.
- ओहो अपने बस की बात नहीं है. फौजी भाई आप आ जाओ.
- जय बद्री विशाल! फौजी भाई ने नारा लगाया और बस फिर से स्टार्ट कर दी. ड्राईवर बताता रहा और फौजी भाई धीरे धीरे चलाता रहा. बस की इकलौती बाँई लाइट टिमटिमा रही थी जिसकी वजह से स्पीड नहीं बढ़ पाई. किसी तरह से तीस किमी का फासला छे घंटे में पूरा करके लगभग पौने बारह बजे लालढांग पहुंचे. जान में जान आई.
छोटे से बियाबान कस्बे में एक दो लाइटें जल रही थी. आदमी तो क्या भूत भूतनी भी नहीं दिखाई पड़े. दो कुत्तों ने अलसाई नज़रों से बस की तरफ देखा और सोचा भौंकना बेकार है. वो फिर सो गए. होटल कौन ढूंढता? रात बस में ही गुजार दी. सुबह साढ़े पांच बजे हरिद्वार की बस आई और हम सवार हो गए.
सच में भै जी गियर बदलना भी आना चाहिए!