कविता : यादों की बारात
वो भी क्या दिन थे जब
मेरा हाथ पकड़कर
चूम लेती थीं तुम कसकर
और मैं तुम्हारी गोदी में लेटकर
जन्नत की सैर करता रहता था
मेरे हाथों की लकीरों में तुम
ढूंढती थी अपना भाग्य
और कहती थीं कि मैं
सात जन्मों तक साथ रहूंगी
इस दिल की धड़कनों में
मैं दिल बनके धड़कती रहूंगी ।
मेरे लबों पर अपनी उंगली छुआकर
अपने लबों से लगा लेती थीं
मेरी आंखों में आंखें डालकर
अथाह सागर में डूब जाती थी ।
मेरे बालों में उंगलियां फिराकर
अलग अलग स्टाइलिश बनाती थी
मेरी उन्मुक्त हंसी में
अपनी हंसी की खनक पिरोकर
सबका ध्यान आकर्षित करवाती थी ।
चौबीसों घंटे केवल मेरा खयाल रहता था
एक पल की जुदाई भी
सहन नहीं कर पाती थीं
किसी न किसी बहाने से
मुझसे मिलने चली आती थीं ।
जब भी सहेलियां मेरे नाम की चर्चा करती
तुम्हें बड़ा नागवार गुजरता था
मुझ पर केवल तुम्हारा अधिकार है
यह सब दोस्तों को पता रहता था ।
वक्त ने कुछ इस तरह सितम ढ़ाये
तुम किसी और की हो गयीं
मगर हम किसी और के हो ना पाये
तुम्हें बेवफा कहकर अपने प्यार की
तौहीन नहीं कर सकते हैं हम
इस जनम में ना सही कोई बात नहीं
होगा अपना मिलन अगले जनम ।
तब तक इन यादों की बारात को
अपने ख्वाबों में सजाकर रखूंगा
एक जनम तो क्या है जानम
सात जनम तक तेरा इंतजार करूंगा ।
हरिशंकर गोयल "हरि"
17.10.21