कविता : मां , मैं तेरी परछाईं हूं
देख मां
मेरी शक्ल कितनी मिलती है तुझसे
और मेरी आदतें भी तेरे जैसी ही हैं
इसीलिए लोग कहते हैं शायद
कि तेरी बेटी भी तेरे जैसी ही है
शायद वो लोग सही कहते हैं
क्योंकि मैं तेरी ही तो "जाई" हूं
अब तो मुझे भी लगने लगा है
कि शायद मैं तेरी ही परछाई हूं
और परछाई होऊं भी क्यों नहीं
सबसे अच्छी मां जो मैंने पाई है
तुझे देखकर ऐसा लगता है कि
माता पार्वती धरती पे उतर आई है
ममता का सागर है प्रेम की मूरत है
बड़ी ही लुभावनी भोली सी सूरत है
त्याग की देवी धैर्य की पराकाष्ठा है तू
तेरे जैसी मां की सबको ही जरूरत है
मेरा सौभाग्य है कि मैं तेरी तनया हूं
तेरे मातृत्व की छांव में पली कन्या हूं
सरलता और सादगी की घुट्टी पीने वाली
एक साधारण सी तेरी पुत्री अनन्या हूं
तू अपना बचपन और लड़कपन
सब कुछ मैके में ही छोड़कर आ गई
यहां तक कि तेरा नाम भी बदल दिया
फिर भी तू मुस्कुरा कर सब सह गई
जो संस्कार मुझे दिये हैं तूने विरासत में
वही सब कुछ मैं ससुराल में लाई हूं
इसीलिए सब लोग कहते हैं शायद
कि मां , मैं भी तेरी ही परछाई हूं
हरिशंकर गोयल "हरि"