गजल
भोर की पहली किरण मुस्कुरा रही है
एक नई रोशनी सी मुझमें समा रही है
ये कैसा संगीत गूंज रहा है फिजाओं में
दूर से मंदिर की घंटी की आवाज़ आ रही है
दिल में फिर कोई नई तमन्ना पैदा हुई है
तेरी चाहत भी नित नये गुल खिला रहीं है
खुली हुई बांहों के हार लिए खड़े हैं वो
आज फिर से जयमाला की घड़ी आ रही है
खुली आंखों में पल रहे हैं ख्वाब कई
ऐसे में ये ज़मीं जन्नत नजर आ रही है
तुझसे ही शुरू तुझपे ही खत्म होती है
जिंदगी कुछ इस तरह तमाम जा रही है
दिल के अहसासों को उकेरा है कागज पर
वो समझ रहे हैं कि कोई गजल पढ़ी जा रही है
हरिशंकर गोयल "हरि"
18.10.20