कभी आती थी लोगों के दिलों से
गांव की मिट्टी जैसी सौंधी सी खुशबू
और महक जाते थे तन मन बदन ।
तब हृदय निष्कपट, मासूम होते थे
पूरी दुनिया से भी विशाल होते थे
जिसमें धड़कता था एक मासूम सा दिल ।
सबके लिये कोमल सी संवेदनाएं होती थी
भावनाएं भलाई के ताने बाने पिरोती थी
और महसूस होता था अपनापन, लगाव ।
स्वार्थ की गाड़ी पर सवार रिश्ते नहीं थे
मतलब के लिये प्यार, कारोबार नहीं थे
और ना ही जगह थी धूर्तता, मक्कारी की ।
मुखड़ा पूनम के चांद सा खिलता था
आंखों में प्रीत का गुलाब खिलता था
और होठों पर खेलती थी निर्मल मुस्कान ।
गांव के जीवन सी स्फूर्ति व्यवहार में दिखती थी
आलिंगन में अपनत्व के सावन सी बौछार लगती थी
और प्रसन्न हो जाती थीं आंखें, बांहें और आत्मा ।
अब तो लोगों के मन कंक्रीट के जंगल से हो गए
प्रदूषित जल, वायु की तरह कसैले से हो गये
जहां रहने लगा है बेईमानी का पूरा परिवार ।
रिश्तों में आन बान सम्मान अब कहाँ है
हर दिल से उठ रहा गमों का सा धुंआ है
आंखें और दिल भीगे हुये हैं आंसुओं से ।
काश वो पहले सा अपनापन कहीं मिल जाये
वो मस्त खिलंदड़ सा बचपन कहीं मिल जाये
और जी लें हम भी फिर से एक प्यारी सी जिंदगी ।
हरिशंकर गोयल "हरि"
17.12.21