एक पेड़ चुपचाप उदास खड़ा था। कहीं से उड़कर एक तोता आया और उसकी डाल पर बैठ कर उससे बातें करने लगा।
तोता बोला - क्या बात है, तुम आज बहुत गुमसुम दिखाई देते हो? सब खैरियत तो है?
पेड़ बोला - क्या बताऊं, आज मुझे अपने आप पर ही शर्म आ रही है। मुझे अपने जीवन पर पछतावा हो रहा है।
- अरे क्यों? तोता हैरानी से बोला।
- अब तुम ख़ुद ही देखो, मैंने अपने बदन से सब चरवाहों को लकड़ी दे दी। इस लकड़ी से लाठी बना कर ये दिन भर अपने पशु - मवेशियों को पीटते रहते हैं, मुझे बड़ा बुरा लगता है। पेड़ ने कहा।
तोता बोला - इसमें तुम्हारा क्या कसूर? तुमने तो बल्कि अनुशासन रखने के लिए अपना बलिदान ही दिया है। जो मवेशी गलती करेंगे वो सज़ा तो भुगतेंगे ही। और यदि वे निर्दोष होने पर अकारण भी मार खाते हैं तो गलती चरवाहे की है, तुम्हारी कैसे हुई।
तोते की बात सुनकर पेड़ को कुछ तसल्ली हुई। उसने अपने पत्तों को कुछ और फ़ैला कर तोते पर छाया कर दी। जिस शाखा पर तोता बैठा था उसे भी पेड़ धीरे - धीरे सहलाने लगा, जिससे आराम मिलने से तोते को नींद आ गई। तोता सो गया।
किंतु थोड़ी देर बाद ही एक सांप ने पेड़ पर चढ़ कर तोते को डस लिया। तोता बेहोशी से निढाल हो गया।
पेड़ अब फ़िर उदास खड़ा था, और सोच रहा था कि सिर्फ़ अच्छे कर्म से क्या होता है, अपना - अपना भाग्य भी तो है।
अचानक तेज़ी से आंधी चलने लगी। पेड़ ने सोचा - देखो, दुनिया में अभी कुछ तो दीन धरम बाक़ी है, कुछ भी अनर्थ होता है तो प्रकृति कुपित होकर रोष अवश्य प्रकट करती है।
उधर तोता शायद सांप के डसने से बेहोश ही हुआ था, मरा नहीं था। चमत्कार यह हुआ कि वह कुछ हिल - डुल कर फ़िर उठ बैठा। वह आंधी से बचने के लिए किसी दीवार की सुरक्षित खोह ढूंढने को उड़ चला।
जाते - जाते उसने पेड़ के चरमराने की आवाज़ सुनी। पेड़ गिरने लगा था।
तोता सुरक्षित जगह पहुंच चुका था, और वहां बैठा - बैठा सोच रहा था - पेड़ ठीक ही कहता था। उसे अवश्य ही निर्दोष मवेशियों की "हाय" लगी और उसके प्राण - प्रखेरू उड़ कर रहे।
पर तभी तोते ने देखा कि गिरते हुए पेड़ के असंख्य फूलों से छोटे - छोटे बीज मिट्टी में गिरने लगे हैं... अगले मौसम में पेड़ों की नई फसल उगाने के लिए!