कुछ समय पूर्व एक गाँव में बाढ़ आई।
एक किसान के बाड़े में दो भैसें बंधी हुई थीं। बाढ़ की अफरा-तफरी में गाँव खाली होने लगा। भैसों की किसे परवाह होनी थी, सब अपनी जान बचा कर भाग रहे थे।
थोड़ी ही देर में गाँव में सन्नाटा हो गया।
रस्सी से बंधी होने के कारण भैंसें कहीं न जा सकीं।
पानी चढ़ता रहा। पानी जब भैसों की ऊंचाई से भी ऊपर निकल गया तो कुछ देर भैसों ने ज़मीन से ऊपर उठ कर तैरने की चेष्टा की।
सब जानते हैं कि भैसें पानी में तैर कर आनंदित होती हैं। लेकिन कुछ देर बाद थकान और अचम्भे के कारण भैसों का आनंद हताशा और डर में बदलने लगा।
क्योंकि उनके तैरने या हिल-डुल सकने की जद बस उतनी ही थी, जितनी रस्सी की लम्बाई।
अलबत्ता बहते पानी में दिशा अवश्य दोनों की तितर-बितर होती रही।
घंटों बीत गए थे।
भूख के तेवर भी उत्पाती थे।
कुछ देर बाद एक हरे पेड़ की डाली पानी में बहते-बहते एक भैंस के मुंह के नज़दीक अटक गई।
अब दोनों भैसों की आर्थिक, शारीरिक, और दैवी स्थिति में विराट अंतर था।