एक शहर था।
शहर में दो तालाब थे, एक बीचों बीच स्थित था और दूसरा नगर के एक बाहरी किनारे पर। दोनों ही वर्षा पर अवलंबित थे। कभी लबालब भर जाते, कभी रीते रह जाते।
एक दिन शहर के शासक के पास एक व्यक्ति मिलने पहुंचा। वह शासक से बोला - यदि आप शहर में दो की जगह एक ही सरोवर रहने दें तो सबको लाभ ही लाभ हो जाएगा।
- वो कैसे? शासक ने पूछा।
उस व्यक्ति ने समझाया- दोनों तालाब उथले और कम भरे हुए रहने से जल्दी सूख जाते हैं। आप एक तालाब से मिट्टी लेकर दूसरे को समतल करा दें। गहरा होने पर तालाब में खूब पानी भरेगा। दूसरी जगह समतल होने पर वहां प्लॉट्स बनाइए, लाभ ही लाभ। मिट्टी खोद कर दूसरी जगह ले जाने पर मजदूरों- ठेकेदारों को लाभ। पानी को पाइप लाइन से ले जाने पर इंजीनियर से लेकर लेबर तक को लाभ। रोज़गार के प्रचुर साधन होने से चारों तरफ ख़ुशी की लहर दौड़ गई।
काम आरंभ हो गया। सचमुच शहर में विकास की हलचल और राजकोष में धन की आमद दिखाई देने लगी।
शहर के कवि उन्नति का गान करने लगे, बुद्धिजीवी वाह वाह करने लगे!
लेकिन तभी आकाशवाणी हुई कि कविगण सत्ता को न सराहें,ये पतन और चाटुकारिता की निशानी है।
कवि तत्काल सतर्क हो गए, उन्होंने तुरंत ख़िलाफत का मोर्चा संभाल लिया। वे अब गहरे हुए तालाब के बोझ पर कविता लिखते... समतल हुए तालाब के विलोप पर ग़ज़ल गाते... मिट्टी ढोते श्रमिक के पसीने पर छंद कहते...धनी होते जा रहे इंजीनियर और ठेकेदारों की अमानुषिकता पर गीत रचते...शासक की क्रूरता पर मुक्तक सुनाते... क्रांति से दुनिया बदल डालने का आह्वान करते!