उस सुरम्य पहाड़ी नदी के एक किनारे पर देवदार के पेड़ों का घना जंगल था और दूसरे किनारे पर चीड़ के वृक्षों का।
दोनों जंगलों में आमने - सामने बराबर की ठनी रहती। दोनों ओर के पेड़ अपने - अपने आधे गांव के लिए बात बात पर भिड़ते।
एक बार ये तय हुआ कि नदी में नावों की एक ज़ोरदार स्पर्धा कराई जाए। एक ओर चीड़ की लकड़ी से बनी नाव हो तो दूसरी ओर देवदार की लकड़ी की। फ़िर जो नाव जीती, समझो वही जंगल जीता।
शानदार मुक़ाबला हुआ। सभी को इतना आनन्द आया कि ये मुक़ाबला हर साल आयोजित होने लगा। मज़े की बात ये थी कि एक बार चीड़ वाले जीतते तो दूसरी बार देवदार वाले। ख़ूब शोर - शराबे के बीच सभी आनंदित होते।
जंगल में कुछ पेड़ चंदन की लकड़ी के भी थे। उन्होंने सोचा, मुकाबले से शोहरत बढ़ती है, क्यों न हम भी एक नाव बना कर मुकाबले में उतर जाएं!
लेकिन चंदन के पेड़ों ने जैसे ही ये प्रस्ताव रखा, चीड़ और देवदार के पेड़ों ने उनका जमकर मज़ाक उड़ाया। कहा - जाओ - जाओ, नदी में दौड़ना कोई बच्चों का खेल नहीं है।
चंदन के पेड़ बेचारे अपना सा मुंह लेकर वापस आ गए। किन्तु क्या करते, संख्या में कम जो थे, अपमानित होकर रह गए।
प्रतियोगिता सालों - साल चलती रही।
एक बार नदी के किनारे बहुत विशाल मेला लगा। ये तय किया गया कि हर साल नाव स्पर्धा जीतने वाले मल्लाहों का भी इस मेले में सम्मान किया जाए।
सारे मल्लाह एक कतार में खड़े हुए और उनका गुणगान किया जाने लगा।
नदी के दोनों किनारों के सभी लोग ख़ुशी से तालियां बजा रहे थे। चीड़ और देवदार के पेड़ों का उत्साह देखते ही बनता था।
तभी सब मल्लाहों को पुरस्कार के रूप में एक - एक प्रशस्ति पट्टिका दी गई। सभी ने देखा कि ये सुंदर पट्टिका चंदन की खुशबूदार लकड़ी से बनाई गई थी।
हर विजेता के हाथ में चंदन की लकड़ी देख कर चंदन के पेड़ों का सीना गर्व से चौड़ा हो गया।
चीड़ और देवदार के पेड़ नज़रें नीची किए खड़े थे। वे किसी से निगाहें भी नहीं मिला पा रहे थे। उनकी नावें एक किनारे पर चुपचाप खड़ी थीं।
चंदन की खुशबू से सारा तट महक रहा था।