अभी तक हमारी जिंदगी में डीडी1 ही था। पर अब ज्यादातर लोगों ने केवल टीवी लगवा लिये थे। अब टीवी भी ब्लैक एंड व्हाइट या रंगीन (अपट्रोन) नहीं बल्कि बाजार में रिमोट वाले टीवी आ गये थे। जिसमें 12 नहीं बल्कि 99 चैलन होते थे। यहाँ पहले डीडी1 पर हफ्ते में एक या दो कार्टून फ़िल्म देखने को मिलती थी। अब कार्टून नेटवर्क पर पूरे दिन कार्टून आते थे। पर शक्तिमान ने अब भी लोगों को डीडी1 से जोड़ रखा था।
अब सड़कों पर मारुति 800 व मारुति वैन (ओमनी) के अलावा बहुत सारी कारें आ गयी थी जैसे मटीज, सेंट्रो, टाटा सूमो आदि। पूरे शहर में कई बड़े-बड़े गिफ्ट एम्पोरियम खुल गये थे। पहले गिफ्ट के लिए बुक सेलर की दुकान पर ही जाना होता था, यहाँ थोड़े बहुत खिलौने आदि मिलते थे। पर गिफ्ट एम्पोरियम जादुई दुनियाँ जैसा था जहाँ सोच से भी ज्यादा चीजे मिलती थी। जैसे क्रेजी बॉल, जो कई टप्पे खाती थी, माउजर जिसमें पीले रंग की मोती जैसी गोलियां पड़ती थीं, ब्रिक वीडियो गेम, कारे जो पीछे खींचकर छोड़ने पर चलती थी और इनके दरवाजे भी खुल जाते थे, तार वाली रिमोट की गाड़ियाँ। बाजार में कई नये (चाईनीज) खिलौने आ गये थे, जिन्हें मैने पहले कभी नहीं देखा था। अब बच्चे चाभी वाले या घिसने वाले खिलौनों से नहीं बल्कि सेल व रिमोट वाले खिलौनों से खेलते थे।
इससे पहले जब 1985-86 में पापा का नई जगह ट्रांसफर हुआ था तब भी ऐसा ही नया-नया शहर लगा था। पहले यहाँ सारे खिलौने टीन के आते थे अब वो बिकने बंद हो गए थे। जैसे लड़ते हुए पहलवान या मुर्गे, कमल का फूल, चू-चूँ करती पंख वाली चिड़िया आदि। ब्लैक एंड व्हाइट की जगह रंगीन फोटो खिंचने लगे थे। निगेटिव भी बड़े की जगह छोटे हो गये थे। एलबम भी काले कागज की जगह सफेद, प्लास्टिक की आ गयी थी। घरों में रेडियो के अलावा लकड़ी के शटर वाले टीवी आ गये थे। मैं स्कूल के बच्चों को स्टील या अल्युमिनियम के संदूक ले जाते हुए देखता था। पर मुझे कपड़े का बस्ता (बैग) मिला था। जिसे दोनों कन्धों पर टाँग के ले जाया जाता था।