दूसरी क्लास के बाद हर साल मेरा स्कूल बदतला रहा। पर तीन साल तक किसी भी स्कूल में मुझे यह चूरन वाली खटिया (दुकान) नहीं मिली। इन तीन सालों तक में इन 5-10 पैसों की चीजो को खुद खरीदने को तरसता रहा। क्योंकि बचपन में कितनी भी महँगी चीजे मिल जाये पर इन चीजों का अपना अलग मजा होता था।
फिर छठी क्लास में आने पर मुझे मोहल्ले में ही, गली के नुक्कड़ पर चूरन की एक दुकान मिली। यहाँ पर सन्तरे की गोली, पाइप (स्ट्रा) वाला चूरन, छोटे-छोटे खिलौने सब मिलते थे। पर इन सबके साथ इस दुकान पर लाटरी भी मिलती थी। एक कागज पर अबरी की बहुत सारी छोटी-छोटी पर्चियां चिपकी होती थी। इनको फाड़ने पर ईनाम मिल सकता था। 10 पैसे की लॉटरी में कई बच्चों के एक रुपये तक निकले थे। छोटे-मोटे खिलौने भी निकल आते थे। इसी लालच में मैंने भी लॉटरी खेलना शुरू कर दिया। साल भर तक हम इस मोहल्ले में रहे और पूरी साल तक मुझे जो भी पैसे घर से मिलते थे वो ज्यादातर लॉटरी पर खर्च हो जाते थे। इस पूरे साल में मेरी केवल दो बार लॉटरी निकली। जिसमें एक बार पच्चीस पैसे और एक बार एक रुपया निकला था। बाकी बार तो मेरे 10 पैसे खराब ही गये। इन 10 पैसों में मैं बहुत कुछ खरीद सकता था जैसे सन्तरे की टॉफी, चूरन, लेला की उंगली, खिलौने आदि। तीन साल बाद ये दुकान देखकर मुझे बहुत खुशी हुई थी। पर मेरी सारी खुशी चूरन वाली लॉटरी ने छीन ली थी। जिन पैसों से मुझे खुशी मिल सकती थी वो सब इस लॉटरी पर खर्च हो जाते थे।