दादाके कमरे में जाकर मैंने जो देखा उससे एक वारही स्तामित और मर्माहत होकर रह गया वहाँ मैंने देखा की आठ मास पूर्ब जिस मन्दिर में में अच्छे शरीखाली, आभामयी और सदा हँसमुख रहने- वाली पुण्य प्रतिमाको प्रातिष्ठटित कर गया था उसको किसी नरांधम चोरने तोड़ फोड़ डाछा है ओर उसके बदलेमें एक झुलसी हुई अति दीन, अति हीन, और शीणेररीर सत्रीके केकाछको बैठाल दिया है। जिन नयनोंको में बहुत उजल और बहुत मघुर देख गया था आज वेही कोओंमें धँंस रहे थे और प्रभाहीन मलौन हो गये थे | भावज: मुझका देख कर कुछ मुझोई हुई हँसीं। भाई अमर, “ वह हँसी ऐसी थी जिसको कि तुम नहीं समझोगे ओर समझ सकोगे भी नहीं। वह हँसी मानव-हृदयकी अनन्त यातनाकी विकाश मात्र थी, उसमें मिठास नहीं थी, उसमें आनंद नहीं था; वह बहुतही म्छान और निराश प्रकट करनेवाली थी । उन्होंने कहा कि “ देवर, तुम इतने कमजोरं हो गये हो | ”
“ और तुम-भाभी तुम-यह तुझारे हाथ कैसे हो गये ” मेंने आश्चरययसे परूँछा---“ क्या बीमार तो नहीं हो गई थीं ? ” ।
भावजकी आँखोंसे आँसू बहने लगे | मुझको और कुछ पूछना: बाकी नहीं रह गया ।
भावजने रोते रोते कहा “ देवर, यदि तुमने एकवार मुझसे कहा होता; एक वार भी मुझको खबर की होती---!
मार्गमें एक साथ सर्प सामने आजानेसे भी पथिक इतना नहीं घबराता है | मुझे आज सूझ पड़ा कि मेंने केसी सर्बनाशी भूछ की थी । भयानक आत्मग्लानिसे मेरे ममेस्थछ जल उठे | हाय, हाय, मैंने.
क्या किया, क्यों नहीं कह दिया ! अपनी वस्तुको बचानेकी वे तो जीजानसे चेष्टा कर छेतीं ) हाय, हाय, मैंने उनसे सब बातोंको क्यों छिपाया ! मुझमें भावजकी ओरको मुँह उठाकर बात करनेकी सामथ्य नहीं रही में निःशब्द होकर रोने लगा ।
मुझको इस अवस्थामें देखकर भावजने कहा, “ नहीं देवर, मेंने यह नहीं कहा । इसमें भला तुम्हारा क्या दोष है ? भाग्यमें जो लिखा है बह तो होगा ही । मेरे देवतुस्य स्वामीका स्वभाव दूषित होनेवाला नहीं था । निश्चय जानो कि किसी बुरे ग्रहकी कुद्ष्टिसे ही यह सब हो रहा है | शान्त होओ, घबराओ नहीं, ग्रहका भोग पूरा होते ही इन सब बातोंका भी अवश्य अंत हो जायगा । हमारे अच्छे दिन फिर छौट जायेंगे | ”
बाहरके मकानका मार असवाव कुछ भी नहीं रहा था। फुल- वाड़ी भी नष्ट हो गई थी । हमारा सुशुंखल मकान विशंंखलाका आदर्श बन गया था। घर पर कोई आता जाता नहीं था। संध्याके समय छोटी बहिन यामिनीने आकर कहा, “ छोटे दादा ! दादा तो बिगड़ ही गये । इधर घरमें एक ज््री हत्या हुई जाती है। इस लिए तुम्हें अपना करते- व्य करना चाहिए। भाभी दादाको खिलाये बिना खाती नहीं और दादाके आनेका कोई ठीक नहीं है। पिछले महीनेमें भाभीने पन्द्रह दिन खाना नहीं खाया | भूखके मारे उसका शरीर टूटगया है और रोज संध्याको उसे ज्वर हो आता है। नहो तो उसको कुछ दिनोंकों उसके बापहीके घर भेज दो। तुम कहोगे तो तुम्हारा कहना मान छेगी, हम तो उससे कई वार कह चुकीं।
पूजाके कई दिन बीत जाने पर मैंने एक दिन भावजसे बापके घरको चली जानेको कहा | उन्होंने रोते रोते उत्तर दिया, “देवर तुम मुझसे अनुरोध न करो । उनकी अवस्था ऐसी हो रही है । यदि में भी चली : जाऊँगी तो उन्हें कौन देखेगा सासजी बूढ़ी हैं, वे कुछ कर नहीं सकती | यहाँसे चली जाकर में एक मुह्ठ॒तेको भी निश्चिन्त न हो सकूँगी । हारकर मैं निरुत्तर होगया। वेद्यको बुला कर मैंने औषधादिककी व्यवस्था कर दी | घर पर मन नहीं छंगा | में कलकत्ते चला आया |
कलककत्ते पहुँचने पर भी में अपने मनको पढ़ने लिखनेमें नहीं लगा. सका। उस पर चिन्ताका बोझा छदा हुआ था। मित्रोंके साथमें ओर खेल कूदमें जी नहीं लगता था | जितना भी हो सकता था पढ़- नेकी चेश् करता था | अच्छा न छग॑ने पर गोलदीधि पर जाकर चुप- चाप जा बैठता था। एक दिन काछिजसे आकर मैंने देखा कि मेरे नामकी दादाके हाथकी लिखी हुई एक चिट्ठी पड़ी हुईं है । बहुत दिनों पीछे दादाकी चिट्ठी देख कर आश्चय हुआ | पत्र पढ़कर मेरे होश जाने लगे। बड़े कष्टसे अपने आपको सँभाल कर में स्टेशनकी ओर चल पड़ा। मेंने घर आकर देखाकि सब मिट गया! मुझको देख कर दादा बालककी भाँति रो पड़े | उन पर मेरी ममता नहीं हुईं। हृदयकी आग दूंनी होकर जल उठी । उनकी शांतिके लिए भी में प्राथेना नहीं कर सका । मनमनमें मेंने कहा, “ कुछ ददिन प्रूव चेतजानेसे शायद सब बिगड़ा हुआ काम बन सकता था। अब तुमसे कहनेकी और कोई बात नहीं है और न में कुछ कह ही पाऊंगा। भगवान् करे कि
'तुम्हाशा पछतावा अब तुमको पापप्रथमें न जाने देवे---समस्त जीवन यह अनुताप-वारि तुम्हारे नयनोंसे अजस्न धारामें बहता रह कर तुम्हारे घोर पापकी कालिमा को धो डालने की चेष्टा करता रहे। जिस रत्नको तुमने खो दिया वह अब नहीं मिल सकता है। उस दिन जिसने तुम्हारे लिए सर्वस्व देडाला वह अब तुम्हारे सौवार रोनेसे भी नहीं छोटेगी | पापी और स्वार्थी मनुष्यके निष्टुर निष्पीड़नको तुच्छ करके वह किसी पुण्यमय सुरभित, और सुन्दर देशको सदाके लिए चल गई । स्वार्थका न रुकने वाला स्रोत वहाँ तक बहकर नहीं जा सकता, पापकी सवव॑ नाशी आग उस पुण्यमय देशको नहीं जला सकती । वहाँ मदोन्मत्त मनुष्यका निष्टर हाथ, दुबल पर अत्याचार नहीं कर सकता | अनन्त शांतिके मध्यम अनन्त प्रेमसे वह देवप्रतिमा अनन्त काल तक बहां प्रतिष्ठित रहेगी | ”
मै नहीं कह सकता कि हम दोनों कितनी देरतक निस्तब्ध रहे | यह निस्तब्बता एक राहगीरको गतिसे टूट गई । संध्या हुए बहुत देर हो गई थी। राहगीर अपने मनमें गारहा था---
“ रच्यो हरिखेलहिमे संसार |
भवविचलाय अनेक खिलछोना कीन्हों खेल अपार ।
खेलिखेल कछु काल अंतम फेंक दई खिलछवार ॥ ”