एक ही दो बार नहीं मेंने भावजके श्रांत विश्वासको दूर कर डाल- नकी बहुत बार चष्टा की | वे सोचती थीं कि यह लजासे ही ऐसा अनुरोध करता है। असलमें उसके मनका विश्वास वही है जो कि मैं समझी हूँ । में बड़े पेंचमें पड़ा । यह बात दादाके कानोंतक पहुँची भी नहीं जान पड़ती थी, क्योंकि बीचबीचमें प्रकाश उनसे मिलता रहता था । उसकी बहिनसे मुझको जो घृणा हो गई थी, उसका कुछ अंश अब प्रकाश पर भी जा पड़ा ।
अगहनके मासमें मेरी एम. ए. की परीक्षा समाप्त होगई | मनकी अवस्था भर्डाी नहीं थी, इस लिए प्रश्नोंके उत्तर भली भाँति नहीं लिखे जा सके । इससे मुझको कुछ अधिक दुःख नहीं हुआ। मैंने सोचा कि जब सारे ही जीवनभर दुःखोंकी बेड़ी पेरोंमें डालकर कॉंटोंसे भरे हुए मार्गमें जीवनयात्रा करनी पड़ेगी, तब इस एक परीक्षामें पास या फेल हो जानेस कौनसी बड़ी हानि हुईं जाती है ?
एक दिन दादाने कहा, “रमेश, आज कहीं जाना नहीं । संध्याके समय प्रकाशक पिता--बाबू तुमको आशीबीद देने आवेंगे ।
अब मुझको सुविधा हाथ छगी ओर मैंने कहा--आशीबोद कैसा दादा ? क्या मेरा-- | '.
दादा हँसते हंसते दूसरे स्थानको चले गये | उस समय भी उन्होंने मेरे दुःखको नहीं सुना | मेने विचारा कि इस विषयमें अब उनको आगे नहीं बढ़ने देना चाहिए। आशाीवतरोद हो जाना तो एक प्रकारसे विवाह ही हो जाना है। डूबनेसे पूरे क्या एक बार तैर कर तट पर निकल जानेकी चेश्य करना उचित नहीं है ? इस लिए छज्जाकों भाड़में डाठकर में मन्थरग- तिसे दादाके कोठे पर पहुँचा |
खूब साहस करके मैंने दादासे गंभीर भावसे कहा---“ दादा, मे विवाह नहीं करूँगा | ” दादा कुछ लिख रहे थे। मेरी ओरको मुख करके वे बोले--- “ अच्छा, न करना | ”
उस समय दादाके मुखका भाव देखकर ओर अपनी छज्जाको छोड़कर में सरल स्वाभात्रिक भाव धारण करनेके लिए हँसदिया दादा भी हँसदिये । जीको रोककर मेंने फिर रूखे भावसे कहा---
'' नहीं, दादा हँसीकी बात नहीं है। भें ब्याह नहीं करूँगा ।”
दादाने लिखते लिखते कहा, “ अच्छा, भाई | मत करो |”
उस समय मेरी लज्जा चली गई थी | सरस्वती स्वय॑ आकर मेरे कण्ठमें बैठना चाहती थीं । मेंने बड़े आग्रहसे कहा--“ नहीं दादा, में सच ही कहता हूँ कि विवाह नहीं करूँगा। न मालूम भाभी ने एक भूल में पड़कर तुमसे क्या कह डाला ---!
बड़े भाई मुह उठाकर कुछ मुस्कुराते हुए कहने लगे---“ अरे तू क्या मुझको काम नहीं करने देगा? हंम लोगोंने इस विषयमें कुछ भी नहीं सोचा है | क्या आज तुझे किसी खेलमें नहीं जाना है ”
मुझे हताश होना पड़ा | मैंने जान लिया कि चेष्टा: करना व्यथ, है विरक्ति, छेश और निरुत्साहको सिरपर छाद कर में क्रिकेट खेल- नेको चला गया |
ब्रह्माके लिखे हुए विरुद्ध कार्य करना क्षुद्र मनुष्यके लिए असाध्य है। बेचारा प्रबोध वर्षभर परिश्रम करने पर भी परीक्षा में फेल हुआ और सिर पर मुसीबत रहते और हृदयमें दारुण आन्दोलन रहने पर भी में परीक्षा में पास हो गया। भने विचारा कि विधिलिपि सचमुच अखण्ड- नीय है । जब हृदयमें असह्य यातना भोगकर भगवान्को कातर कण्ठ्से पुकारने पर भी विवाहकों नहीं रोक सका, तब बिचारा कि “भग- वान् तुम्हारे कार्यो समझना मनुष्यके लिए असंभव है|” किन्तु शुभ विवाह हो गया इससे कया मेरे भीतरकी अग्नि शांति हो गई !
यह सोचकर मेंने विना चूँ किये हुए विवाह तो कर ही लिया कि पिताका अपमान होगा; किन्तु यह किसीको नहीं बतलाया कि प्राणके भीतर कैसा भीषण इश्विकरंशन हो रहा था । जिस दिन परीक्षाका फल प्रकाशित हुआ उस दिन मेरी फ़्लशब्या थी । मेंने स्थिर किया कि आज भी कुछ गड़बड़ न करके प्राणके भीतरको अगम्निको प्राणके भीतर ही बुझाऊँगा । दुलहिनके आनेके दिनसे मेंने भीतरके मकानका आना जाना ही छोड़ दिया था |
संध्याके बाद कुछ सामाजिक और अपने कुलकी क्रियाओंके करनेके लिए मुझको घरमें जाना पड़ा | भावज बोढीं--देखा बहूका कैसा भाग्य है! इधर बहू आई, उधर तुमपास हो गये। यह कसी भीषण बात थी! क्या में बास्तवमें ऐसा अपदार्थ हूँ कि बिना स््रीके भाग्यकों सहायता पाये हुए परीक्षामें उत्तीर्ण ही नहीं हो सकता था ? फ़ूछोंकी सुगंधसे भरे हुए फ़ूलबासरमें लेटा हुआ में यही विचार रहा था | में सोचता था के मेरे पासवाली यह कदये ओर दुश्री क्ली अपने अशिक्षित और बुद्धिहीन मस्तिष्कमें मुझको कितना हेय समझ रही होगी । यह बात इसने अवश्य ही सुना होगी . कि भे इसके फोटोकों लेने जाकर इसके रूप पर मोहित हो गया ओर स्वय॑ मैंने ही इसके साथ विवाह करनेका प्रस्ताव किया ।
ओह, कितनी भयंकर बात है! ऐसी संतोष और आमोदकी बात सुनकर भा किस छ्लीका स्वाभाविक गव दसगुना नहीं बढ़ जायगा ? इसके अतिरिक्त जब संध्याको इसने यह सुना होगा कि मेरी एम. ए. की उपाधि मुझको इसीके भाग्यसे प्राप्त हुई है, तब इसने मुझको ।कैतना हेय समझा होगा और अपने आपको कितना बड़ा माना होगा!