'' चित्र में लिए जाती हूँ ” |
मैंने हाथ फेला कर कहा--“ वाह | तुम चित्रको लेजाकर करोगी क्या ! ”
भाभी हँस कर बोलीं---“ और कुँवारे लड़के होकर एक कैँवारे लड़कीकी छब्रिको रख कर तुम्हीं कया करोगे। ”
बात ठीक थी, किन्तु उस चित्रको छोड़ देने की भी रत्ती भर इच्छा नहीं थी । इस लिए मेंने सोचा कि इसका निगेटिव तो मेरे पास हां है अभी दूसरी और छाप ढछाँगा | भाभी हँसती हुई उस छब्रिको लेगई मेरे जी में एक भीषण तर्क उठा | क्या एक दूसरे घरानेको कुँवारी कन्याकी छबि लेकर संध्याके आकाशकी ओरको देखते हुए बैठना यह क्या कुछ अनुचित काये हो गया ? सामने आँख जाने पर मेंने देखा कि एक फानूस आकाशमें उत्रातः हुआ चला आरहा था। जब- तक फानूस दइृशष्टिसे बाहर नहीं चछा गया तब तक में बराबर उसीकी गतिको देखता रहा। मैंने सोचा कि शायद भावज अपने जी।+ यह समझेंगी कि ऊषाके सोन्द्यने रमेशके हृदय पर अधिकार कर लिया है । बड़ी भूल मुझसे होगई। मेंने उनसे कह क्यों न दिया कि ऊषाका असली रंग काला है, केवल मेरी कारीगरीहीसे चित्रांकित ऊषाका रंग सुन्दर सा दीख पड़ता है।
उस दिन “श्यामा-पूजा ” थी | दादा सोदागरी आफिसमें खजा- ज्वीका काम करते थे | इस लिए और दिनोंमें उनको नो बजेके भीतर ही दो पहरके भोजनकों समाप्त कर लेना पड़ता था | आज छुट्टीका दिन था, संभवत: ओर दिनोंके प्रातःकाल ही भोजन कर डालनेके कष्टका बदला लेलेनेके लिए दोपहरका समय बीत जानेपर भी स्नानादि किसी काममें भी वे आग्रह नहीं दिखछाते थे । वे उस समय तक बैठकमें बैठे हुए “ अअ्चना ? हीको पढ़ रहे थे और पिताजीके साथमें किसी विषयमें गूढ़ परामश कर रहे थे। पिताजीकी प्रकृति स्रभावहासे गेभीर थी किंतु फिर भी वे मामलेकी बातोंमें दादाकों शर्रक करके उनको सम्मा- नित करते थे | उनके दरबारमें में बहुत ही कम जाता था। माताहीन बालक प्राय: पिताहीसे बडा प्रेम रखते है, किंतु मेरी प्रकृति और प्रकारकी थी। उन दिनोंमें मेरी परीक्षा पास आगई थी | इस लिए भें पासके कमरेमें बैठकर विश्व विद्यालयकी निर्वाचित पाठ्यपुस्तकोंसे घनिष्ठता करनेकी चेश कर रहा था । अचानक दादाने मुझको बुलाया । मेरे कमरेम प्रवेश करत ही पिताजी अन्यत्र चले गये।
दादाने पूछा--“ प्रकाशका घर कहाँपर है? ”
मैंने उनको ठीक ठाक बतदादिया । किंतु मुझको कुछ विस्मय भी हुआ कि इस प्रइनका तार्त्पप क्या है !
उन्होंने पूछा--“ प्रकाशके पिता क्या करते हैं ? ”
मैंने कहा---/ वे हाइकोर्टके बकीछ हैं। उनका नाम---बाबू है ।
उन्होंने कहा---“ ओह, वे तो बड़े नामी वकील हैं |”
मेंने पूछा--“ क्यों दादा, उनके विषयमें आप इतनी पूछताछ क्यों करते हैं ? ”
दादा बोले, “ इस बातका जानकर तू क्या करेगा ”
सब मामला मार्के का समझ पड़ने लगा । मनमें संदेह हुआ कि भाभीहीने उस छब्रिको लेकर एक काण्ड खड़ा कर दिया है। किंतु प्रकठमें चित्रकी कोई भी बात में नहीं कह सका । भी मॉतिसिे देख- नेपर मुझको देखनेमें आया कि दादाके अधरके सिरेपर कुछ हँसी छिपी हुई थी
भैया दोयजके दिन भाईके साले अवनी निमंत्रणमें आये | अवस्थामें मेरी अपेक्षा कम होनेपर भी साले होनेके कारणसे वे मुझसे हँसी ठठोली करते थे। थोडी देर बातचीत करके अवनी बोले--- रमेश बाबू , आपके “रोमेंटिक लाभ” की सब बातें मैंने सुनीं। यह ठीक ही है, आजकलके बाजारमें अपना “ पार्टनर ” (जोड़ा ) आप ही ठीक कर लेना अच्छा है |
अब मुझको तिलभर भी संदेह नहीं रहा । मेंने जान लिया के छबिवाली बात महिलामस्तिष्ककी उवैरतासे इतनी दूरतक फैल गई है। उसकी भ्रांत घारणाको दूर कर देनेकी मैंने उचित चेश की, किन्तु किसी भांति भी उसके उस विश्वासको में तोड न सका |
उस दिनसे एक विषम भावना मेरे हृदयको हिलाने लगी। इस बातको सबको केसे समझाऊँ कि ऊषा पर मेरी आसक्ति नहीं है ! भद्गता के कारण से में मित्र की बहिन की प्रशंसा कर सकता था, किंतु इसी बातसे उसको अपने जीव्रन की संगेनी बना लेने की मेरी बेल- कुल इच्छा नहीं थी । मेरे मनमें तो यह इच्छा थी कि किसी असामान्य रूपवाली /श्री वाली बुद्धि और विद्यावकी छलनाका पाणिग्रहण करूँगा | बन्धुबांघवोमें दो एक वार इस व्रिषय पर मेरा गवेषणापूर्ण व्याख्यान भी हो चुका था कि आदर्श स्त्री कैसी होती है।
मैंने कल्पना से जिस आदरशेको हृदयमें चित्रित कर रक्खा था ऊषा उससे कितने ही सीढ़ी नीचे है यह बात सबके सिरमें केसे प्रवेश कराऊँ | इसका कोई भी उपाय समझमें नहीं आता था । ऊषाके संबंध में जितना भी विचार करता था वह उतनी ही बुरे रूप और श्रीवाली समझ पड़ती थी। यह तो उसके कपड़े ओर गहनोंके पहि- नावसे ही विदित हो गया था कि वह शिल्पसे अनभिज्ञ है। फिर भी और सब छोग यही समझ रहे थे | उसके गुण ओर रूपमें में मोहित हूँ। छिः, छि: मेर कानों तक फेले हुए उज्बल नेत्र द्वय क्या सवंधा ही दश्टिहीन हो गये ?
कैसी भ्रांत घारणाम फँसकर घरवाले स्नेहके कारण बडी पिन्से कार्य कर रहे थे !
मैंने जीसे सोचा कि मुझको इस बात का पता पहले क्यों न लग- गया कि पिताके हृदयमें इतनी उदारता और इतना रनेह है। भूलसे यह विश्वास हो जाते ही कि में एक लडकीसे प्रेम करता हूँ थे कितनी चिन्तासे का रहे हैं | भेंने विचारा कि इन बार्तोमें घर्वालेंहीके दोषसे अनेक युवकोंका भविष्य एक वारही दुर्दशापूण बन जाता है कितने ही युवक आत्ससंयम न कर सकने पर पाप करनेकी ओरको झुक पड़ते हैं।
यह विचार कर मेरा जी बडा ही व्याकुछ हो जाया करता था कि भेरे विषयम यद्यपि पिताजीका उद्देश्य बहुत ही भला है, तथापि उसका फछ विषमय होगा | कभी कभी भें यह भी सोचता था कि पिताजीका कहना न माननेसे भी क्या होगा। क्योंकि एक न एक दिन विवाह तो करना ही होगा । विवाहित जीवनका संपक स्रीके रूपसे बहुत थोडा ही है। किन्तु ज्यों ही में उषघाकी बात सोचता था त्यों ही उसके रूपके दोष बड़े विराट आकारमें मेरे हृदयके नेत्रोंके सन्मुख आ जाते थे। और यह बात मुझको बडी पीड़ा देनेवाली बनगई कि मुझको ऊषाकी दृष्टिमें भी हेय बनना पडा | इस लिए उसको केवल शोभा- हीन मानकर भी शांत नहीं हो पाया-मुझे उस पर क्रोध आया और हिंसाका भाव हुआ | भावज पर भी ऋरेघ हुआ । मेंने सोचा कि वास्तवमें स्लियोंकी बुद्धि प्रलय करनेवाली है ।
क्रमसे यह अवस्था हो गई कि इस बातकी हृदयमें दाबे रखना असंभव हो गया । पर पिता या दादासे तो इस बातकों कह डाल- नेकी शिक्षा या क्षमता मुझमें थी नहीं | ओहो ! वे कैसी भारी भूलकी नींव पर मेरे सुखके महरूकों बनानेकी चेष्टा कर रहे थे | मेरी कल्प- नामें इसका भावी फल भी मिल भावसे चमकता दिखाई दे रहा था। में जान रहा था कि यह अगद्गाडका मेरे ऊपर गिरकर मुझहीकों पीस डालेगी ।
इस सारे अनिष्ट की जड भावजसे मेंने एक दिन कहा, “छि; छिः, भार्भी ! तुमने वे सा बचपन किया ?”
उन्होंने कहा---“ क्यों मेरा क्या अपराध हैं ? ”!
मेरे जामें बहुत सी बातें उठ रही थीं | इस लिए घैय घरकर मेंने उनसे कहा--
क्या मेरे नेत्र नहीं हैं? यदि अपने आप देखकर ही में विवाह करूँगा, तो भला प्रकाशकी बहिनके रूप ही पर जाकर क्यों मोहित होर ऊँगा तुम सबको रोक देओ । मुझे सदाके लिए विपदमें न फँसा देना।