उसकी उजली श्यामवर्णवाली देह एक रेशमी वस्त्र से ढकी हुई थी। यदि उसका वर्ण और आधिक उजला होता, तो वह बड़ी सुन्दर त्तरियोंमें गिनी जासकती थी। इस लिए मेंने यह स्थिर किया कि इसका चित्र इस ढंग से दूँगा की जिससे इसका रंग गोरा समझ पड़े | उसका बेश और विन्यास भी मुझको कुछ ऐसा दृष्टिसुखकर नहीं जान पड़ा।
मैंने प्रकाशसे कहा--“अपनी बहिनके कंधेसे वस्त्रके अंचलको उठाकर कुछ अंशको पृथ्वां पर गिरजानेदो । ऐसा होनेसे वेश सुन्दर दिखाई देने लगेगा | ”
प्रकाशन कहा-जैसा चाहो वैसा सँभाल न छो | ऊषा अभी लड़की है। तो भाई पोशाककी सजावटका तो मुझे कुछ अधिक ज्ञान नहीं है। 'तब मुझको ही वेश विन्यासमभ अपने हाथसे संस्कार करना पड़ा। प्राय: बारह वषेकी होजाने पर भी ऊषाके चालचलनमें बचपनकी सिधाई ओर माघुरी झलकता थी। यदि ईश्वरने उसको चंपाके फ़ूलकासा रंग ओर देदिया होता तो लड़की बड़ी ही सुन्दरी और छावण्यवती होती।
मुझको अब भी भली भाती से स्मरण है कि उस दिन १२ तारीख आर कार्तिक के कृष्णपक्ष की तीज थी। संध्या हो गई थी। यह बात भली भॉतिसे समझमें आरही थी कि शहर पूरा पूरा निस्तब्ध ओर कोला - हल शून्य न होने पर भी एक दिव्य शान्त भाव आकर ऋमसे प्रकृतिके ऊपर आधिपत्य जमाने की चेस्टा कर रहा है। मैं घर में बैठा हुआ खुले हुए हवा दान में होकर आकारशंके सौन्दर्यको देख रहा था । मेरी गोदमें एक पुस्तक थी और हाथम ऊषा का एक चित्र था। उसदिन आकाश कैसे सुन्दर और हृदयके प्रफुल्ठित करनेवाले मनोहर साजोसे सजाहुआ था । श्याम वर्ण के असीम विस्तार के बीच में असंख्य चमकते हुए उजले तारोंकी राशिसे घिराहुआ नवीन चन्द्रमा मुसकुराता हुआ पृथ्वी पर अमृत बरसा रहाथा | कलकत्तेके ऊँचे कोठों पर जो आकाश दीपक बँव थे वे आकाशके नीचे एक हीनप्रभ तारिकाओंके समूह जैसे जान पड़ते थे | इसमें संदेह ही नहीं है कि उस ज्योत्स्नामयी ( चन्द्र ) विमानके नीचे वह मनुष्योंकी सजाइ हुई दीपावली वास्त-बिक ताराओं की शोभा कों बढ़ा रही थी |
मै बाहर आकाशकी ओरको देख रहा था और बीच बीचमें अपने हाथवाली किशोरी मूर्तिको भी देखता जाता था | उस मूर्तिके असली मांस गठित आदर पर छट्टू होकर या उस चित्रकी आदर्श मर्तिको स्मरण करनेके लिए ही उस फोटो चित्रको मैंने अपने हाथमें ले खा था सोबात नहीं है। अपने मित्र प्रकाशचन्द्रकी अनूढ़ा बहिन पर मेरी कोई औपन्यासिक आसक्ति नहीं उत्पन्न हुईं थी और न ऊषाके ऊपर मेरे हृदयकी कोमल वातियें हीं पड़ी थीं। मेरा प्रेम हो गया था उस फोटोके चित्रसे | अपने हाथसे लगाये हुए वृक्षके बढ़नेसे जेसे नयनोंको आनंद होता है बेसे ही ऊपाका चित्र मेरी दष्टिको सुख देने छगा। अपने हाथसे शिवालिंग बनाकर पूजा करनेसे जैसे भक्तको एक नये प्रकारका आनन्द होता है मेरी मी ऊपषा- के चित्र पर वैसी ही आसक्ति पैदा हो गई थी | यदि में उसकी ओढ़नकि ऑचलको पृथ्वी पर नहीं ढटका देता, बालिकाकी कुंचित केशराशिकों यदि कंघीसे भेंने आसपासको न फैला दिया होता और यदि अपनी कारीगरेके सूर्यके उजाढेको मुखपर प्रतिफलित करके उस श्याम कर्णक मुखके चित्रको श्वेत न बना दिया होता तो ऐसा सुन्दर और मनोरम चित्र कभी नहीं हो पाता |
जिस समय में अपनी प्रशंसा इस प्रकारसे करके आत्म प्रसाद लाभ कर रहा था उसी समय भाभी धीरे धीरे आकर और मेरे पीछे खड़ी होकर ऊबाके चित्रको देख रही थीं | मैंने जो ध्यान दूसरी ओर करनेक लिए पीछेको दृष्टि फेरी तो देखा कि भावज खड़ी हैं !
भाभी मृदु और मन्द मुस्कुराहठ से बोलीं--" क्यों देवर, यह छवि किसकी है? ” कुछ अप्रस्तुत रहने पर भी आत्मगोपनकी चेष्टा करनेके लिए मैंने चित्र भाईकी पत्नीके हाथमें अपण कर दिया और गर्व पृत्रक कहा “ भाभी, देखो देखो-चित्र केसा है ! ”
चित्रकी उत्तम रूपसे परीक्षा करके भाभी बोलीं--यह चित्र है किसका ! ”
मैंने कहा “ इस बातसे क्या ? छवि केसी है? ”
भाभी बोलीं “ लड़की तो बहुत ही सुन्दर है । क्यों है या नहीं। मैंने कहा कि “तुमसे इस मतामतकी जिज्ञासा नहीं की जाती है कि लड़की का चेहरा सुंदर है या कुरूप, तुमसे तो यही प्रछा जारहा है कि फोटो केसा खिंचा है।
अब भावजके रोके हँसी नहीं रुक सकी । हँसकर बोलीं “अच्छा ऐसा ही सही | अब यह तो बतरछाओ कि यह लड़की है कौन ? ” . मैं बड़े चक्करमें पड़ा । ऐसा जान पड़ रहा था कि मैं मन्त्रके बलसे उनकी क्षमताके अधीन होता चला जारहा था। में यह भी समझ रहा था कि चित्रके संबंधमें कोई भी बात छिपानेसे भाभीकी क्षमता मुझपर दूनी हो जायगी । इससे उनको ऊषाका परिचय दिया |
उन्होंने पूछा कि लड़कीका नाम कया है!
मेंने कहा----- “ ऊषा ?
अवस्था ?
'' अन्दाजसे ग्यारह बारह वर्षकी होगी। ”