प्रियतम सुषमा, तुम्हारी चिट्ठी पढ़कर हृदयमें भाला सा लगा | प्रूजाके दिनोंमें तुम्हारी बहिन मृणालिनीने क्या तुम्हारे साथ कुछ झगड़ा किया था? उसका क्या अधिकार है, जो तुमको कुछ कह सके । मेरा जी है मैं तुमको प्यार करता हूँ । तुम्हारी चिट्ठी पाकर कल उससे खूब झगड़ा किया । तुम्हारे प्रेमकी सब बातें उसको आदिसे अंत तक सुनादीं । उसको भली भाँति समझा दिया कि में तुम्होरे गुणों और शैक्षापर मोहित हूँ, तुम्हीं मेरी एक मात्र अर्धाश्वरी हो, तुम्हारे रूपकी ज्योति संसारको जीत लेनेवाली है, तुम्हारा प्रेम बड़ा गहरा है, हमारे तुम्हारे प्रेमकी धार उसकी जैसी छोटी बेलसे रुकनेवाली नहीं है और मेरे चित्तकी गतिको रोकनेकी चेष्टा करना उसका पागलपन है। वह ये बातें सुन कर चुप हो रही । शायद रोती रही होगी । उसको कोई बड़ा रोग होगया है । दिन दिन दुबली होती जाती है; अच्छा इन सब बातोंको अब इस समय छोड़ो । सुषमा ! अब फिर तुम कब देखनेको मिलोगी ? ना समझ भुजेनको एक वार फिर न भेज दो कि वह आमंत्रित करके मुझे बुला लेजाय । देखा, आदमी विना लिखेपढ़े कैसा होता है? क्या तुमको उसपर दया नहीं आती १ अब अधिक लिखना व्यर्थ है | मिलने पर सब हाल कहूँगा। सुषमा अब विदा लेता हूँ । इति ।
अमभिन्नह्दय, अमर ।
प्राणाधिक अमर, देखा कैसा साहस किया ! उसीके हाथों तुम्हारे पास चिट्ठी भेज दी थी | प्रत्येक पढ़ी लिखी स्त्री के यादे ऐसा ही बुद्धिमान स्वामी हो, तो आत्महत्या करनेवालोंकी गिनती बहुत बढ़ जाय | लाख (मोहर अम्मा आते तो खूब अच्छी तरह देख ली थी कहीं वह सस्तेमें खोल कर पढ़ लेता ? डर भी क्या था ? बह तो मुझसे यमकी तरह डरता है। उड़ा देती, कह देती कि वे बड़े ठठो लिये हैं, इसी लिए मेंने भी हँसी की थी। आज रातको आना मत भूल जाना | निमंत्रणकी याद दिलनेहीके लिए यह चिट्ठी लिखी है । चातकीकी भाँति आशासे सड़कहीको देख रही हूँ । न आओ तो मेरा ही सिर खाओ-आना ज़रूर !
सेविका, सुषमा ।
प्यारी मृणालिनी, बड़ी सर्दी होगई है | वैद्याज बहुत सोचमें पड़े हैं | कहते हैं । कविता क्या कारण है? बूढ़ेने सैकड़ों श्लोक सुना डाले | हाय भाग्य ! क्या शाद्म सभी बातें लिखी पड़ी हैं! मैंने मन ही मन सोचा कि ओझाको बिना बुलाये यह बीमारी नहीं जा सकती । बिना बैगीके भला कहीं वैद्यके घरका सांपकाटा अच्छा होता है ? मैं तेरी बड़ी बहिन हूँ । तेरे पेरों पड़ती हूँ कि इस मामलेमें अब अधिक झगड़ा मत उठा। तेरी चिट्ठी पाकर ही तो श्वसुरर्जाको रोगकी पहिचान हुई है | पहले कोई भी नहीं समझा था। सास जो सेवा जुश्रूषा करती हैं, उससे मुझे कष्ट होता है। तुम्हारे पीडाके संवाद देनेहीसे ब्राह्मणकी छडकौको इतना कष्ट हुआ | अब सबको देखकर उनके पैरोंकी घूछ शिर चढ़ाती हूँ | तीन दिनसे रोग बहुत बढ़गया है । उठा नहीं जाता है| जान पड़ता है कि शांति पास ही है। मेरा अपने लिए हादिक आशीबोद जानना | इति ।
तुम्हरी अभामिनी बहिन, किरणबाला |
भली भाती समझ लिया कि किरण दीदीकी भृत्युका कारण में ही हूँ । साल भर पहिले जान पाती तो अच्छा होता । कया करूँ? बहुस ही सबल वासना की ऑधीके झोकि मे पड़कर में तिनकेकी भातिसे डड गई | जिस समय पतंग दीपककी उज्ज्वल चमक देखकर मोहित : होता है उस समय उसको यह नहीं सूझता है कि दीपक केबल . जलानेहीवाला है, वह फल नहीं है और न उसमें प्राण और मन हर- : नेबाली सुगंध है। नरककी बाहरी चमक दमक देखकर ही मैं पागल गई थी-कूद कर जाने पर दीख पडा कि वहाँ| मिरी आग ही है- जिस शांति-बलको पीनेंके लोभसे मैंने इहकाल और परकाल दोनोंको . जलाञ्जलि दी थी, अब वहीं हछाहल दिखलाई पड़ रहा है ! कौन . जाने कि असली शांति मिलनेमें अभी कितनी कसर ओर है। क्यों . बहिन, क्या तुम मुझे क्षमा नहीं करोगी ?
किरण दीदीका नाम आते : ही मेरा सब शरीर कांप उठता है। न जाने इस प्रश्चात्तापसे कैसे . छुटकारा होगा ? छोक छाजसे आत्महत्या करनेको सोचती हूँ किन्तु . पापीको मृत्युका बड़ा डर होता है! बड़े भारी जीवनके शेष द्विन भस्म हो जायें, नरकके धुयेंसे साँस रुक जाय, हाफ हॉफ और रो रो कर मैं जवानाके पागलपनके पापके प्रायश्वित्तको कहूँ;। बहिन, दया करके एकाध चिट्ठी तो भेजती रहना | कहीं लुम भी इस अभागिनी और पतित बहिनसे घृणा न करने लगना हतभागिनी सुषमा | सुषमा |
अब जाना कि में क्या खो बैठा ! प्रेमकी भागीरथीकों छोड़कर सूखी बावर्डामें जल पीनेकी गया था, यौवनके धमंड्से पशुबुद्धिबश बहुमूल्य रत्नको फेंक कर काचके संसर्गसे अपने शरीरको क्षतविक्षत कर बैठा, देवीके बदले राक्षसीकी आराधना करके उपहारम अशांति पाई । नहीं, तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है | इस पापका करनेवाला तो में ही हूँ। कौन कहता है कि किरण मरगई । वह तो हर घड़ी अपने स्वर्गीय प्रीतिषण मुखसे मेरे साथ रहती है। अभागिनी किरण मेरी थी! वह अब भी मुझे नहीं छोड़ पाती है ! जीमें होता है कि देखे कि अभी और कितने पाप कर सकता हूँ! नहीं किरण अब तुम्हारे हृदयमें में क्षयरोग पेदा नहीं कर सकता | अब छाख चेष्टा करने पर भी तुम बिना बोले हुए चुपचाप मेरे पाशविक अत्याचारोंको नहीं देख पाओगी | हाय, अब तो नृशेस, निठुर और पापी स्वामीको आप मरते मरते ताड़के पंखेसे हवा करके शांति नहीं दे पाओगी | अब जब तुमको जलाने और दुःख पहुँचानेमें समर्थ ही नहीं हूँ तब फिर पाप करूँगा ही क्यों?
किरणका मरना भी अच्छा ही हुआ---उसके गम्भीर प्रेमका पता चलगया । और यह भी समझमें आगया कि विद्याका घमंड एक जघन्य और गाहित कर्म है। इसी लिए कहता हूँ कि “आओ ) सुषमा हम तुम दोनों पिशाच और पिशाची एक साथ बेठकर चिरकालर तक पश्चात्ताप करें ओर रो रो कर कहें---“ किरण ! किरण ! हमको क्षमा करो !”
हतभाग्य अमर