इसके पीछे कितने ही दिन बीत गये | कितनी ही निद्राहीन रातें चली गई | शशि शेखर के हृदयका न दबनेवाला वेग किसी भी तरह शांत नहीं हुआ | कितनी ही मुैँहसे विना कही हुईं प्राथनाओं और कातर आँखों से उसका हृदय नहीं पिघठा | बस एक ही चिंता और एक ही भावनासे उसका शरीर जीण होने छगा | जितने दिन भी शेखरसे बन पड़ा वह चुपचाप सहता रहा | इसके बाद जब यातना असह्य हो गई तब एक दिन रातको वह प्रयागकी ओरको चल पड़ा |
उन दिनोंमें कुंभका मेला था | कितने ही यात्री और कितने ही संन्यासी वहाँ आये हुए थे । इस महातीर्थ का स्नान अनगिनती दूका- नोंकी श्रेणी से छा गया था । गंगा यमुनाका संगम है | यमुनाका काछा जल गंगाके सफेद जलमें मिल गया है | यह दृश्य बहुत ही सुन्दर और बहुत ही मनोहर था ।
पहले कई दिन तो शेखरके किसी तरह कट गये | नये स्थान पर नये दृश्य देखकर किसका जी नहीं लग जाता है? शेखरने बहुतसे साधु संन्यासियोंके साथ मिलकर और अनेक स्थानोंको देख--घूम- कर एक प्रकारसे मनको ठहराया | किन्तु यह स्थिरता के दिन ठहरनेवाली थी? कुछ दिन पीछे मनकी अवस्था फिर पहलेहीकी जैसी हो गई। जिसकी प्यास केवछ मायाकी है, उसको भला कहीं शांति मिलती है ? शशिशेखर अस्थिर चित्त होकर देशविदेशमें फिरने छुगा।
सुधाने सोचा कि इतने दिन हो गये, एक बार फिर उनके दरशेन मिलजाते ! सुधाकी आँखोंसे आँसओंकी घारा बहने लगी | उस तैल- चित्रके सामने खड़ी होकर सुधा कहने लगी, “ बाहिन, जगतमें तुम्हारी सी भाग्यवती धन्य है! तुमने पातिका प्रेम पाया था, में हतभागिनी तुम्हारे धनको हरलेनेका प्रयास करती हूँ ।” सुधा रुक नहीं सकी | नेत्रोंके जलसे उसकी छाती भीग गई | उसने कॉपते हुए कंठसे कहा, & बहिन, में तुम्हारी वस्तु लेना नहीं चाहती, में केवल पूजा करना चाहती हूँ | क्या मेरी अभिलाषा पूरी नहीं होगी ? ” इतनेहीमें पीछेसे ननदने पुकारा, “ बहू, क्यों रोती है ?” ऑँचलसे आँखें पोंछ कर सुधान कहा, “मनमें जितने कष्ट हैं उनको केसे जताऊँ १ मनुष्य होनेस अभी तक जीती हूँ, पेड़ पत्थर होती तो इतने दिनोमें फट पड़ी होती । क्या उनकी खबर मिलनेका कोई उपाय नहीं है ? ” शिवानीने धीरेसे उसके मुखको उठाकर कहा--“ बहू सोच करती करो क्या पागल हो जायगी ? चलो दिन भर हुआ कुछ खाया नहीं है---थोड़ासा खा लो | भाईकी खबर आईं है, अब वे इन्दावनमें हैं | ” उत्तेजित स्व॒रमें सुधाने कहा, “तुम मॉजीसे कह दो, में उनको देखने जाऊँगी । ” शिवानी बोली, “बहू तू जरूर पागल हो गई है, दो दिन पीछे तो दादा आ ही जावेंगे। ”
सुधाने फिर भी कहा, “नहीं बहिन, वह ऐसे कभी नहीं आवेंगे॥ चलो में उनको छोटा छे आऊँ।” “अच्छा चल, यही होगा, भें अभी रविसे कहूँगी।” रवि शशिशेखरका छोटा भाई है। सुधा नाम मात्रको खानेके लिए बैठ गई । स्वामीके विरहमें सती भूख प्यास रहित हो रही थी ।
इस लंबे वियांगसे उसकी अति उज्बलकांति कुछ मन्द हो गई थी | देहल्ता सूखती जा रही थी । पुत्रके शोकसे आतुर सास बोली--- “बहू तू इतना शोच क्यों कर रही है ? चल मैं तुझको वृन्दावन ले चढ़ँ | | चल में भी अन्तिम जीवनमें श्रीगोविन्दके दशेन कर ढूँगी।” तब शिवानी कहने लगी, “माँ, चलो तब फिर हम सब ही रावेको साथ लेकर दादाके खोजनेकों चलें। इसका भा ठिकाना नहीं है ॥कि फिर किधरको चल पड़ें; बहू भी सोच करते करते पागल सी हो गईं है।” सबकी देदावन जानेकी ठहर गई | उसी दिन संध्याको सब रवि- शेखरके साथ पुण्यतीथथ श्रीव्रंदावनधामको चल दिये । जिस घरमें रात दिन चहल पहल रहती थी आज वहीं घोर निस्तब्धतामें बदल गया |
नीले जलवाली स्वच्छ यमुना चुप बहती जा रही थी । हाय, आज बाँसुरी का वह शब्द नहीं हैं जिससे कि यमुना फ़ूली हुई बहती थी; जिस बांसुरीके स्वस्से घरमें रहनेवाली गोपियोंका मन उदास होता था। हाय यमुना, तुम्हारे किनोरेवाछा वह बौसुरीका स्वर अब आज कहाँ चला गया? अरे, आज वह राधारानी कहाँ हैं | वृंद[वबन आज भी तुममे सब कुछ है-बस वह मोहनमुरी ही नहीं हैं | तुम्हारा सुंदर कछेवर तो रहगया है बस प्राण नहीं है । यमुना क्या तुम उसकि विरहमें सूखगंइ हो ? भला कौन कह सकता है कि कितनी गोपियोंके आऔँसु- ओंकी गर्म धारें तुममें मिलीं हैं !
वृंदावनके किनारे पर तमालका बन है | इस बनका दृश्य बडा ही मनोहर है। मयूरनीका सुंदर नाच इस वनकी शोभा सोगुनी कर देता है । इसी बनके बीचमें एक कुटीमें दो संन्यासी बातचीत कर रहे थे।