मैंने पच्चीस ही वर्ष के जीवन में देखलिया कि भगवान ने मनुष्य के सुख- दुःख की मात्रा को सदा के लिए ही बराबर बना दिया है| बालकपन ही से मुझमें बुद्धिकी इतनी प्रखशता नहीं थी, वरन् तिसपर भी मुझमें आत्मामिमानका अंश कुछ अधिक था। मेंने देख रकक््खा था ज्यों ही मेरे हृदयमें कोई व्यथा उत्पन्न हुई त्यों ही सृश्टिकर्ता प्रजापतिके आशीवा- दसे कोई न कोई सिद्धि आकर मेरे जीवनके मागेको उज्बल कर दिया करती थी | लिखना पढ़ना छोड़ते ही मेंने कामघंघेमें ठगनेकी विशेष चेष्टा की | एक बार यह जानकर के एक सज्जनको देखरेखमें एक कर्की की जगह है में सिफारिश की चिट्ठी लेकर उनके पास गया । उन्होंने बड़े आग्रहसे पूछा कि-क्या मेरे आफिस में जगह खाली है? क्या बता सकते हो कि कौनसे विभाग में है ? उनके मुखके भावकों देख- कर बहुत ही आशा बँधी और उनसे मेंने बड़ी नम्रता से कहा---जी, यह तो नहीं बतला सकता |
उन्होंने अप्रसन्न होकर कहा--बाबू , तब आये क्या करनेके लिए हो! मेरा जमाई खाली बैठा है, तुम बतला देते तो उस जगह उसको बहाल कर देता ।
मैं उनकी सौजन्यता पर मोहित हो गया । प्राणके आवेगमें मेंने उनसे कहा---श्रीमान् में कछको पता छगा छाऊँगा और आपको आपके जमाईके संबंध खबर दूँगा । उस दिनसे में फिर किसीके द्वार पर नहीं गया | जब और एक मनुष्यके जीवनका श्रोतपरिवर्च्तन हुआ और उससे मेरा जीवन हलाहर्पूर्ण हो गया, तब सामान्य चेशहार्स मुझको एक नोकरी मिलंगई | उस दुःखके समयमें मुझे इस सामान्य छुखसे भी कुछ शांति हुईं ।
अब बहुत दिनों पीछे हरिश बाबूकी च्लीके पत्रको पढ़कर मनमें तुषानलका घुओं उठने छगा । उससे मेरा श्वास रुकने लगा । मेंने सोचा कि यह तो होना ही था । दो जनोंकी वासनाको कुचल डालने और एक सूत्रमे बँघे हुए दो हृदयोंका वर्वरकी भाँति आसुरी शक्तिस काट डालनेसे समाजमें इसी प्रकारके विष्ठुव उत्पन्न हुआ करते हैं । हा मूखें पिता | बी. ए. पास जमाईके साथ कन्याको ब्याह देकर तूने उसको जन्मभरको सुखी बनानेकी चेष्टा की थी। तूने मरु भूमिकी तपती हुईं बाढ्में कुसुमकुंज छगानेकी व्यवस्था की थी । यह समुद्रके रेतेमें अद्नालिका निमौण करनेकी वासना थी | यह कैसा पागलरूपन ओर कैसा कुसंस्कार था ! सुकुमारीके साथ उस समय ........ बाबू यदि मेरा विवाह कर देते, तो हम दोनोंको इस प्रकारसे सदाके लिए दुःखसागरमें नहीं टूबना पड़ता | हरिश बाबूकी दी हुईं चिट्नैको में बार बार पढ़ता था | उनकी छ्लीने लिखा था---“ अविनाश देवरकी बहू मर गई | वह रोज दो पहरको मेरे घरमें घूमती है और उसके देशका आशु नामवाला कोई मनुष्य है उसकी बातें कर करके मेरे कान खाये डाछती है | मुझसे कहती है---जिठानी, क्या मैंगरेज भले नहीं हैं ? वे जिसको चाहते हैं उससे ब्याह कर सकते हैं | हम अभा- गिनी बंगालीके धर क्यों हुई ! में हँसकर कहती हूँ--- “ अभागिनी, तुम किस लिए अपने जीमें इस नरक को रक्खे बेठी हो १” वह कहती है---
'' मेरा नरक यहीं है। यह श्वशुरका धर नहीं यमका घर है।”-.... इत्यादि |
जब इस संवादसे मेरे मनमें तुमुलयुद्ध हो रहा था तब ही एका- एक मेरी पदोन्नति हुई | मुझको एक साथ पचास रुपये महाँना वेतन पानिकी आज्ञा मिली | इससे मनको एक शांति हुईं सही, किन्तु उसी क्षण विधाता पर ओघष हुआ । मेंने सोचा कि यदि तीन वर्ष पूर्व इस प्रकारसे नोकर होता तो क्या ........ बाबू मेरी उपेक्षा करके बी. ए. पास अविनाशके साथ कन्याको ब्याह देते। शायद अविनाश बी. एल, में पढ़ता था | इस बातसे भी मेरा कुछ आश्वासन हुआ कि वह ठीक मेरी ही भाँति धन उपाजेन नहीं करता । मेंने सोचा कि हरिश बाबूकी मार्फत यह संवाद सुकुमारीको भेजना ही चाहिए |