मैंने यह जानकर भी कि अब निर्जन प्रवास नहीं होगा, केवल प्रवास ही होगा अपने ।जीमें पिताके स्नेहकी खूब प्रशंसा की । ! सोचा कि तीन मास तो देखते ही देखते कट जायेंगे फिर प्रवासमें ' रहते रहते स्लीकी उस निष्ठर मत्तिको हृदयसे एक बार ही मिटा दूँगा अन्तमें गिरीश बाबूके कहनेसे में एक मुंशी रखकर “ इन्तख्रावे हबीब” नामक पुस्तकमें सिंह, ग्दंभ और मंदूक इत्यादिकी अपूर्व हिकायतें पढ़ने लगगया, और प्रति दिन मशीनके पहियेकी भाँति अदाल्तकों आने:जाने लगा ।
चार बरस गिरीश बाबूके साथ रहनेसे ओर अपनी मेहनतसे मेरी प्रेक्टिस कुछ कुछ जमगई । कमीशन लेना बन्द कर दिया और थोड़ी मीठी मीठी बातों और थोड़ेसे परिश्रमसे मुख्तारोंके दलमें प्रिय होगया। धीरे धीरे आमदनीकी राह खुलती जा रही थी ।
पहले पहल जब विदेशमें आकर अपूर्ब विध्नबाधाओं में पड़कर ( संग्राम ) कर रहा था, तब सोचा करता था कि आर्थिक दशाकी उन्नति होजाने पर सुखी बन जाऊँगा | किन्तु अब आर्थिक दशाकी उन्नतिके साथ ही जीमें प्रश्न उठता था कि यदि ऐसी आदमनी कलकत्तेमें होती तो कैसा रहता!
आज कोटसे लोटकर धरमें बैठा हुआ ज्लीके साथ हँसी मजाक कर रहा था।
वह कहने लगी--- कुछ दिनकी छुट्टी लेकर घरको क्यों नहीं चलते ? कलकत्तेमें बच्चेका अन्न प्रासन संस्कार करके फिर लौट आवेंगे।”
मैंने कहा---“ तुम ब्यर्थ में हमारा मन मत बिगाड़ो, सरल ! तुम्हारी ही बदौलत तो देश छोड़ना पड़ा है | तुम्हरे ही कारण तों आज मैं अपने कुटुम्बियोंको छोड़े हुए परदेशमें पड़ा हुआ हूँ । यदि उसबार तुमने नाराज न कर दिया होता, तो भला इस देश मे क्यों आता १?”
मेरी आवेगभरी हुईं भाषा सुनकर सरला खूब हँस पड़ी जिससे कि उसकी स्वाभाविक कांति दूनी उज्ज्वल होगई । में उसके हँसनेसे बिग- ड्कर बोला---“ अब यदि उस बातके कहनेसे तुम हँसोगी तो मैं . तुमसे बोलना चालना बन्द कर दूँगा। ”
सरला बोली--- “अब परदेशमें ऐसी चालाकी नहीं चल सकती ।” में अपने हृदय पर अपना संयम दिखानेके लिए बरामदेमें चला आया | नीचेका नजर पहुँचते ही कई एक जिप्सी सड़क पर चले जाते हुए दिखाई दिये | उनको देखते ही हृदयमें एक प्रकारकी उत्ते- जनासी माहम हुई | दौड़कर घरमें जाकर
सरला से कहा--- “ सरला जल्दी बाहर आओ, क्या एक नई चीज देखोगी ? ” सरलाने आश्वर्यस मेरी बाँह पकड़कर कहा---
“ क्या नई चीजहै !” मैंने कहा--“ तुमको दिल्लीके ईरानी जिप्सियोंका हाल सुनाया था । तुमने ईरानी जिप्सी देखने चाहे थे । आज ये कई जिप्सी घरके सामनेसे होकर जा रहे हैं, आओ-जल्द आओ। ” सरला झपटकर बाहर आई । तब तक ईरानी मेरे सामनेसे आगे बढ़कर कुछ दूर निकल चुके थे। सरलछा उनको भले प्रकार नहीं देख पाई ।
सरलां बोली--- “ तुम तो कहते थे कि सझीना बड़ी सुन्दरी है। इन लछोगोंकी देखनेसे तो वह बात ठीक नहीं जान पड़ती। ”
मेंने कहा---“ तुम इन लोगोंको भली प्रकार देख न पा सकनेहीसे ऐसा कह रही हो। इन छोगोंमें सभी बड़ी सुन्दरी होती हैं।”
इरानी रमणी | , सरला बोली--- जब तुमने उसको सुन्दर समझा था तब तुम कुआरे थे |!”
मैंने सरलाकी ठोड़ी पकड़कर कहा---“ तुम्हें अपने रूपका इतना घमंड है ? ” सरला अप्रतिभ होकर मुझसे हाथ छुड्शाकर भीतर चली गई।
ऊपरकी घटनाके दो दिन पीछे में संध्याके समय आफिसमें बैठा हुआ कागजपत्रोंको उल्टपछ्ट रहा था कि इतनेहीमें बहुत ही सुंदर कांतिवाले एक मुसलमान युवकने आकर सलाम किया | यह युवक जाना पहिचाना हुआसा माद्धम होता था, किन्तु ठीक तरहसे मैं यह स्थिर नहीं कर सका कि उसको मेंने कहाँ देखा था ।
वह बोला--- “ क्या वकील साहब, पहिचानते नहीं हैं? ” मेंने कुछ अप्रतिभ होकर कहा---“ माफ कीजिए, याद नहीं आती के कहें आपसे मुलाकात हुईं थी। ”
युवक ने कहा--- “अब्दुल मजीदको भूलगये ? ” मेरी कपाट ख़ुलगया | यह तो मेरा वही जाना (रसप्रिय ) अब्दुल मजीद है । बहुत दिनों पीछे उसके मिलनेसे बहुत ही आनन्द हुआ | मैंने एक बार ही उस बेचारेंको अनेक प्रस्नोंकी झड़ी लगाकर बचैर लिया |
मजीदने कहा---“ इतने सवालोंका एकसाथ जवाब देना तो मेरे लिए बिल्कुल ही नामुमकिन है | इस समय कुछ गुप्त बात कहना है।”
मैंने अपने मोहरिरकी ओरको देखा, जिससे वह बाहर चढागया ।
मजीद बोला “ आपको पहिली बार ही मेंने पटनामें देखकर पहिचान लिया था |”