पूजाकी छुट्टीके दिनोंमे उसबार पश्चिमकी यात्रा करनेमें सबसे बड़ी बाधिका हुई थी हिन्दुस्तानी भाषाकी अनभिज्ञता | घरपर में जिस बोलीमें नौकरोंसे बोला करता था--पश्चिममें जाने पर जाना गया कि हिन्दी भाषा उससे बहुत कुछ भिन्न है | इसी कारण मुझको अपनी पश्चिमयात्राका पूरा मुख नहीं मिला | और जान पड़ता है कि बड़ोंकी बात न माननेका पाप भी मेरे पीछे पीछे गया था। माँने कहा था कि ' छठको यात्रा नहीं करते हैं किसी और दिन जाना |! इस बात पर हाजिर जवाब मणीन्न्द्र बोला था---“ यदि इस दिन यात्रा नहीं की जाती है तो भीड़ ट्रेममें कम होगी । छठ्हीकेा चलो ।” किन्तु सेशन पर जाकर देखा तो आशंकासे भी अधिक भीड़ निकली ! इसके अतिरिक्त गयाजीमें स्थानका अभाव, और काशीजीके बन्दरोंका उपद्रत्र आदि कितनी ही छोटी मोटी दिक्कतोंने हमारे श्रमणमें बराबर साथ दिया। प्रयागके पवित्र संगम पर स्नान करके हमने अक्षयबट देखनेके लिए दुर्ग प्रवेश किया । न जाने एक सिपाहीने हिन्दुस्थानी बोलीमें क्या कहा । अंतमें जब उसने समझमें आनेवाली भाषामें गाली दी तब जाना कि किसी निषिद्ध स्थानमें आना हो गया। पैसेकी हानि तो बराबर पग पग पर होती थी । गाड़ीवाले, इक्केबाले, और कुली आदि सभी हमको ठग लेते थे | जब प्रयागमें दही मोल लेकर एक ज्लौसे दाम पूछे, तब वह बोली---“ दो डब्बछ ” | मेंने मुखसे कुछ भी छोट फेर किये बिना उसको चार पैसे दे दिये । किन्तु फिर सुननेमें आया कि डब्बलका अर्थ है एक पेसा ।
दिल्ली पहुँचने पर हमारे भाग्य ख़ुलनेका प्रधान कारण हुआ रात्तेमें एक अँगरेजी और हिन्दुस्थानी भाषा जाननेवाले साथीका मिलना | अब्दुल मजीदसे गाड़ीहीमें परिचय हो गया था। वह भी हम ही जैसा ऐनक लगानेबाला, कालेज से नया निकला हुआ, श्रमणप्रिय युवक था | इस लिए हम लोग बहुत ही थोड़ी देरमें परस्पर घुल मिल गये |
हम लोगोंने उसको प्रेसिडेंसी कालेजके हाड्चाठ सुनाये ओर उसने ! हमको अलीगढ़ कालेजकी बहुत सी बातें बतलाई | अन्तमें यह ठहरा कि दिल्लीमें जाकर हम सब छोग एक ही स्थान पर ठहरेंगे | मजीदके परामशैसे हम झोग जाकर चौंदनी चोकमें तोतारामके होटलमें ठहरे ।
दिल्ली शहर अब्दुल मर्जादका भी भाँति देखा हुआ था। इस लिए वह हंमको लेकर दिनभर घुमाता फिरता था। जुम्मा मसजिद मोती, मसजिंद, दीवान खास और दीवान आम इत्यादि अनेक ऐतिहासिक स्थानोंकी सेर करके हम छोग लुप्त मुगल गोरवको स्मरण किया करते थे । पुराने दिल्ली दुरगपर स्थान स्थान पर अरबी ओर फारसीमें जहाँ जहाँ जो कुछ भी लिखा था वह सब मजीद हमको समझाता था । इससे हमको पता चलगया कि बी, ए. को पास न कर सकने पर भी मजी- दने अलीगढ़ कालेजमें केवल क्रीकेट खेलनेहीमें समय नहीं बिताया ।
दिल्लीकी “ क्रीन्स पार्क ” में बैठकर हम लोग मणीन्द्रके साथ घरका लौटनेकी सलाह कर रहे थे । इन छः: सात दिनोंमें दिल्लीके द्श्योंको भली भाँति देख डाला था, इस लिए अब॑ अधिक दिनों वहाँ पड़े रह कर व्यथें समय नष्ट करनेको भी जी नहीं चाह रहा था। जान पड़ रहा था कि अब्दुल मजीद भी लखनऊ चल देनेको व्यग्र है | इस लिए दो एक दिन लखनऊ ठहरनेके पीछे घरको लोट जाना स्थिर हुआ | हम छोगोंको बागहीमे बैठा छोड़कर अब्दुछ मजीद अपने किसी मित्रसे बातचीत करनेको चला गया था | कोई आध घंटा पाछे वह हँसता हुआ लोट आया | हमने देखा कि उसके पीछे ही एक जिफ्सी स्त्री थी ॥। उसका चेहरा बहुत ही हृष्ट पुष्ट और सुन्दर था और बिना सफाई किया हुआ घूल धूसरित खूब चमकता हुआ मुख था । युवतीके वल्ल बहुत ही मेले थे और जगह जगह पर फट भी गये थे । हाथमें एक छोटीसी पोठली लिए हुए वह टूटे हुए चपोले जूते पहने मजीदके साथ हमारी ही ओर॒को चली आ रही थी ।
मैंने कहा---“ हाँ, ठीक! यह तो भुक्खड़बद्भुओंके दलकी स्त्री माद्म होती है । जान पड़ता है कि मजीद इससे सॉपकी औषध मोल लेगा ।
पास आते ही मजीद बोला--“ ब्रजेन बाबू , आज में एक नया जीव लाया हूँ । यह ईरानी जिप्सी है । परशियासे भारत घूमनेको आई है |”
मेंने कहा--“ हाँ | में भी जानता हूँ | ये औरतें दक बाँध कर बंगाल भी जाती हैं। छोगोंसे झगड़ा करती हैं | छोटी छोटी चीजें ॥: ती हैं और जहाँ तहाँ मेदानमें डेरे डाछ लिया करती हैं | जब कोई मना करता है तब उससे लड़ पड़ती हैं।
ईरानी इस्त्री आगे बढ़कर घास पर बैठ गई | मजीदने उससे कुछ कहा जिसपर युवतीने अपने हाथकी पोठ्ी खोलकर उसमेंसे बहुतसे छोटे पत्थर निकाले |
मणीन्द्र बोला,“यह तो जौहरी मादूम होती है | बहुतती जवाह- रात निकाले डालती है ।”
मजीद बोला---“ इनके पास बहुतसे कीमती पत्थर भी पाये जाले हैं | पोंछ कर साफ कर देनेसे येही अधिक सुन्दर दिखाई पड़ने लगेंगे |
युवती घास पर बैठी हुई एक एक करके बहुतसी वस्तुर्ये दिखाती रही । मजीद उसके साथमें खूब बातचीत करता जा रहा था।