अनेक दिन विना खाये ओर अनेक रातें बिना सोये रहनेकी थकावटसे सुधाकी देहलता निर्जीय सी होंगई थी। सुधाकी यह मूछा तो भंग हो गई, किन्तु उसको समय समय पर ऐसी ही मूछो होने लगी | शशिशेखर की व्याधिने एक दिन प्रबछ मूर्ति धारण की। अच्युतानन्दने कहा, “ माता जाको स्थिर करो। आज तुम्हारी भीषण परीक्षाका दिन है। गोषिन्दके चरणोंमें आत्मसमपैण करो ।” शोकम बावली होकर माता बडे जोरसे रोने छगी। रोनेसे शेखरको होश हुआ । उसने आँखोंमें ऑसू भरकर कहा--“ माँ रोओ नहीं कृपा पुत्रको क्षमा करो | अपनी पदधूलि दो ओर आशीर्वाद करो। मेरा काल पूरा होगया में चछा।” घोर विकारके प्रकोपमें शेखरने देखा कि अंगुलीके संकेतसे शैल उसको पुकारती है। यह देखकर वह , चिल्ला उठा-- “ रैलशैल में आता हूँ | उसी दिन रातको शेखरका प्राणपक्षी पिंजरे- मेंस निकलकर अनेक धामके पथ पर उडगया | बालिकासुधा पतिके चरणप्रांतमें मूच्छित होकर गिर पडी ।
इसके बाद दृन्दावनम कई दिन बीत गये | माता और सुधाने ढूंदा- बनमें अच्युतानंदके आश्रमको नहीं छोडा | शेखरकी माताने वास्तवमें ही गोविंदपदमें आत्मसमपैण करदिया | इस आत्मसमपेणहीसे वे इस दारुण पुत्रशोककी जीत सकीं। जब मनुष्यका चित्त खिंचकर भगवा- नसे जा लगता है तब संसारी शोक उसको व्याकुछ नहीं कर पाता है। और बालिकासुधा ? हाय, हाय | भला इस कनक अंगमें सफेद वजन कहीं शोभा पाते हैं ? यह इश्य हृदयकों चीर डालनेवाला है । संसारकी ओरसे विराग होता है।
सुधा प्रतिक्षण अपने जीवनके अन्तिम दिनकी प्रतीक्षा करती और कहती थी---
मिलना सबका होय है, वेतरणीके पार |
वहीं आपसे मिलँँगी, बेठी उसी किनार ॥
इसी आशको हृदय रख, रही में जीमे फूल ।
किन्तु वहां भी इस तरह, रहना मुझे न भूल ॥
सुधाने जान लिया था कि प्रेम अविनश्वर है। मृध्युके पीछे प्रेमका विच्छेद नहीं होता और प्रेमका अनन्त मिलन होता है । वह ऊपरको देख कर बोल उठती थी “हे हृदय देवता, चिर्राड्छित, बहुत दूर होने पर भी तुम मेरे अन्तःकरणसे दूर नहीं हो । इस हृदय मन्दिर में सदैव तुम्हारी पूजा करूँगी | मेरा ओर कोई देवता नहीं है । तुम्ही मेरे देवता हो । यदि साधना को जय होती है, तो जावन के अंतमें फिर तुमसे मिलना होगा | है प्रिय, उस समय तुम मुझको अपने पैरोंसे न हटाना ! ” ।