उस दिन कालीघाटमें अधिक भीड़ नहीं थी। माताके मन्दिरके बीचमें एक त्रह्मचारी गाना गा रहा था और उसके चारों ओर ख्तलीपु- रुष और लड़के लड़कियाँ घिरे बैठे उसके संगीत सुधासे तृप्त हो रहे थे। में भी दशन करके लोटकर वहीं गाना सुननेकों बैठ गया ।
मेरे सामने एक पूंघटके बीचमेसे दो शंका चाकत नेत्र मेरे मुखकी ओरको ताक रहे थे । उन दोनों नेत्रोंके प्रथम दशेनसे ही मेर शरीरमें बिजली दोड़ गई | में भी उन्हीं दो आँखोंको देखने छगा। बे दोनों आँखें नीचेको हो गई । मेंने भी दृष्टि मोड़ छी | जब फिर उस चूँघठ- वाढीको देखा तब वह भी इधरहीको देख रही थी। मेने फिर आँखें उठाई, उसने दृष्टि नीची कर ली ।
मेंने विचारा कि इस जगह क्या करना चाहिए ? असहाय निर्जी- वको भाँति इस जलती हुई अग्निमं जल्ता रहूँ या शिखाके पाससे हटकर हृदय शीतल करूँ ? यही तो में कर रहा था | सोचा कि यह _ शिखा तो क्षणमर ठहरनेवाली है---इसके बुझते ही दारुण अंधकार आकर ह्दयको घेर लेगा ।
कॉपते हुए शरीरसे उस स्थानको त्याग कर माताके मैदिरमें गया और हाथ जोड़कर कहने छगा---“ माँ | इस झंझटसे बचाओ | इस पापकी चिन्ताका अंत करो | यह व्यापार आज ही समाप्त हो जाय ।” बालकपनके क्रीड़ाओंके चित्र आकर हृदयमें चमकने लगे। वे बीते हुए. चित्र बड़े ही शांत ओर बड़े ही मधुर थे | आँखोंसे देखनेसे माताका अभय देनेवाला हाथ दिखाई दिया | माताकी छोलरसनाकी आश्वासन देनेवाली वाणीका शब्द सुना | वह कह रही थीं---“ हृदयको इढ़ करो ओर सुविधा होने पर सुकुमारीको खूब समझा दो कि अब इस जीव- नमें और कोई आशा नहीं है व्यर्थ मेरे लिए शोच करके क्यों मरती है मैंने सोचा |कि यदि वह यह पूछ बैठी ।के तुम्हीं तो मेरी चिन्तामें पड़े हो ? फिर अभय देनेवारलीकी मूर्तिको देखा--त्रह कह रही थी, “ वह पूछ बैठेगी, इस बातकों छोड़ दो ।”
सुकुमारीसे इस सामान्य बातको कहनेका में अवसर ढूँढ़ने लगा । दोनों पैर बलहीन होते जा रहे थे और हृदय जोरसे चल रहा था। इतने दिनों तक जिस परज्लौको हृदयके मीतरके कोनेमें बेठा कर पूजा करता रहा था, आज उसीसे बातचीत करना पड़ेगी, इस बातकी भावना करके में बहुत ही विचालित हो रहा था। फिर गानेहीकी जगह पर में लोट आया |
एक प्रौढ़ा स्त्री ने सुकुमारी तथा एक और स्त्री से कुछ कहा, जिससे बें उठ बेठीं । जाते समय उसकी एक अथैहीन दृष्टि मुझ पर भी पड़ी। में भी मंत्रमें बंधे हुए की भाँति पीछे पाछे चल दिया |
हृदयके आकाश में बड़े जोरका झटका लग रहा था उस अस्फुट घ्वनिमें केवल दो स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहे थे । एक स्वर कहता था--- छि; छिः कैसा जघन्य आचरण है ! देवमंदिरके: पास में ऐसा होना कैसा कुत्सित व्यापार है! यह कैसे पापका अनुष्ठान है ! कुत्तेकी भाँति पराई ज्ञीके पीछे चल पड़ना क्या भल्मनसाहतकी बात है! दूसरा स्वर इन बातों की अपेक्षा और अधिक उच्च कण्ठसे कह रहा था--इसमें कोई पाप नहीं है ।
केवल एक मुहूर्त में एक बात कह दूँगा, तब इसमें भरा पापकी क्या बात है में दूर रहता हुआ ही पीछे चछ रहा था, इस छिए ब्वियाँ मुझको नहीं देख पाई । उन्होंने नकुलेश्वर देवके पासकी दूकानसे जल लेकर मन्दिरम प्रवेश किया ।
मंदिर में दर्शनार्थी लोग दिखाई दे रहे थे; | में इस मन्दिरमें नहीं गया । पासके एक वृक्षके नाँचे बैठकर उनके आनेकी राह देखने लगा | क्रमसे एक एक यात्री बाहर आने लगा । में जो सुविधा खोजता था, अंतमें वह हाथ आगई । सुकुमारी महादेबकों जल चढ़ाकर बाहर आई | उसकी दोनों संगवाली त्लियोँ नहीं दिखाई दीं। में धीरे धीरे खिलक कर उसके पास पहुँचा । शरीरमें भूकम्प केसे झटके लग रहे थे | मुझे एक साथ बात कहना थी । ओठ सूख जाने से शब्द नहीं निकलता था । सुकुमारीने मेरी ओरको देखा । मार्गमं कितने ही लोग निकलते जा रहे थे । सब अपने अपने कार्यमें व्यस्त थे, किसीने मेरी ओर नहीं देखा। मैंने बड़े कश्से कहा-- सुकुमारी अच्छी हो !
सुकुमारीन सरल और परिचिन कण्ठमें कहा--क्यों क्या हाल है! कहो घर गये थे, सब कोई राजी खुशी हैं ? मुझे साहस हुआ । मैंने उत्तेजित भावसे कहा--और सब तो अच्छे हैं ही । तुम्हारा संवाद मुझको हारिश बाबूसे मिलजाता है। सुकुमारीने पूछा--हरिश बाबू कौन !
मैंने कहा---छिः सुकुमारी, क्या यह मज़ाक का समय है! यह तीन वर्ष किस यातना से काटे हैं, इस बातको कैसे कहूँ? हर रोज तुम्हारी चिन्ता और तुम्हारे ही ध्यान---
भूतको देखकर मनुष्य जैसे चौंक पड़ता है वेसे ही सुकुमारी चौंक उठी । मेरे पाससे दूर हटजाकर बोली---छिः छिः भाई आशु, तुम्हागा इतना अधःपतन कब हो गया ? पहले तो तुम गाँव में एक आदर्श बालक थे। कहीं नशा तो नहीं खाइये हो ! न जाने मेरे मुखकी क्या अवस्था हो गई थी। मेंने कंपित कंठसे कहा---सुकुमारी | ठीक उसी समय उसकी सांगेनें मन्दिरसे निकल आई । दौड़कर सुकुमारी मन्दिरकी ओरको गई । जिस प्रौढ़ाका हाल ऊपर लि" चुका उसका हाथ पकड़कर सुकुमारीने कहा---
“माँ, कहाँ चछी गई थीं देखो, देखो, मेरे देशका एक लड़का नशा खाकर क्या बक रहा है।” यह बात मुझको स्पष्ट रूपसे सुन पड़ी थी। मेरे पैरोंके नीचेसे पृथ्वी निकल गई | हृदय थर थर कॉपने लगा, माथा घूमने छगा, में उसी मार्गमें मूछित हो कर गिर पड़ा ।
[६] जब धीरे धीरे फिर स्वाभाविक ज्ञान फिरा तब आँखें मीचे हुए मेरे सुनने में आया ॥ कि कोई कह रहा था---छि: सुकुमारी, यह संदेह तुम्हारी भूल है। मैं इन कई महीनोंसे इन पर विशेष लक्ष्य रखता रहा हूँ । आशु बाबू बड़े सच्चरित्र हैं ।
दूसरे कण्ठने कहा--तब फिर आज ऐसा क्यों किया !
पहलेने कुछ हँसकर उत्तर दिया---यह मेरे पापसे हुआ | यह सब बात तुझे फिर बतछाऊंगा | बहुत ही मृदु और मन्द वायु मेरे मस्तक को स्पर्स कर रहा था | धीरे धीरे आँखें खोलकर देखा--पंखा झल- नेवाली सुकुमारी थी | सिरहाने को हरिश बाबू बैठे थे ।
ऐं, फिर हरिश ! प्रतारक, जालिया, मिथ्यावादी और वंचक हरिश पर क्रोध आया। उसी दुबेल शर्रारसे में उठने छगा । कालीघाठकी उस छोटीसी कुटठीके. अस्पष्ट उजालेमें सब ही बातें स्वप्तसी जान पड़ती थीं |
हरिशने हहा--“ स्थिर होओ । ” सुकुमारी कमरे से बाहर चली गई । मैंने कहा--“ नहीं स्थिर नहीं होऊँगा । मुझको यहाँ कौन' लाया ? इतनी शैतानी ! ऐसी प्रतारणा ! ”
हरिशने कह्--मेरी सब बात तो सुन लेओ, तब दोष देना |
मैंने कहा--नहीं हरि बाबू मुझे छोड़ो।
हरिशने कहा--हरिश बाबू नहीं अविनाश कुमार
मेंने स्वप्न देखकर उठे हुए मनुष्यकी भाँति उनकी ओरको देखा और कहा---“ कया मामठा है । क्या आरंभसे अंत तक धोखा ही धोखा है? ”
हरिश बाबूने कहा--आशु बाबू मुझको क्षमा करना | मेरी स्त्री विवाह होने पर यहाँ तक कि आज तक प्राय: तुम्हारी प्रशंसा किया करती थी | तुम्हारे देशकी बातें कहती थी और तुम्हारी माँके प्रति बड़ी श्रद्धा दिखाया करती थी । इस सबसे मेरे जीको बड़ा सन्देह होता था । मैं सोचता था कि स्त्री दुश्वरित्रा जान पड़ती है। इसी लिए आपके पाससे बात जाननेके लिए व्यस्त होकर मेंने कुछ धोखेबाजी की थी | मैंने पहले यही समझा कि सब व्यापार निर्दोष है किन्तु मेरी पहि- चान पूरी नहीं उतरी । तुम्हारे मनमें पाप था---
मैंने उनकी ओरको क्रोधसे छाल हुई आँखों से देखा | उन्होंने कहा-- क्षमा करो | मैं आजकी कोई बात जानता नहीं था | एक साथ माता इत्यादिको विलम्ब होनेसे ढूँढ़ने आने पर देखा कि आप मार्ग में मूछित पड़े थे। उठाकर ले आया ओर ज्ञौसे सब बात सुनी । जानते हो कि सुनकर क्या धारणा हुईं ?
मैंने उत्तेजित होकर कहा--अपनी धारणा को लिए हुए बेठे रहो-
हरिशने कहा--“मेरी धारणा है कि तुम का पुरुष हो, तुमने तीर्थ स्थल पर पराई स्त्री --जो कुछ भी वह कहनेको थे उसको समझ कर मैंने जल्दौसे वह स्थान छोड़ दिया | और मनमें प्रतिज्ञा की कि अब ऐसी निबुद्धिताका कार्य आगे को जीवनभर नहीं करूँगा कि जिससे मार्ग में मूछित होना पड़े । उसी रात्रि कों में वेद्यनाथ कों चला गया । इसके बाद जो शुभ दिन सबसे पहले आया उसीको मेरा विवाह 'हो गया । अब मेरा जीवन बहुत ही सुखमय है । हाँ, जब कहीं हरिश बाबूका पता चलता है तब बहुत दूरको भाग जाता हूँ और विना बिचारे केवछ मानसिक उत्तेजनाके वेगसे मार्गमें कोई कार्य नहीं कर बैठता हूँ |