उस दिन श्रापशायर रेजिमेंटके गोरोंक साथ कलकत्ता कृबकी फुटबाल---की मेच थी | इस लिए मैदान लोगोंसे भरा था । उस दिन मुझको आफिससे समयसे पहले ही अवकाश मिलगया। इस लिए पैसे खर्च करके मिट्टीके तेलके पीपोंपर खड़े होनेकी जरूरत नहीं पड़ी। में रस्सीके सहारे ठीक सामने ही खड़ा था । मेरे साथ मेरे आफिसका एक अर्प्रें- टिस छोकरा भी था। उसका नाम मणिचन्द था। हम दोनों बातें करते करते मूँगफली खाते जारहे थे और खेल होनेकी बाट जोह रहे थे | कुछ लोगोंने मानो केवल मेरी विक्कत कायोबली देखनेहीके लिए जन्म लिया है | भली गाड़ीमें चढ़कर चले जाओ तो सिर फोड़- लेनेपर भी ये छोग नहीं मैलेंगे | सुस्वादु चन्य, चोष्य, लेह्य, और पेयके संस्पर्शसे जीभको तृप्त करो तो ये लोग तुम्हारे रसोई घरसे कोसों दूर रहेंगे, पर यदि वर्षाके जलसे प्रावित और कीचड्भरी कलकत्ताकी सड़कपर अर्धनम्न और जूता हाथमें लेकर जाते होओगे तो ये लोग चारों ओरसे आकर घेर लेंगे और तुम्हें संकटमें डालदेंगे । हरिश बाबू. भी उसी श्रेणीके पुरुष हैं |तब मूँगफली खाते समय उनके मिलजानेमें आश्चये ही क्या है ?
हरिश बाबू बोले--कहो आशु बाबू प्रसन्न तो हो; अच्छा, लड़का कैसे है ? मैंने सप्रतिम भावसे उनको कुछ फलियें दीं। माणिचन्द बोला--किसका पुत्र ? मैंने उसके शरीरको दाबकर हरिश बाबूसे कहा---आपके आशिवादसे लड़का अच्छा है ।
हरिश बाबूने कहा--आझशु बाबू व्यस्त होनेका कोई कारण नहीं है। में आपको खुब जानता हूँ | आपको एक संवाद देना आवश्यक था, इसीसे आपको खोज रहा था। क्या खेल समाप्त होजाने पर मेरे घर चलिएगा |
एक बार सन्देह हुआ कि कहीं वारंट तो नहीं है। बहुत गवेषणा करने पर देखा कि अपने जीवनभरमें जान बूझ कर मेंने अपने अति- रिक्त और किसीकी कोई हानि तो की नहीं है | इस लिए हरिश बाबूके साथ जानेमें जीको कोई दुविधा नहीं हुई ।
हरिश बाबूके रहनेका घर बहुत साफ सुथरा था | बिछोने पर कुछ कपड़े पड़े थे। उनको हटाकर बाबूने मुझको बैठनेकी जगह दी । उनके आंदेशस उनका नौकर जगुआ दो पात्रोमें चा आकर देगया । मेंने हाथ बढ़ाकर कांचका प्याला लेलिया और स्वयं हरिश बाबू कई उड़े हुए इनामेलके गिलासमें चाय पीने लगे। फुटबालके खलकी प्रतिद्वन्द्रिता, बषी, और म्युनिसिपलिटीकी सड़कोंकी सफाईके संस्कारों पर क्षणिक वादानुवादके पीछे हरिश बाबू बोले---“ क्या आप अपने गँवके ... वीबूको जानते हैं ! ”
मैंने कहा, .... .... बाबूको जानता हूँ । उनके घरानेसे हमारी विशेषं घनिष्ठता थी ।
हरिश बाबू कुछ हँसकर बोले---“........ की कन्या सुकुमारीको जानते हो ” वास्तव मे हारिश बाबूने मुझको संकटहीमें डानेको जन्म लिया है। मेरे लिए सुकुमारीका नाम मोहिनी शक्ति मंडित था और मैं इस बातमें बहुत सतक रहता था कि कोई यह न जानने पावे कि सुकुमारीके नामसे मेरा कोई संबंध रहा है । उस नामके विषयमें एक साथ मुझसे जिज्ञासा की गईं, इस लिए मुझको उनपर आंतरिक क्रोध हुआ | मुझको इस बातमें अब अणुमात्र संदेह नहीं रह गया कि हारिश बाबू निहायत अभद्र पराई चचौ करनेवाले हैं |---यह कैसी भयानक बेअ- दबी है!
मैंने अन्य मनस्कताका बहाना करके कहा--हाँ, पहचानता हूँ- क्यों ! अच्छा आपके मुहल्लेमें कया सब भले आदमी ही रहते हैं ? आप इस घरमें कबसे हैं !
हरिश बाबूने कहा--बात दाबनेसे क्या होता है! क्या यह जानते हो कि वह कहाँ ब्याही गई है !
मैंने बनावटी कोप दिखाकर कहा--आप क्या कहते हैं! क्या एक भले मानुसकी लछड़कौकी च्चों करते हुए यहाँ चाय पीना प्री अभ- द्रता और सुरुचिविरुद्ध नहीं है !
इस बार हरिश बाबू कुछ अप्रतिभसे हुए । उन्होंने कहा--और यदि उसीकी अनुमातिके अनुसार आपसे कोई बात कहनेके लिए इस बातकी अबतारणा करता होऊँ।
मै एकाएक उनके मुँहको देखने लगा | सोचा कि बंगालमें सात करोड़ मनुष्योंके रहते हुए सुकुमारी इन्हींको अपने विषयकी बात कह- नेकी अनुमति क्यों देने छगी? सुकुमारीके विवाहके दिन में .... ...- बाबूके घर निमंत्रणमें नहीं गया था। इस कारण में सुकुमारोके पतिको नहीं देख पाया था; किन्तु मैंने सुन रक्खा था कि उसका नाम अवबि- नाश है | कया हरिदँँ बाबू ही सुकुमारीके स्वामी हैं ? मेरी दो एक संक- टकी दशाओंको देखलेनेसे हरिश बाबूने मेरे ऊपर एक भ्रकारकां आधि- पत्य पालिया था। इस लिए यह संदेह मनमें स्थान नहीं कर पाया कि हरिश बाबू ही सुकुमारीके स्वामी हैं। सुकुमारीका जो स्वामी है वह तो मेरा ....अच्छा इन बातोंकोी जाने दो | वह निस्सन्देह एक द्वीन चरित्र कुरूप पुरुष है । और यह बात मैंने सुनी भी थी। यदि ऐसा न होता तो ..........बाबू पछताते ही क्यों !
हरिश बाबूने कहा--क्यों, इतना विचार क्यों हो रहा है? सुकु- मारीका स्वामी अविनाश मेरा जातिभाई है । हम दोनों एक ही गाँवमें रहते हैं |
मैंने कहा--हो, अच्छी बात है ।
वे बोले--अच्छी बात है ? मेरी ज्लीने बड़ा आग्रह करके मुझको मेजा है; यह पढ़ देखो ।
हरिश बाबूने मेरे हाथमें एक चिट्ठी देदी । में पहले ही कह चुका हूँ कि एक शाक्तिके बलसे उन्होंने मुझ पर अधिकार सा जमा रक्खा था। इस लिए में मंत्रमुग्धकी भाँति उसको पढ़ने छगा ।