हरिश बाबूसे मेरा पहिछा पारिचय हाईकोटकी ट्राममें हुआ । में अपने आफिससे ठोटते समय स्वभावके अनुसार पहिले दर्जके कमरे में चढ़गया |
जब हाथमें टिकिटोंकी गड्ठी और कमरमें टिकिट काटनेका यंत्र ल्टकाये हुए ट्रामका कंडक्टर आकर उपस्थित हुआ, तब जेबमें हाथ डालकर अपनी तहबीलकी ठीक अवस्थाको जानकर मैं बड़े चक्करमें पड़ा । जेबमें हाथ डालकर जितनी बार भी गिना उतनी ही बार-एक, दो, तीन, चार, पॉच,-पाँच पेसोंसे अधिकका होना नहीं मादम होसका | में बड़ी विपदमें पड़ा चकित होकर एक बार गाड़ीके भीतर देख गया; गाड़ी आपफिससे छोटे हुए क्कोंसे भरी हुई थी |
गाड़ीम जाना पहिचाना ऐसा एक भी चेहरा दिखाई नहीँ पड़ा कि जो एक पेसा कर देता | कण्डक्टर गाड़ीसे निकलनेकी रा- हमें खड़ा था, इससे उतर पड़नेकी भी सूरत नहीं थी | यह एक नई भाँतिकी विपदा थी। कि जिसने आकर मरे मनकी स्थिरता पर गोली बरसाना आरंभ कर दिया था। यह लाख रुपयेकी चिन्ता नहीं थी, नौ- करी खोजनेकी भावना नहीं थी, बापके श्राद्धकी समस्या नहीं थी, काली लड़कीके विवाहकी दुश्चिन्ता नहीं थी इस सामान्य एक पैसेके अभावसे मेर श्यामवर्णके मुखने बेंगनी रंग धारण कर लिया ! और कंडक्टर भी बड़ा असभ्य था, बोल उठा कि “महाशय, टिकिट । ”
मैं जातिका बंगाली ठहरा, इस लिए कुटिल बुद्धिका मौरूसी पट्टा - दार हूँ। मेंने सप्रतिभ भावसे कहा--“ बाबू तुम्हारे पास दस रुपये तो नहीं हैं ? ”
उसने कहा--नहीं महाशय, मुझको डिपोसे दस हि पयेकी इकट्ठी रेजगारी कैसे मिल सकती है ! मैंने कहा--ऐं | तब तो बड़ी मुश्किक दिखाई देती है। देखनेसे जान पड़ा कि खुरदा पैसे तो मेरे पास पाँचसे अधिक हैं ही नहीं ।
धीरेधीरे कण्डक्टर मुझसे जिरह करनेलगा---“ चवन्नी है ! अठनी है ? रुपिया है ? ” में भी मुठामियतसे सिर हिलानेलगा ।
मेरे पास ही हरिश बाबू बैठे थे | उन्होंने कहा--महाशय, यदि आपजीमें कुछ ख्याल न करें तो में एक पैसा उधार देसकता हूँ।
उनके चेहरे पर विशेष रूपसे एक मधुर हास्य चमक रहाथा; इस लिए उनपर कुछ अप्रसन्नता नहीं हुई और उनसे मैंने कह दिया नहीं, नहीं, आप क्यों कष्ट करते हैं मैं उतर कर किराये की गाड़ी में बैठ जाता हूँ ।
उन्होंने कहा---इसके लिए संकोच न कीजिए आप प्रायः मुझको ट्राममें मिला ही करते हैं, पैसा लौठा देनेका अवसर मिल ही जायगा | बह भी हँस दिये, में भी हँस दिया ओर कंडक्टरके यंत्रने मीढुं करके एक मधुर शब्द किया । मेंने टिकिट ले लिया | इस घटनाके दस बारह दिन बाद शनिवारको में घरको जारहाथा ।
मझले दादाका लड़का बीमार पड़ा था ; इस लिए में घरको जाते समय बी. एस. ब्रदर्स के बिस्कुटों का एक डिब्बा भी साथमें लिए जारहाथा । हाबड़ा स्टेशनसे जब गाड़ी छोड़ी गई, तब मेंने देखा कि सर्वनाश हो गया | बिस्कुट के डिब्वे को में स्टेशनकी बेठनेकी बेंच ही पर भूलगया | अब बड़ी विपदमे पड़गया । मुर्गीका पाला हुआ हंसि- नीका बच्चा सहसा ताछाबको देखकर जातीय स्वभाववश उसमें तैरने छगकर मुर्गीको जिस भाँति विपदमें डाल देता है मेरी विपद भी उसही प्रकारकी होगई । जैसे कि मुर्गी दो हाथ दूर खड़ी रहने पर भी अपने पाले हुए बच्चेकी रक्षा नहीं कर पाती है, में भी उसी भौतिसे पासहीके बिस्कुटके डिब्बेकी न उठा सका ।
'' कुली, कुली, महाशय, गार्डसाहब ” आदि अनेक चात्कार की किन्तु भाग्यदोषसे मेरे चीखनेको किसीने भी नहीं सुना। गाड़ी भीम बेग और असुर विक्रमसे दौड़ने लगी | अन्तमें थककर मैं बैठ रहा ।
पहले घबराहटमें में अपने साथी यात्रियोंको नहीं देख पाया था । बिस्कुटके डिब्बेको पानेसे हताश होकर बैठते ही मैंने सामने हरिश बाबूको देखा । उनके मुखके उस मृदुमन्द हास्यको देखते ही मुझे बड़ी लज्जा हुईं । मैंने सोचा कि इस पुरुषने क्या मेरी विक्रत अवस्था रेखनेके लिए ही जन्म लिया है ?
हरिश बाबूने कहा--क्यों आश्यु बाबू ऐसे घबराये हुए क्यों हो ! मैंने सप्रतिभ भावसे उत्तर दिया--नहीं कोई विशेष बात नहीं है । एक पोटली भूल आया हूँ उसके उद्धारकी चेष्टामें ठगा हुआ था | उन्होंने कहा कि काहेकी पोटली थी ।
मैंने सोचा कि यदि कहे देता हूँ कि दस आने दामके बिस्कुटोंके डिब्बेके पीछे इतनी घबराहट थी तो बड़ी ही हीनताका परिचय देना टरप । और ट्रामकी उस बातको और आजकी घटनाको मिला कर यह भरा आदमी मुझे बहुत ही अपदार्थ समझ लेगा । इस लिए मैंने उनसे कहा--एक बिस्कुटका बाक्स, दो पाजामें, जापानी शिल्पकी एक रकाबी, शौकीनी दिखानेको एक शीशी केशरज्नन तेल और टेनिस खेलनेका एक रेकिट, विद्या दिखानेके लिए एक जिल््द खीन्द्र प्रन्था- वली और अर्चना मासिक पत्रिकाका नाम ले दिया।
हरिश बाबूने भौंहें सिकोड़ कहा कहा --आप तो स्त्रियो के बैठनेके कमरे से पश्चिम ओर वाली बेंच पर बेठे थे ! सर्वनाश ! मनुष्य कहीं डिटेकूटिव तो नहीं है? मैंने कहा-“ हाँ”
हरिश बाबूने कहा--उस स्थान पर तो केवल बिस्कुटोंका यह डिब्बा पड़ा हुआ था और जब आपने स्टेशनमें प्रवेश किया था उस समय भी मैंने आपके पास कुछ नहीं देखा था । मुझकी अपनी खोई हुई चीजको हरिश बाबूके हाथमें देखकर जितनी तसल्ली हुईं थी उससे अधिक दुःख इस बातसे हुआ कि हरिश बाबूने मुझे झूठा जान लिया | मैंने सोचा कि इन्होंने तो मेरी सचाईकी मात्राको जान ही ।लिया, तब अब और सब यात्रियोंके सामने क्यों अपनी किराकेरी कराऊँ ? इस लिए उनसे सप्रतिभ भावसे कहा शायद | तब उन सबको घर ही भूल आया होऊँगा । लड़केकी बीमा- रीके मारे चित्त ठिकाने नहीं है । अधिक क्या कहूँ---में अविवाहित हूँ । मैंने सोचा ।के जाके ठिकाने न होनेकी ऐसी कैफियत देनेके पीछे लड़केकी पीड़ा और बाबाकी गंगायात्रा आदिका हार कहना अति आवश्यक है । इसके पीछे शेष पथ कल्पित लड़केके माधुये, उसके लाड़-प्यारकी विशेषता, उसकी माताकी परवाही, उसके ऐबके कारणके निर्णय और चिकित्स[ करनेवालेकी समालोचना आदिमें कट गया । वैद्यनाथमें उतरनेसे पहले में हारिश बाबूका ट्रामका पैसा देना नहीं भूछा ।